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लघुकथाएँ - देश - हरीश करमचन्दाणी
लूट

लम्बे कँटीले सूखे झाड़ हाथों में ऊँचा किए वे लड़के आकाश में टकटकी लगाए मैदान में खड़े थे। हवा उस तरफ की नहीं थी, जिधर बड़े मकान थे, उस तरफ हवा बह रही थी। पतंग भी उस ओर ही उड़ रही थी। फटे -पुराने मैले कुचले कपड़े पहने वे लड़के निराश नहीं थे। हालाँकि पतंगें उनकी ओर नहीं थी मगर वे उत्साह से चीखते -चिल्लाते हवा के रुख बदलने का इन्तजार कर रहे थे।
लड़के पतंग उड़ाना चाह रहे थे पर उनके पास पतंगें नहीं थीं। उन्हें इन्तजार था कि कोई पतंग कटकर उनकी तरफ गिरे। उन्होंने आपस में यह तय सा कर लिया था कि पतंगें मैदान में गिरेंगी तो बारी–बारी से वे आपस में बाट लेंगे क्योंकि यदि छीना-झपटी करेंगे लूटने से तो पतंग कटफट जाएगी।
हवा रुख बदलने लगी थीं अचानक एक पतंग कटकर मैदान की तरफ आती दूर से दिखी। पतंग बड़े मकानों को उलाँघती मैदान के ऊपर आ रही थी। लड़के भागते उसी दिशा की ओर पहुँचे। उन्होंने अपनी झाडि़याँ पतंग में अड़ाने के लिए ऊँची करने के बजाय नीचे कर ली थीं कि कहीं पतंग फँसकर फट न जाए। बड़ी मुश्किल से तो कोई पतंग आई थी। लड़के खुशी से उछल रहे थे।
पतंग ठीक उनके सिर पर से होती हुई आगे बढ़ रही थी बादल के टुकड़े की तरह लगती। वे चाहते तो जरा झाड़ ऊँच कर पतंग लूट लेते। पर वे झूमते से सिर उठाए पतंग के पीछे थोड़ा सा तेज चाल से हो लिए।
एकाएक गिरती पतंग ऊँची उठी और देखते–देखते तनकर लहराने लगी। लड़कों ने मुड़कर पीछे देखा– ऊँचे मकान की छत से एक लम्बे बॉस की मदद से पतंग की डोर को किसी ने पकड़ लिया था, पतंग अब उनकी पहुँच से परे थी।

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