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लघुकथाएँ - देश - महेन्द्र रश्मि
कान्वेण्ट स्कूल

शरनजीत अपनी बैठक में बैठा मेहमानों को बड़े चाव से बता रहा था, ‘‘मेरा लवली बेटा क्लास में फस्ट आया है। साढ़े चार सौ में सो चार सौ पैतालिस नंबर लिए हैं।’’
तभी लवली भी दौड़ता हुआ आया और पिता की टाँगों से लिपट गया ।
‘‘बेटा,अपने स्कूल का नाम बताओ?’’
‘‘सेंट जाजफ कांवेंट स्कूल।’’ बच्चे ने मचलते हुए जवाब दिया।
‘‘कौन सी जमात में पढ़ते हो, बेटा?’’
‘‘सैंकड,’’ कहता हुआ बच्चा आँखें फाड़फाड़ कर सभी की ओर देखने लगा। सभी के बच्चे को शाबाशी दी।
‘‘हाँ भई, तुम्हारा बेटा तो बहुत होशियार है। तुमने स्कूल भी तो बहुत महँगा चुना है। कितना खर्च आता है?’’ एक ने पूछा।
शरनजीत का सीना मान से फूल गया, ‘‘हाँ, खर्च तो है कोई हजार–बारह सौ रुपए महीना । फीस भी तीन महीने की इकट्ठी ही लेते हैं। पर मैंने सोचा, हमको तो नहीं पढ़ाया बापू ने अच्छे स्कूल में, हम तो बच्चे को पढ़ा–लिखा कर कुछ बनाए।’’ सामने बरामदे में चारपाई पर लेटे, लकवे से पीडि़त अपने वृद्ध पिता की तरफ देखते हुए शरनजीत ने कहा। बच्चा अपने पिता से खेलता, कभी जेब में हाथ डालता, कभी घड़ी को छेड़ता। मेहमान शर्बत पी रहे थे।
बरामदे में वृद्ध पानी पी रहा था। लकवे से चेहरा टेढ़ा हो जाने के कारण, पानी आया मुँह से बाहर गिर जाता । अचानक लवली दौड़ता हुआ भीतर आया और ठंडे पेय की बोतल ले आया। शरनजीत के पास खड़े हो, मुँह टेढ़ा कर, बोतल मुँह से लगा, आधा नीचे बिखेरता हुआ वह अपने बाबा की नकल उतारने लगा।
‘‘बेटे,तेरे बाबा का मुँह कैसा है?’’शरनजीत ने पूछा।
लवली मुँह टेढ़ा कर खिलखिलाकर हँस पड़ा।
‘‘बेटा, बाबा का हाथ कैसा है?’’
लवली ने बाएँ हाथ की कोहनी अंदर की ओर मोड़ते हुए हाथ ढीला लटका दिया। शरनजीत बेटे की होशियारी पर हँस रहा था। मेहमान एक–दूसरे की ओर देख रहे थे और वृद्ध ने नम आँखों से चेहरा दूसरी ओर कर लिया था।

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