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पिता की साँसें बहुत मुश्किल से आ पा रही थीं। यहाँ तक कि उस धरधराहट को सुनना तक मुझे मुश्किल हो उठा। मगर उनकी मदद कोई नहीं कर सकता था। मेरे मन में कभी–कभी यह कौंध उठता कि ये शांति से गुजर जाएं तो यही बेहतर हो!....यकायक मुझे यह भी लगता कि ऐसी बातें मुझे सोचनी ही नहीं चाहिए। मुझे अपना आप दोषी लगने लगता। तभी मैं यह भी महसूस करता कि यही एक अच्छा तरीका भी है कि मैं अपने पिता के बारे में ऐसा सोचूँ। आज भी मुझे यह ठीक लगता है।
उस सुबह श्रीमती येन, जो कि उसी अहाते में रहती थीं, हमारे पास आईं। उन्होंने कहा कि किसी भी चीज की इंतजारी में समय बरबाद करने का कोई मतलब नहीं। इसलिए हमने उनके कपड़े बदले, नोट तथा कायांग सूत्र जलाकर उनकी आत्मा के लिए प्रार्थना की। राख को कागज में लपेटकर उनके हाथ में थमा दिया.....
‘‘उन्हें पुकारो!’’ श्रीमती येन ने कहा। ‘‘तुम्हारे पिता का आखिरी वक्त आ पहुँचा है। उन्हें जल्दी पुकारो!’’
‘‘पिताजी! पिताजी!’’मैंने पुकारा।
‘‘जोर से। उन्हें सुनाई नहीं पड़ता। जल्दी करो, तुम नहीं पुकार सकते क्या?’’
‘‘पिताजी! पिताजी!1’’
उनका चेहरा जो थोड़ा शांत हो गया था, दोबारा से असहज हो उठा। बेहद दर्द से उन्होंने अपने पपोटों को धीरे–से हिलाया।
‘‘उन्हें बुलाओ!’’ येन ने फिर आग्रह किया। ‘‘जल्दी से....बुलाओ उन्हें!’’
‘‘पि–ता–जी!!!’’
‘‘यह क्या?....चिल्लाओ मत...मत....’’
उनकी आवाज बहुत धीमी थी, साँस लेने की छटपटाहट फिर से शुरू हो चली थी। कुछ ही देर बाद पहले की शांति को उन्होंने फिर से हथिया लिया था।
‘‘पिताजी!!!’’
मैं तब तक उन्हें पुकारता रहा, जब तक कि उन्हें आखिरी साँस न आ गई।
अपनी उस आवाज को मैं आज भी वैसे ही सुन सकता हूँ। और जब भी मैंने ये चीखें सुनी हैं, मुझे महसूस हुआ
है कि मेरे द्वारा की गई गलतियों में यह सबसे बड़ी गलती थी।
अनुवाद:राजकुमार गौतम
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