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लघुकथाएँ - देश - मुकन्द लाल
जीवन संध्या के कुछ पल

सुबह तड़के नित्य कर्मों से निवृत होकर बलदेव लाठी टेकता ओसारे में पड़ी उस खाट की ओर आहिस्ता–आहिस्ता बढ़ने लगा जिससे उसका संबंध वर्षों से स्थापित हो गया था।
खाट के पास पहुँचकर पल भर के लिए वह रुका, फिर वह खाट पर बैठ गया। खाट पर बैठे–बैठे उसने अपनी लाठी को वहीं दीवार के सहारे खड़ा कर दिया।
उसके परिवार में उसकी पत्नी को छोड़कर सभी थे। उसकी पत्नी उसको छोड़कर पाँच वर्ष पहले ही सिधार गई थी।
खटमल भी यदा–कदा उसको काटकर सच्चे मित्र होने का प्रमाण देता रहता था।
ईश्वर के स्मरण के लिए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं लेकिन खटमल ने कुछ पल तक ही अराधना चलने दी।
ध्यान में व्यवधान उपस्थित होने पर वह खीझ उठा। पलभर वह अपने होठों में बुदबुदाता रहा फिर उसने अपनी दृष्टि घर के हर हिस्से पर दौड़ाई।
उसके पोते–पोतियाँ गहरी नींद में सोए थे। उसका पुत्र गोविंद टहलने के लिए घर से बाहर निकल चुका था ।
रसोई से आती बर्तनों की आवाज सुनकर उसको समझ में आ गया था कि बहू जाग चुकी है।
कुछ वह कहना चाह ही रहा था कि उसकी खाँसी उभर आई। उसने खाँसी पर काबू पाते हुए कहा, ‘‘बहू!....एक कप चाय देना...।’’
माधवी बलदेव की याचना सुनकर बर्तन धोते हुए धीमी आवाज में बड़बड़ाने लगी, ‘‘बस शुरू हो गया इस बूढ़े का नाटक...कभी चाय..कभी पानी....कभी खाना..कभी नाश्ता...कभी कुछ...मरता भी नहीं...मुहल्ले के उससे छोटी–छोटी उम्र के बूढ़े मर गए लेकिन यह टील्हा जैसा पड़ा है...।’’
क्षण भर बाद बलदेव फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘बहू!....एक कप चाय बनाकर दे दो....।’’
‘‘अभी किरण ही फूटी है।....ओह!...चाय–चाय का शोर मचने लगा इस घर में...मैं पूछती हूँ...बासन–बर्तन माँजे या जूठे बर्तन में चाय बना दें?’’ धोए हुए बर्तनों को रखते हुए तल्ख आवाज में बहू ने कहा।
बलदेव अपनी बहू की बात सुनकर मौन हो गया, खूँसट को रात में नींद आती भी है या नहीं....खाँस–खाँसकर सबकी नींद तो खराब करता ही है, सुबही भी चैन नहीं लेने देता है...पता नहीं किस हाड़–मांस का बना है....।’’
थोड़ी देर तक बलदेव चाय की चाह में बैठा रहा लेकिन उसको चाय के दर्शन नहीं हुए। निराश होकर उसने अपनी आँखों पर चश्मा लगाया और लाठी टेकता निकल पड़ा घर से बाहर मन बहलाने की नीयत से।
गली पार करके वह सड़क पर आया ही था कि उसके कानों में आश्चर्य–मिश्रित आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘चाचा...।’’
बलदेव के पैर ठिठक गए।
‘‘कौन....?’’ चश्मा सँभालते हुए उसने पूछा।
‘‘हम बनवारी!....कल ही कलकत्ता से आए हैं।...वहीं रहते हैं....।’’
फिर क्षण भर रुककर बलदेव के झुर्रीदार चेहरे का मुआयना करते हुए हर्षतिरेक में उसने कहा, ‘‘चाचा...अभी तक जिन्दा हो... हम तो समझे कि तुम्हारा राम नाम सत हो गया....खैर छोड़ो। चलो हमारे साथ आज एक कप चाय पी लो।...फिर तुमसे कभी मुलाकात होगी भी या नहीं....कौन जानता है....।’’
बलदेव उसके चेहरे को मौन होकर यूँ देखता रह गया मानो उसकी कोई आवाज उसे सुनाई नहीं पड़ रही हो।
वह एक झटके से डगमागते कदमों से मुड़ा और चल पड़ा अपने घर की ओर।
बनवारी कहता रह गया, ‘‘चाय चाचा।....चाय...।’’
प्रत्युत्तर में लाठी की खट–खट की आवाज सुनाई पड़ती रहीं।

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