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लघुकथाएँ - संचयन - जगदीश कश्यप
आखिरी खम्भा
शहर के अन्तिम सिरे पर लगे बिजली के खम्भे ने एक सुनवान रात को नगर के फैशनेबल इलाके में स्थित खम्भे से तार के माध्यम से पूछा–‘‘कहो यार कुछ तो सुनाओ, मैं तुम्हारी नगरपालिका का अन्तिम खम्भा हूँ। मेरे आगे तो घोर अंधेरा और वीरान इलाका फैला हुआ है, जहाँ झींगुरों और जंगली जानवरों की अजीब–अजीब आवाजें सुनाई देती हैं।’’
,दूसरे खम्भे ने जवाब दिया–‘‘क्या बताऊँ दोस्त, सारे दिन के शोर से मैं तंग आ गया हूँ। कई नशेबाजों की कारें मुझसे टकराई हैं। गश्ती सिपाही बेमतलब मुझे डण्डा मार–मारकर ठेली व रिक्शेवालों को एक तरफ की चेतावनी देते रहते हैं : कई आवारा कुत्ते मेरी जड़ में मूत जाते हैं। शाम के समय लड़कियाँ और औरतें सामने वाले ठेले से चाट के पत्ते लाकर बातें करती हुई खाती हैं और पत्ते मेरी जड़ में फेंक देती हैं जबकि इस काम के लिए कूड़ेदान लगा हुआ है। और इन पान खाने वालों के मुहँ में आग लगे, जो भी मेरे पास गुजरता है, पिच्च से मुझपर थूक देता है। दोस्त, सैंकड़ों दु:ख हैं, क्या–क्या गिनवाऊँ?’’
आखिरी खम्भे को पहली बार महसूस हुआ कि वह शहर के खम्भे से कितना दुखी है। तभी उसे अपने नीचे खुसर–पुसुर की आवाज सुनाई दी। शायद बल्ब बदलने वाले आए हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि इस बार फिर नगर में कोई बड़ा आदमी आने वाला है या चुनाव का चक्कर चलेगा वरना शहर के इस आखिरी खम्भे की ओर कौन पूछता है!’’
सूखे पेड़ की हरी शाख
रेट तय कर वह रिक्शे में बैठ गया और सोचने लगा–बेटे का सामना कैसे कर पाएगा। वह तो आना ही नहीं चाहता था पर रतन की माँ बोली थी–‘‘देखो तुम एक बाप हो। बेटे ने शादी के लिए हामी भर दी–शादी करने यही आएगा। मान लो वहीं घर बसाकर वह हमें भूल जाए तब हमारा क्या होगा? सरिता तो पराए घर की है–एक न एक दिन तो उसकी शादी करनी पड़ेगी। कब तक वह नौकरी कर हमें पालती रहेगी? पूरे सत्ताइस साल की हो चुकी है।’’
‘‘उतरो साहब–यही फाईन रेस्टोरेण्ट है।’’ उसे झटका–सा लगा। रिक्शे से उतर वह न्योन साईन–बोर्ड पढ़ने लगा। पहले नीले अक्षर फिर लाल। धुंधलके में लकदिप रोशनी में उसने देखा–लोग शीशे वाला दरवाजा धकेल कर अन्दर जा रहे थे तो कोई–कोई निकल रहा था। अपने सादे लिबास और सिर पर बंधे साफे को देख एकबारगी उसे खुद पर शर्मिदगी हुई। उसे अचानक याद आया। वह कड़कता हुआ बोला था–‘‘मैं एक मामूली बाबू, कहाँ तक भुगतूँ इस हरामजादे की बदनामी? सारा दिन आवारागर्दी और पार्टी पॉलिटिक्स–क्या मैंने इसलिए पढ़ाया था इसे! जी0पी0 फण्ड में अब बचा ही क्या है? निचोड़ दिया है मुझे दोनों लड़कियों की शादियों ने।’’
तभी वह कार के हॉर्न से चौंक गया और हड़बड़ाकर एक ओर हट गया। कार में से युवक उतरा और उसने आँखों से चश्मा उतारा। बूढ़े आदमी को सामने खड़ा पा युवक के चेहरे पर कुछ उभर–सा आया। रतन ने अपनी जो–जो फोटू भेजी थी उससे यह युवक कितना मिलता–जुलता लगता है। उसे फिर याद आया। उस दिन तो हद हो गई थी। पता नहीं कौन से झगड़े में रतन कमीज–पैण्ट फड़वा आया था और चेहरे पर खरौंचे साफ दीख रही थीं।
‘‘निकल जा...अभी निकल मेरे घर से! खानदान की नाक कटवा दी इस साले ने!’’ और एक जोर से लात मारी....
‘‘पिताजी आप यहाँ ....क्या माँ ने भेजा है?’’
वह भौचक्का रह गया। रतन बड़े अदब से पिता को रेस्टोरेण्ट के भीतर ले गया और अपेन केबिन में ले जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा दिया–‘‘आप आराम से बैठो पिताजी। देखो आपके नालायक बेटे ने कितनी तरक्की की है! आने में तकलीफ तो नहीं हुई? मैं थोड़ा बिजी था, वरना खुद आता।’’
पिता के दिल में आया कि वह अपने सपूत के आगे गिरकर जार–जार रो पड़े।


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