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लघुकथाएँ - संचयन - जगदीश कश्यप
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खेत में फसल का पहला पानी देने के बाद वह रजवाहे की मुंडेर पर बैठा दूर डूबते हुए सूरज को देख रहा था। सूरज डूबते वक्त इतना ठण्डा क्यों हो जाता है–धूप में कोई असर ही नहीं। उसने देखा कि किसान पिता फावड़े से खेत की नालियाँ फिर सही करने लगा था। कौन विश्वास करेगा कि पिता–पुत्र एक साथ खेत में काम करते हैं–पर बोलते नहीं एक दूसरे से। वो मैकू का किसान बाप अपने बेटे से खूब गप्पें हाँकता है। हुक्का सुलगाने से पहले बेटा दो बार गुड़गुड़ी मार लेता है या बीड़ी सुलगाने से पहले सु्ट्टे मार लेता है। पिता–पुत्र दोनों गँवारी गीत गाते काम करते रहते हैं।
अब वह पीपल के पेड़ के पास आ गया था, यहीं बचपन में वे पेड़ पर चढ़ते थे और कोटरों में से तोते के बच्चे निकाल ले जाते थे। उसका कुसूर इतना ही तो है कि वह शहर में पढ़ आया है और बेरोजगार होकर बाप के संग खेत में आ लगा है। तो इसमें बुराई क्या है? पर न जाने क्यों बाप उसे नौकरी पर ही देखना चाहता है–वही हजार–आठ सौ रुपए की नौकरी । हूँ! डसका मुँह कसैला हो गया।
गाँव में लड़के–लड़कियाँ उससे न जाने क्यों खौंफ खाते हैं। वह डबल एम0ए0 है तो क्या हुआ? क्या वह खेती के अयोग्य हो गया? न जाने क्यों सब उसे सहमी निगाहों से देखते हैं या हिकारत से!
‘‘पीपल बाबा मैंने गाँव में आकर कौन–सा अपराध कर दिया है–मैं तो इसी गाँव का हूँ, यहीं पला हूँ...’’
पीपल बाबा शान्त खड़े हैं। विशाल पीपल पर पंछियों का शोर हो रहा है। गोधूलि का समय है, गाय–भैंस जंगलों से लौट रही हैं। उसने आँसुओं को चुपचाप पोंछ डाला है, यह जानकर कि कहीं कोई देख न ले।


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