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संवेदना के स्तर पर हृदय स्पर्श करती ये लघुकथाएँ : डा0 सतीश राज पुष्करणा
 

अपनी पसंद पर विचार करना बहुत सरल कार्य नहीं है। उस पर भी किसी साहित्यिक रचना पर इस दृष्टि से विचार करना और भी कठिन है। इसका कारण भी हैं कि साहित्य गणित या विज्ञान की भाँति निश्चित सूत्रों में बँधकर नहीं चलता अपितु वह समय के साथ अपने में परिवर्तन करते हुए विकास की यात्रा तय करता है। लघुकथा भी साहित्य की एक विधा है, अत: यह इसका अपवाद कैसे हो सकती है!
रचना किसी भी विधा की हो उसकी पसंद के दो ढंग हुआ करते हैं–एक तो प्रथम पाठकीय दृष्टि। दूसरी विधा के मानडंडों पर कसकर देखने की दृष्टि। कभी–कभी रचना स्वयं को दोनों दृष्टियों से देखने की माँग करती है। वस्तुत: ऐसी ही रचनाएँ कालजयी बनती हैं।
लघुकथा–जगत में भी ऐसी एक नहीं अनेक रचनाएँ हैं; उनके अनेक लेखक हैं। जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत पसंद का प्रश्न है, एक–दो लघुकथाओं को चुनना बहुत ही कठिन है। मुझे रमेश बतरा, डॉ. सतीश दुबे, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल,श्यामसुन्दर दीप्ति, श्यामसुंदर अग्रवाल, कृष्णानंद कृष्ण इत्यादि की लघुकथाएँ प्राय: मुझे पसंद आती है। इनके अतिरिक्त अंकिता, चैतन्य त्रिवेदी, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन,’पुष्पा जमुआर, डॉ. उपेन्द्र प्रसाद राय इत्यादि की भी कोई–कोई लघुकथा मुझे अच्छी लगी है। किन्तु कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें मैंने वर्षों पूर्व पढ़ा और आज भी मेरे जेहन में यथावत प्रभाव जमाए बैठी हैं। जैसी कतिपय रचनाओं में मैं यहाँ केवल दो लघुकथाओं ‘प्रायश्चित’ (महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’) एवं ‘एहसास’ माधव नागदा का जिक्र करूँगा । हालाँकि इन दोनों लघुकथाओं की चर्चा प्राय: नहीं हुई। ये दोनों लेखक भी इस रूप में नहीं जाने–पहचाने गए। हालाँकि दोनों के एकल संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं। किन्तु उनकी रचनाएँ वांछित स्थान बना पाने में सफल नहीं रहीं। किन्तु ‘एहसास’ और ‘प्रायश्चित’ व्यक्तिगत रूप में मुझे बहुत पसंद हैं।
इन दोनों रचनाओं में जो एक बात सामान्य है वह है इनका संवेदना के स्तर पर हृदय–स्पर्श कर जाना।
‘प्रायश्चित’ (महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’) एक ऐसी घटना पर केन्द्रित है जो किसी भी घर परिवार में प्राय: घटित होती रहती है। किन्तु यह रचना साधारण घटना पर केन्द्रित होते हुए भी सहज बाल मनोविज्ञान की सटीक अभिव्यक्ति के कारण असाधारण बन गई है। पिता से रात में मार खाने के पश्चात् पुत्र नित्य प्रति की भाँति ही अपने पिता को जगाता है और उसे मुँह धोने हेतु जल भरे लोटे के साथ–साथ चाय का गिलास भी प्रस्तुत करता है।
बच्चे दुख भंजन होते हैं। घटनाएँ उनके साथ घटती हैं। मगर अपने पवित्र हृदय एवं मासूमियत के कारण वे सब भूल कर पुन: सहज हो जाते हैं। बड़ों एवं बच्चों में शायद यहीं अंतर होता है। बच्चे की मासूमियत पिता को अपने दुर्व्यवहार हेतु पश्चाताप की स्थिति में ला खड़ा करती है और उसे इस हेतु प्रायश्चित करने हेतु विवश कर देती है और पिता कहता हैं–‘‘रात को कहीं ज्यादा चोट तो नहीं लगी तुझे? “मैंने उसके सिर पर हाथ रखते हुए पूछा। उसने अपना सिर नकार में’ हिलाया। रात को इतना पिटने पर भी वह उतना ही सहज व स्नेहिल हो सकता है, यह मुझे विस्मित कर गया।
फिर मेरी ममता फूट पड़ी। आँखें भर आईं। अगले ही क्षण मैंने उसे अपने सीने से लगा लिया।’’
यह लघुकथा वर्षों पूर्व पढ़ी थी ।आज भी मुझे अपनी संवेदनातमकता के कारण बहुत पसंद है। यह अन्य रचनाओं से कई अर्थों में भिन्न भी है।
दूसरी लघुकथा ‘एहसास’ (माधव नागदा) है। यह लघुकथा भी कई अर्थों में पूर्व लघुकथा जैसी ही है। इस लघुकथा के केन्द्र में भी नित्य–प्रति हर परिवारों में घटने वाली घटना ही है। यह लघुकथा भी अपने में संवेदना का सागर अपने में समेटे हुए पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत हैं ।इस लघुकथा के मूल में भी सहज बाल मनोविज्ञान का वह प़क्ष विद्यमान है कि बच्चे आपस में आर्थिक विषमता को मित्रता में आड़े नहीं आने नहीं देते। वे आपस में गरीब–अमीर न होकर मात्र मित्र होते हैं।
संवादों के माध्यम से विकास पाती यह लघुकथा ऐसे बाल नायक को केन्द्र में ले कर चलती है जो अपने मित्रों का सच्चा मित्र है। उसके मित्र गरीब है और वे सर्कस देखने हेतु टिकट का भार वाहन करने में असमर्थ हैं। नायक अपने घर से रूपए लेकर उन्हें सर्कस दिखा देता है। यह बात जब नायक की माँ को पता चलती है, तो वह चाँटा जमाते हुए कहती हैं–‘‘तू गया तो कोई बात नहीं, मगर उनको क्यों ले गया ? तुझे पता नहीं मैं किस तरह पेट काट कर पूरा कर रही हूँ क्या तेरे दोस्तों पर उड़ाने के लिए?’’
‘‘बेचारे बहुत गरीब हैं। उनको सर्कस कौन दिखाता, यह सोचकर मैंने भी उनकी टिकट ले दी।’’ राजू ने सुबकते हुए कहा। मम्मी का हाथ उठा–का–उठा रह गया। वह दूसरा चाँटा नहीं मार पाई।’’
यह रचना भी संवेदनात्मक स्तर पर हृदय को स्पर्श कर स्थायी प्रभाव जमा लेती है।
इन दोनों की लघुकथाओं में लेखक स्वयं कहीं उपस्थित नहीं हैं। स्थितियाँ ही सब कुछ स्पष्ट कर देती है और प्रत्यक्षत: नहीं किन्तु परोक्षत: एक सकरात्मक संदेश भी संप्रेषित कर जाती हैं। वह संदेश संवेदना का माध्यम में से हृदय में पहुँच जाता है।
हालाँकि ‘प्रायश्चित’ में कालत्व दोष हैं किन्तु फिर भी यह लघुकथा अपना प्रभाव छोड़ती है और प्राय: कालजयी रचनाएँ बंधन तोड़कर अपने लक्ष्य को सिद्ध करते हुए स्थाई रूप से पाठकों की हो जाती हैं। मैं इन दोनों लघुकथाओं को भी इसी श्रेणी में रखता हूँ।
डॉ.सतीश राजपुष्करणा

