मौजा कबखंड की मुख्य सड़क के किनारे एक बीमार सा भवन, जिसके दरवाजे और खिड़कियाँ कब के निकल चुके थे। अपनी बदहाली पर चुपचाप आँसू बहाता वह गाँव की प्राथमिक पाठशाला थी। कुछ बच्चे नंग–धड़ग, कुछ मैले–कुचैले, किसी की नाक बहती हुई तो किसी की कनपट्टी से कड़वा तेल चूता हुआ। कुछ लक्ष्यहीन बैठे हुए, कुछ कंधे से झोला टाँगे पहुँचते हुए तो कुछ समूह बांधकर चापाकल पर पैर धोते, मुँह पोछते, कुल्ला करते या फिर बिन तमाशे के ही तमाशबीन बने हुए। इतने में सड़क से एक आदमी सूअर के बच्चे की पिछली टाँग बांधकर लाठी से टाँगे हुए जा रहा था। सूअर का बच्चा (पाहुर) लगातार चिल्ला रहा था। स्कूल के सारे बच्चे खेलकूद छोड़कर उसे स्तब्ध भाव से देखने लगे। जब पाहुर ओझल हो गया तो बच्चों ने एक गंभीर सवाल सब के सामने रख दिया ‘बताओ जी, वह सूअर का बच्चा क्यों रो रहा था?’
एक बच्चे ने कहा–नहीं जानते हो जी! इसके पैर बंधे थे, फिर लाठी से टँगा था इसी दर्द से वह रो रहा था। दूसरे ने कहा–नहीं भई तुम नहीं जानते ,रोम उसको अपनी ।माँ के पास से दूसरी जगह ले जा रहा था, इसलिए वह रो रहा था। तीसरा बच्चा बीच में ही बोला–ऊँ–हूँ...तुम भी नहीं समझ पाए। अरे उसे अभी तक कुछ खाने को नहीं मिला था, इसलिए रो रहा था। अंत में काफी गंभीर होकर एक बच्चे ने कहा–किसी ने नहीं समझा! मैं बताता हूँ। अरे । वह डोम पढ़ाने के लिए उसे स्कूल ले जा रहा था। उसी डर से वह रो रहा था। एकाएक सब बच्चे चिल्ला पड़े–हाँ... हाँ सही बात! सही बात!!