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लघुकथाएँ - देश - कमल चोपड़ा
खेलने दो

नितिन के शॉट के साथ ही गेंद नाले में जा पड़ी थी। नाले से गेंद को निकाले कौन? बदबू–गंदगी से भरा गहरा गंदा नाला!
चरणू बड़ी हसरत से उनका खेल देख रहा था। उसे कोई अपने साथ खेला नहीं रहा था। नितिन ने उससे कहा, ‘‘ओए, नाले से गेंद निकाल दे....हम तुझे एक रुपया देंगे....और अपने साथ खिलाएँगे भी....।’’
चरणू लालच में आ गया। नाले में उतरने के लिए लटक गया....अचानक हाथ फिसल गया और वह तड़ाक से कीचड़ में सिर के बल जा गिरा....वह छटपटाने लगा, हाथ–पाँव मारने लगा....उसने तो जैसे जान की बाजी ही लगा दी थी....।
बबुआ लोग ऊपर खड़े हुए हँसते–खिलखिलाते रहे....वे इंतजार कर रहे थे कि वह जल्दी से बॉल बाहर निकाल लाए...।
‘‘साला नीच....देखो तो एक रुपए के लिए गंदगी में घुसकर....।’’
‘‘ये साला नीच....ये गरीब लोग इतने लालची और गिरे हुए होते हैं कि....पैसे के लिए तो ये जान भी दे दें....।’’
तभी चरणू बाहर निकल आया था। सिर से पाँव तक गंदे नाले की गंदगी से लिथड़ा हुआ...मुँह ....हाथ....कपड़े...सब पर कीचड़ लिथड़ा हुआ था....।
‘‘ये ले एक रुपया.....और बॉल इधर दे हमारी...।’’
चरणू फेंके गए इस रुपए पर पैर रखकर खड़ा हो गया और गंभीर होकर बोला, ‘‘मैंने इस एक रुपए के पीछे इतना बड़ा खतरा मोल नहीं लिया था....।’’
‘‘तो क्या सौ रुपए लेगा....?’’
‘‘नहीं....मैं भी तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ.....।’’
बबुआ लोग खिलखिलाने लगे, जैसे उसने कोई अनोखी और अजीब बात कह दी हो....।
‘‘...तू हमारे साथ खेलेगा...अपनी हालत तो देख....जैसे कोई....सूअर कीचड़ में लोट–पोट होकर आ रहा हो....।’’ हँसते–हँसते दोहरे हो गए सब।
‘‘मैं खेलना चाहता हूँ....खेलो और खेलने दो । खिलाओगे या नहीं....?’’ जोर देकर पूछा उसने। जवाब में झुँझलाकर बोला नितिन।
‘‘कह दिया ना एक बार, बॉल इधर दे और भाग यहाँ से, वरना....।’’
चरणू ने गुस्से से उस बॉल को, जिसे उसने गहरे गंदे नाले से अपनी जान की बाजी लगाकर निकाला था, फिर से नाले में फेंक दिया और गंभीर कदमों से वहाँ से चल पड़ा, ‘‘देखता हूँ, तुम भी कैसे खेलते हो....?’’

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