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लघुकथाएँ - संचयन - सुकेश साहनी
नंगा आदमी

आँख खुलते ही मैंने घर के सभी खिड़की-दरवाजे खोल दिए। वर्षों से बंद पड़े कमरे में हर कहीं चाँदनी छिटक गई। सात समुंदर का फैसला तय कर मुझ तक पहुँची हवा ने जैसे ही मुझे छुआ, मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई। मैंने दो-तीन बार गहरी साँस ली, फिर न जाने किस शकित से पराभूत मैंने एक-एक कर अपने सभी कपड़े उतार डाले। इनमें वे सभी पोशाकें जिन्हें मैं आज तक भिन्न-भिन्न ‘अवसरों’ पर पहनता रहा था।
मैं घर से बाहर सड़क पर आ गया । आसमान में चाँद चाँदी-सा चमक रहा था। सड़क पर खूब हलचल थी।
सबसे पहले मुझे बहुत-सी औरतें आती दिखाई दीं। हरेक की गोद में एक नन्हा सूरज था। उन नन्हें सूर्यों को अपनी जैसी हालत में देखकर मुझे खुशी हुई। उनमें से किसी ने मुझ पर धयान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रीं तो मैं उनके वात्सल्य की ऊष्मा में नहा गया।
सामने से लड़के-लड़कियों का झुंड चला आ रहा था।वे अपने सपनों की बातें करते हुए मेरे पास से निकल गए। कई सालों बाद मैं जाग्रत अवस्था में सपने देखने लगा।
कारखाने से लौट रहे कामगरों की आँखों में दिनभर की मेहनत से कमाई गई तृप्त थकान थी। उन्होंने भी मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रे तो मैं पसीने से नहा गया।
आगे सड़क का सन्नाटा था। दोनों ओर के मकानों के खिड़की-दरवाजे ही नहीं रोशनदान भी मजबूती से बंद थे। बड़े-बड़े लोहे के गेटों के उस पार विदेशी नस्ल के खतरनाक कुत्ते थे, जो मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे। देखते ही देखते काँच की दीवारों के पीछे तरह-तरह की पोशाकों में लिपटे लोग नमूदार हो गए। मुझे इस हालत में देखकर उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वे सब सपने अपने घरों में दुबक गए।
घर लौटने पर वर्षों बाद मीठी नींद सोया ।
सुबह खिड़की से झाँककर देखा। बाहर वही लोग जमा थे, जो रात मुझे देखकर छिप गए थे। इस समय उन सभी ने सफेद कपड़े पहन रखे थे।
मेरे बाहर आते ही उनमें से एक आगे बढ़कर आदेश्भरे अंदाज़ में बोला, “तुम ऐसा नहीं कर सकते---लो, इन्हें पहन लो।”
मैंने देखा, उसके पास वही कपड़े थे जिन्हें बीती रात उतार फेंका था।

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