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लघुकथाएँ - देश - मुकेश वर्मा
उस मकान में

रिटायरमेंट के अगले ही दिन हम जिस मकान में पहुंचे, वह शहर से थोड़ा हटकर अर्धविकसित कॉलोनी में बना था। मकान पहाड़ी की चढ़ाई पर था। वहाँ से ढेर सारा आसमान और दूर की झील पास दिखती थी, यहां तक कि उसका पानी भी दिखता था। बाजार नहीं दिखता था लेकिन पास था। मेरी पत्नी ने बहुत सोच–समझकर पसन्द किया था। रिटायरमेंट के नजदीकी दिनों में काम की कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि मैं इस मकान को पहिले देख नहीं पाया। लेकिन सदा की तरह पत्नी की कार्य–कुशलता,दूरन्देशी और चतुर बुद्धि के भरोसे भली तरह निश्चिन्त रहा।
जब मैं पहली बार पहुँचा, रिटायर हो चुका था। सामान उतर रहा था। सबसे पहले मैंने ट्रक से एक कुर्सी निकलवाई। बरामदे में रखी और बैठ गया। सिगरेट जलाकर कौतूहल से उस मकान को देखा जहां मुझे अब जिन्दगी के आखिरी दिन गुजारने थे। फिर टहलते हुए उस खिड़की को देखा जिसके करीब हमारा पलंग लगाया जा रहा था। खिड़की में से किसी डाल के फूल बार–बार भीतर घुसने की कोशिश करते और बाहर हो जाते। उस रसोई–घर को देखा जहां मेरी आखिरी दाल रोटी बननी थी। उस छोटे से पूजाघर को देखा जहां जल्द ही पत्नी के साथ चटाई पर बैठकर मुझे भगवान के साथ अपना और उनका आखिरी समय गुजारना था।
धीरे से बाहर निकला। गेट से एक रास्ता सीधे झील को जाता था। झील के दूसरे सिरे पर श्मशान था। लौटते हुए कदमों को गिना। आश्वस्त वापस लौट आया। लेकिन गहरी थकान लगी। रिटायरमेंट के बाद पहली गहरी थकान। मैंने हँसना चाहा लेकिन हँस नहीं पाया। यह अजब लगा।
वापसी पर देखा। पत्नी अखबार वाले को कल से ज्यादा अखबार लाने के निर्देश दे रही थी। साहब अब ज्यादा अखबार पढ़ेंगे। सोने के कमरे में टी.वी. ऐसी जगह रखा गया जहाँ से दिन–रात देखा जा सकता है,पसरे हुए,अधलेटे भी।
हाथ भर दूरी पर किताबों की अलमारी,जिससे टेबिल पर टेलीफोन,पानी का जग,गिलास,दवाइयों की ट्रे। पलंग के पास घंटी जिससे कभी भी किसी को बुलाया जा सके। नजदीक दीवार पर चिपके कागज में फेमिली डाक्टर,बेटे–बेटियों,बैंक,पोस्ट आफिस,पेंशन–आफिस और एक–दो दोस्तों के टेलीफोन नम्बर।
पत्नी ने मेरे सूट और कपड़े सन्दूक में बन्द कर दिए। मेरे लाख मना करने पर भी चार–छह कुर्ता- पजामा सिलवाए गए। धोती भी ली और शाल भी। ऐसी चप्पलें खरीद लाए जिसके तल्ले खुरदुरे और चिकने फर्श पर कतई फिसल न सकते हों। मैंने देखा कि जहाँ चप्पलें रखी हैं, वहाँ एक छड़ी भी रख दी गई है। छड़ी की मूँठ भद्दी और चिकनी थी। कमरे में कहीं ऐश ट्रे नहीं थी। कचरे में फेंक दी गई थी।
रात का कातर अँधेरा है। बहुत दूर से तेज ढोलकों पर कीर्तन की अस्पष्ट आवाजें भरकर रह–रहकर आ रही हैं करीब लेटी पत्नी के हल्के खर्राटे हौले से उठ–बैठ रहे हैं। मैं उठा। बाहर छत पर आया। दूर झील का पानी चाँदनी में चमक रहा है। उसके आगे श्मशान का अंधेरा है। भीतर आकर मैंने धोती–कुर्ता पहना। शाल ओढ़ी। चप्पलों में पाँव डाले और छड़ी उठा ली। ड्रेसिंग टेबिल के सामने खड़ा हो गया। बत्ती जला दी। आईने में एक अजनबी इन्सान खड़ा था। मैंने रोना चाहा लेकिन रो नहीं सका। यह अजब लगा।

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