लंबे अंतराल के बाद ननिहाल जाने का सौभाग्य हुआ। अम्मा के साथ मन में ढेरों उमंग लिए पुरानी सहेलियों से मिलने की खुशी समेटे मैं अपने पांच साल के बेटे के साथ ननिहाल पहुँच गई। गर्व के लिए भारत में बीता हर क्षण वैसे ही कौतुक भरा होता है पर गाँव तो उसके लिए किसी जादुई नगरी से कम नहीं था। कहीं–कहीं अधपके गेहूँ के खेत में अठखेलियाँ करती बालियाँ, आम के पेड़ों पर लटकते हवा से डोलते नन्हें टिकोरे उसे गुदगगुदा जाते। पगडंडियों पर चलना तो दो दिन में ही उसका जुनून बन चुका था।
जन्म से ही अमेरिका में रहने वाला गर्व किसी नए आगंतुक को परंपरावादी पहनावे में देखकर सिमट जाता था। बहुत कहने पर ही वह आगंतुक का पैर छूता। इसके लिए अक्सर उसे डांट भी खानी पड़ती, ‘‘गर्व! तुम्हें कितनी बार समझाऊँ कि बड़े लोगों का पैर छूकर उन्हें प्रणाम करते हैं। यहाँ हेलो हाय नहीं बोला जाता बेटा। तुम सुनते क्यों नहीं....अबसे तुम घर में आने वालों का पैर छूकर प्रणाम करोगे, समझे।’’मैंने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की।
गर्व ने भी एक अच्छे बच्चे की तरह ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
गाँव की अपनी परंपरा होती है। बहू–बेटियों के आने पर जाति और वर्ग को दरकिनार कर सभी लोग उससे मिलने आए। उन्हें भी मिलने वालों का तांता लगा था। एक दिन बुजुर्ग जमादार चच्चा मुझसे मिलने आए। उन्हें मैंने हाथ जोड़े। गर्व भी वहीं खड़ा था। वह भी पट से झुका और उनके पांव छू लिए। ‘‘अरे–अरे भैया नाहीं’’ कहते जमादार चच्चा भी हड़बड़ा गए और अवाक रह गए जब संभले तो गर्व की आशीष से नहला दिया। पर गर्व को ऐसा करते देख दूर खड़ी बड़की नानी चीख़ पड़ी, ‘‘अरे का बचुवा...हाँ–हाँ दिपिया ला रे वहके गुसलखाना में....लई जाइके नहलावा। एक दम्मै बौरहा बाटै....अरे राम जमादार का छूइ दिहल, रगड़ के नहवाय द हम गंगाजल मझलको से भेज हुई।’’ बड़की नानी बड़बड़ाती जा रही थी.....ये आजकल के लरिका लोग...जौन करें सब थोरे ह....’’
गर्व सहमा सा मेरे पास खड़ा रहा मैं भी सकपका गई। मैं गर्व को पकड़कर गुसलखाने में पहुँची तब तक झपटती हुई बड़की नानी के गर्व की सिसकियों की उपेक्षा करते हुए उसके गाल पर चट से एक चांटा जड़ दिया, ‘‘भकुआ कहीं के तोहके समझ में नाहीं आवेला केकर पैर छुअल जाला केकर नाहीं। कहीं जमादार के छुअल जाला। उत अछूत हउवैं उनसे बचके रहल जाला। दिपिया ले गंगाजल से नहलाय दे सुद्ध कर एहका। बड़की नानी गर्व को धमकाते हुए बोली, ‘‘खबरदार अब तो जमादार के छुहला।’’
सहमे गर्व को मैंने बड़ी नानी के जाते ही सीने से लगा लिया। उनके इस व्यवहार से मैं भी कसमसा कर रह गई। नन्हें मन की व्यथा और मैं कैसे बांटती।
‘‘मम्मा उन्होंने मुझे क्यों मारा? मैंने तो उनक पैर ही छुए थे? मैं यहाँ’’ वह लगातार रोए जा रहा था। यह सवाल उस अबोध मन में कील की तरह धंस गया। सिसकी लेता गर्व बोलता जा रहा था, ‘‘अब मैं कभी किसी का पैर नहीं छुऊँगा।’’