एहसास
माधव नागदा

‘राजू बेटे, यहाँ से पाँच रूप्ए का नोट किससे लिया?’ मम्मी ने झुंझलाकर पूछा। मास का पूरा सप्ताह शेष था, ओर खर्चे के लिए था वही एक–मात्र पाच का नोट।
‘मैंने लिया मम्मी’बारह वर्षीय राजू ने जवाब दिया।
‘क्यों? मम्मी ने अपनी फटी साड़ी से हाथ पोंछते हुए तेज स्वर में पूछा।
‘कल सर्कस देखने गया था।’ शहर में लग रहे सर्कस की बहुत धूम थी। यह मम्मी को पता था।
‘लेकिन पूरा पाँच का नोट तो सर्कस पर खर्च नहीं होता।’
‘मेरे साथ सुरेश और रमेश भी थे।’
तड़ाक्! मम्मी का गुस्सा फट पड़ा, ‘तू गया तो कोई बात नहीं, मगर उनको क्यों ले गया? तुझे पता नहीं मैं किस तरह पेट काट कर पूरा कर रही हूँ? क्या तेरे दोस्तों पर उड़ाने के लिए?’
‘बेचारे बहुत गरीब हैं। उनको सर्कस कौन दिखाता, यह सोचकर मैंने ही उनको सर्कस के टिकट ले दिए।’ राजू ने सुबकते हुए कहा।
मम्मी का हाथ उठा का उठा रह गया। वह दूसरा चांटा नहीं मार पाई।
………………………।

प्रायश्चित
महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’

आज भी कमल आवारा बच्चों के साथ खेलने चला गया है।’ शाम को घर जाते ही श्रीमतीजी ने शिकायत की। मेरे समझाने पर भी वह नहीं माना,
उसे सबक सिखा कर ही रहूँगा, मैंने निश्चय कर लिया। पास में पड़ा डंडा उठाया और पलंग पर बैठ गया।
करीब दो–घंटे के बाद कमल आया। घर में प्रवेश करते ही उसने पहले मेरे चेहरे को ओर फिर हाथ में डंडे को देखा। वह भयभीत हो गया। दो–पल पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रहा।
उसकी झलक पड़ते ही मैं लाल–पीला हो गया। कदम धीरे–धीरे उसकी ओर बढ़ने लगे । ‘कहाँ गया था?– मैंने पूछा।
उसकी जबान लड़खड़ा कर रह गई। वह कुछ नहीं बोला। सहसा मेरे खून की गति तेज हो गई। डंडा उस पर बरसाने लगा। वह जोर–जोर से चिल्लाने लगा। मेरे गुस्से को देखकर श्रीमतीजी भी पास तक नहीं आई। जब उसे पीटते–पीटते मैं थक गया तो पलंग पर जाकर पड़ गया। नींद आ गई। सबेरे पांच –बजे किसी ने मेरे चेहरे पर से चादर हटाईं मैं अर्धनिद्रा में सो रहा था। फिर पानी के छींटे चेहरे पर बरसने लगे। मेरी आंख खुल गई। सामने कमल खड़ा था। उसके एक हाथ में पानी का लोटा और दूसरे में चाय का गिलास था, हमेशा की भाँति।
–उठो, डैडी! कितने बज गए! आज कहानी नहीं लिखोगे क्या? कहते हुए उसने लोटा आगे बढ़ाया। मैं उसे अजनबी की तरह देख रहा था।
–रात को कहीं ज्यादा चोट तो नहीं लगी तुझे? मैंने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा। उसने अपना सिर नकार में हिलाया। रात को इतना पिटने पर भी वह उतना ही सहज वह स्नेहिल हो सकता है, यह मुझे विस्मित कर गया ।
फिर मेरी ममता फूट पड़ीं ।आँखें भर आई। अगले ही क्षण मैंने उसे अपने सीने से लगा लिया।

 

 
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