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लघुकथाएँ - देश - नासिरा शर्मा
रुतबा

‘‘सुनो, आज फिर मुन्ना बड़ी मिन्नतों के बाद खाना खाने को राजी हुआ, वह भी रोते–रोते।’’ पत्नी के उदास चेहरे से मैंने नजरें हटाकर अपने इकलौते बेटे के गालों को चूमा, जिस पर आंसू की खुश्क लकीरें मेरी बेबसी का नक्शा खींच रही थीं। कुछ देर मैं चुपचाप उस मासूम चेहरे को ताकता रहा, फिर पत्नी से कहा, ‘‘सुनो, मैं सुबह दफ्तर के लिए जल्दी निकलूँगा।’’
एक सप्ताह तक पैदल दफ्तर जाने के बाद और पत्नी की शिकायत से मैं इस काबिल हो गया कि प्लास्टिक की सुर्ख रंग की कार अपने बेटे के लिए खरीद लाया और उस शाम मैं मुन्ने की आँखों से बरसती खुशी से सराबोर हो गया। कई दिन बाद घर में घुसते ही मुन्ने की हिचकियाँ सुनाई पड़ीं।
‘‘क्या हुआ?’’ बेकरार होकर पूछा।
‘‘कुछ नहीं? मोटर टूट गई है।’’ पत्नी का स्वर उभरा।
‘‘तुम आखिर करती क्या रहती हो? कैसे टूट गई? सारा मोहल्ला घर में जमा रखती हो, कराओ अब तुम चुप!’’ मैं पत्नी पर बुरी तरह बरस पड़ा। गम एवं गुस्सा, दोनों ने मुझे पागल–सा बना दिया था।
‘‘मैं भी क्या करती?’’ पत्नी रुआंसी आवाज में बोली।
‘‘क्या करती?’’ मेरा पारा आसमान को छूने लगा।
‘‘वह अपने साहब का बेटा है न बबलू....आज जाने कैसे इधर आ गया खेलने। कब और कैसे टूट गई मोटर, मुझे पता ही न चला!’’पत्नी ने धीरे से कहा।
‘‘अच्छा?’’ मेरे लाडले का गुस्सा काफूर हो चुका था। अब उसमें आश्चर्य था और आँखों में ऐसी चमक, जो मुन्ने के रुतबे के एकाएक बढ़ जाने की चुगली खा रही थी।

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