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लघुकथाएँ - देश - अवधेश कुमार
नोट

उन्होंने मेरी आंखों के सामने सौ का नोट लहराकर कहा, "यह कवि-कल्पना नहीं इस दुनिया का सच है। मैं इसे जमीन में बोऊँगा और देखना, रूपयों की एक पूरी फसल लहलहा उठेगी।"
मैंने उस नोट को कौतुक और उत्सुकता के साथ ऐसे देखा जैसे मेरा बेटा पतंग देखता है।
मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोलीं। उनमें दौड़ता हुआ लाल और नीला खून देखा।
उसमें मेरा खाना और खेल दोनों शामिल थे।
उसमें सारे कर्म्,पूरी गृहस्थी, सारी जय और आघात, दिन और रात शामिल थे। मुझे हर कीमत पर अपने आपको उससे बचाना था। मैंने उसे कपड़े की तरह फैलाया और देखना चाहा कि क्या वह मेरी आत्मा की पोशाक बन सकता है?
उन्होंने कहा, "सोचना क्या और इसे पहन डालो। यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ढंक सकता है।"

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