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लघुकथाएँ - संचयन - महेश दर्पण
इस्तेमाल
‘‘सुना तुमने।’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘अरे, वो सामनेवाले हैं न, उनके किराएदार ने अपनी भाभी के साथ....छि:,कितने सस्ते हो गए हैं ये रिश्ते भी!’’
‘‘रिश्ते या लोग?’’
‘‘एक ही बात है। संबंधों का अर्थ सिर्फ़ इस्तेमाल करना ही तो रह गया है। माँ,बाप,भाई,बहन, बेटी, प्रेमिका–सभी एक–दूसरे को वक्त–वक्त पर इस्तेमाल करने से नहीं चूकते।’’
‘‘अच्छा भई, अब चलोगी भी या....शो शुरू होने में सि‍र्फ़ आधा घण्टा रह गया है।’’
काफी देर तक बहस–मुबाहिसे के बीच आदमी के गिरते हुए स्तर पर चिन्ताएँ व्यक्त करने के बाद वे दोनों सिनेमा हॉल पहुँचे। लाइन में खड़े रहने के बावजूद जब टिकट मिलने की कोई उम्मीद दिखाई न दी तो वह पत्नी के पास पहुँचा,‘‘सुनो!’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तुम जरा मैनेजर से रिक्वेस्ट करके देखो, शायद दे ही दे।’’
‘‘तुम जाओ न प्लीज!’’
‘‘ओह डियर, कुछ समझा भी करो। जाओ, जल्दी जाओ, शो शुरू होने ही वाला है।’’
पत्नी ने मैनेजर के कमरे से टिकट हाथ में लहराते हुए निकली तो पति चहका, ‘‘देखा, मैंने कहो था न!’’


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