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लघुकथाएँ - देश - कुमार नरेन्द्र
अवमूल्यन

‘‘ऐ भैया! पंजी की ये देना।’’ पाँच वर्षीय बालक ने गजक की ओर इशारा करते हुए जरा ऊँची आवाज में कहा।
दुकानदार का ध्यान एकदम बालक की ओर आकर्षित हुआ, ‘‘पंजी की गजक नहीं मिलती।’’ दुकानदार ने खीजते हुए कहा।
‘‘क्यों?’’ बालसुलभ बुद्धि ने प्रश्न किया।
‘‘ज्यादा जुबान चलाता है बे....हैं....’’ लाला ने भड़कते हुए कहा ।
मासूम बालक बिना कुछ कहे धीरे–धीरे घर की ओर चल दिया। रास्ते में उसने पाँच के उस सिक्के को कई बार उलट–पलटकर देखा। एक ओर छपा था–भारत! और दूसरी ओर–रुपए का बीसवां भाग!
जब वह जब तंग गली में घुसा तो दाईं नाली भी अपना रंग दिखा रही थी। बालक ने तुरंत निर्णय ले पंजी जोर से नाली में फेंक दी। बालक काफी देर तक खड़ा उस डूबती हुई पंजी को देखता रहा, सुख का अनुभव करता रहा।

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