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कृपा

चारों ओर चहल–पहल थी। जगह–जगह तोरणद्वार सजे थे। देशभथ्क्त गीतों के कैसेट बज रहे थे। रह–रहकर पांच–सात खद्दरधारी इधर–से–उधर जाते दिखाई पड़ रहे थे। पूछने पर पता चला कि नेताजी, मंत्री बनने के बाद पहली बार क्षेत्र भ्रमण के लिए आ रहे हैं।
एकाएक कोलाहल मचा। धूल उड़ने लगीं बैंडवाले स्वागत–धुन बजाने लगे। तभी कारों का काफिला आकर रूका। बीचवाली कार से एक श्वेत खादीधारी उतरे। पीछे सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी थे। नेताजी आगे बढ़ चले। चारों तरफ उनकी जय–जयकार होने लगी। वे रह–रहकर हाथ जोड़ लेते थे, परिचितों से कुशल–क्षेत्र पूछते और अपरिचितों से बनावटी मुस्कान बिखेर रहे थे।
तभी भीड़ को चीरता एक मोटा–तगड़ा मुस्टंडा सामने आया। शक्ल–सूरत नम्बरी गुंडे जैसी थी और साथ में कड़ी–कड़ी मूंछों वाले चार युवक भी थे। वह वीरू दादा था। पिछले चुनाव में उसने नेताजी को जिताने में काफी मदद की थी।
उसे देखते ही नेताजी रूके और बोले, ‘‘क्यों रे विरूआ, पहले तो तुम जेब काटते थे, छोटी–मोटी चोरी करते थे, लेकिन अब तो तुम्हारे नाम हत्या और लूटपाट की खबरें भी मिलने लगी हैं।’’ उसने दांत निकालकर ‘हें–हें, की और हाथ जोड़कर धीरे से कहा, ‘‘....सब आपकी कृपा है मालिक!’’
नेताजी ने उसकी पीठ थपथपायी और हंसते हुए आगे निकल गए।

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