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लघुकथाएँ - देश - हीरा लाल नागर
बौना आदमी

अंतत : फैसला हुआ कि इस बार भी माँ हमारे साथ नहीं जाएगी। पत्नी और बच्चों को लेकर स्टेशन पहुँचा। ट्रेन आई और हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठीक से बैठ भी नहीं पाए होंगे कि डिब्बे के शोर को चीरता हुआ फिल्मी गीत का मुखड़ा ‘हम बने तुम बने एक दूजे के लिए’ गूँज उठा। उंगलियों में फँसे पत्थर के दो टुकड़ों की टिक्....टिक्....टिकिर....टिकिर....टिक्....टिक् के स्वर में मीठी पतली आवाज ने जादू का–सा असर किया। लोग आपस में धँस–फँसकर चुप रह गए।
गाना बंद हुआ और लोग ‘वाह–वाह’ कर उठे। उसी के साथ उस किशोर गायक ने यात्रियों के आगे अपना दायाँ हाथ फैला दिया, ‘‘बाबूजी दस पैसे!’’ मेरे सामने पाँच–छह साल का दुबला–पतला लड़का हाथ पसारे खड़ा था।
‘‘क्या नाम है तेरा?’’ मैंने पूछा।
‘‘राजू।’’
‘‘किस जाति के हो?’’ लड़का निरुत्तर रहा। मैंने लड़के से अगला सवाल किया, ‘‘बाप भी माँगता होगा?’’
‘‘बाप नहीं है।’’
‘‘माँ है?’’
‘‘हाँ है, क्यों?’’ लड़के ने मेरी तरफ तेज निगाहें कीं।
‘‘क्या करती है तेरी माँ?’’
‘‘देखो साब, उलटी–सीधी बातें मत पूछो। देना है तो दे दो।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘दस पैसे।’’
‘‘जब तक तुम यह नहीं बताओगे कि तुम्हारी माँ क्या करती है, मैं एक पैसा नहीं दूँगा।’’ मैंने लड़के को छकाने की कोशिश की...
‘‘अरे बाबा! कुछ नहीं करती। मुझे खाना बनाकर खिलाती–पिलाती है और क्या करती है।’’
‘‘तुम भीख माँगते हो और माँ कुछ नहीं करती? भीख माँगकर खिलाते हो उसे?’’
‘‘माँ को उसका बेटा कमाकर नहीं खिलाएगा तो फिर कौन खिलाएगा?’’ लड़के ने करारा जवाब दिया। मेरे चेहरे का रंग बदल गया, जैसे मैं उसके सामने बहुत बौना हो गया हूँ।

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