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लघुकथाएँ - देश - जसवीर चावला
डंक

इस बार जैसे ही साधु ने पानी से निकाल घाट पर रखा, बिच्छू चुपचाप पूँछ दबाकर घास में ओझल हो गया। किनारे खड़े लोग तारीफ करने लगे कि साधु ने डंक खाकर भी एक विषैले प्राणी की जहरीली आदतों को बदल डाला।
घास में बिच्छू को इस कदर सुटकता देखकर घोंघा, जो बड़ी देर से सब देख रहा था, अपने को काबू में न रख सका, ‘‘नपुंसक हो गए हो क्या? काटा क्यों नहीं पापी को?’’
बिच्छू ने पूरी शांति बरतते जवाब दिया, ‘‘मेरे डंक का आसरा ले साधु ने अपनी नेकचलनी का इतना प्रचार कर दिया है कि डंक हिलाना भी दूर, ‘ड’ उच्चारण तक भी खतरे से खाली नहीं। साधु तो नहीं, लोग मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।’’

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