पिछले वर्षों के दौरान अनेक भाषाओं में लिखी गईं हज़ारों लघुकथाओं से मैं गुज़रा हूँ। इनमें से कुछ तो मैंने बार–बार पढ़ी हैं। एक हज़ार के लगभग चुनिंदा लघुकथाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद किया है। अनेक लघुकथाएँ मस्तिष्क में जम कर बैठी हुई हैं। ऐसे में अपनी पसंद की एक–दो रचनाओं का चयन करना अति कठिन कार्य है। भारत भर में फैले अनेक लघुकथाकारों से जान–पहचान है, कुछ मित्र हैं तथा उनमें से कुछ करीबी भी हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ वर्षों से मन–मस्तिष्क पर छाई हुई हैं। बलराम अग्रवाल की ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ व ‘गोभोजन कथा’, सुकेश साहनी की ‘गोश्त की गंध’ व ‘ठंडी रंजाई’, डॉ.सतीश दुबे की ‘योद्धा’ व ‘अंतिम सत्य’, डॉ.श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘हद’ व ‘गुब्बारा’, ‘डॉ.अशोक भाटिया की ‘रिश्ते’, बलराम की ‘बहू का सवाल’, भगीरथ की ‘तानाशाह और चिडि़या’ व ‘फूली’, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ‘गंगा–स्नान’ व ‘ऊँचाई’ आदि अनेक रचनाएँ हैं जो भुलाए नहीं भूलतीं। जेहन में बसी रहती हैं।
मैं पंजाबी–भाषी हूँ इसलिए पंजाबी लघुकथाओं से विशेष लगाव रहा है। पंजाबी में भी लेखकों ने श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी हैं। यहाँ भी साहित्यक–मित्र बहुत हैं। उनकी अनेक रचनाओं के नाम जबान पर हैं। लेकिन इच्छा यही रही कि उन लेखकों की रचनाएँ सामने रखूँ जो मेरे करीबी नहीं हैं। दलीप सिंह वासन से तो कभी मुलाकात भी नहीं हुई।
दलीप सिंह वासन की लघुकथा ‘रिश्ते का नामकरण’ वर्षों से मेरी स्मृति में है। मेरी नज़र में यह एक श्रेष्ठ रचना हैं लघुकथा में इसके नाम वाले दो गुण ‘लघु’ तथा ‘कथा’ तो होने ही चाहिए। ये दोनों गुण इस रचना में विद्यमान हैं। रचना का विषय ही मुझे किसी अन्य बात से अधिक प्रभावित करता हैं। कथ्य के लिहाज से यह रचना मुझे बहुत पसंद हैं शिल्प के स्तर पर भी यह एक बेहतरीन रचना है। सकारात्मक संदेश देने वाली रचनाओं की लघुकथा–साहित्य में बहुत कमी है। आदमी और औरत के बीच केवल एक ही रिश्ता नहीं होता तथा औरत द्वारा की गईं कुछ साधारण क्रियाओं को एक ही अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए। पाठकों तक यह संदेश पहुँचाने में यह लघुकथा पूरी तरह सफल रही है।
लघुकथा तीव्र गति से आगे बढ़ने वाली साहित्य–विधा है। पंजाबी में अकसर लघुकथा की तुलना सौ मीटर की दौड़ से की जाती है। लघुकथा ‘रिश्ते का नामकरण’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। रचना में सब कुछ बहुत तेजी से घटित होता है। कहीं ठहराव नजर नहीं आता तथा सब कुछ सहज लगता है। अकेली लड़की को सोया देख मर्द के भीतर उठने वाले तूफान व गाँवों में आपसी रिश्तों की तस्वीर के अंत समेत कहीं भी लेखक स्वयं उपस्थित होकर बोलता दिखाई नहीं देता। मेरे विचार में सभी कुछ पात्रों व घटनाओं के माध्यम से ही कहा जाना चाहिए। इस रचना में पुरुष अध्यापक लड़की की बात–‘अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपने उनींदे नहीं रहना था।’ के उत्तर में उसके सिर पर हाथ फिरा देता है। रचना के इससे बेहतर कलात्मक–अंत की कल्पना मैं नहीं कर पा रहा।
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जसबीर ढंड पंजाबी के चर्चित लघुकथा लेखक हैं। उन्होंने कई श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखी हैं। एक अलग से विषय के कारण ही उनकी रचना ‘छोटे–छोटे ईसा’ अधिक पसंद है। यह रचना लघुकथा विधा की लगभग सभी परख–कसौटियों पर खरी उतरती है। ग्रामीण क्षेत्र में गरीब परिवारों व उनके बच्चों की दशा का वर्णन लेखक ने बहुत थोड़े शब्दों में बेहतर ढंग से किया है। इस रचना की नन्हीं–सी पात्र शिंदर प्रथम कक्षा की छात्रा है। परिस्थितियों ने इस अबोध उमर में ही उसे सयानी बना दिया है। वह अभी से रोटी पकाना ही नहीं सब्जी बनाना भी सीख गई है। दुश्वार व निराशाजनक परिस्थितियों के बावजूद, चारपाई पर पड़ी शिंदर की बीमार माँ उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजती है। वह चाहती है कि उसकी बेटी हर हाल में पढ़ने ज़रूर जाए। शिंदर घर का काम करने के बाद भी स्कूल जाने से मन नहीं चुराती। रचनाओं में वे संघर्षशील पात्र जो किन्हीं भी विपरीत परिस्थितियों में हथियार नहं डालते, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। रचना शिल्प की दृष्टि से भी सराहनीय है। वार्तालाप के छोटे–छोटे टुकड़े रचना को गतिशील रखते हैं।
-बी–1/575,गली नं–5,प्रताप सिंह नगर,
कोटा कपूरा पंजाब 151204
छोटे–छोटे ईसा
जसवीर ढंड
‘‘शिंदर कल क्यों नहीं आई?’’
‘‘ जी, कल मेरी माँ बहुत बीमार थी।’’
‘‘क्यों क्या हुआ तेरी माँ को?’’
‘‘जी, उसकी न बगल के नीचे की नस भरती है। कल मानसा दिखाने जाना था।’’
‘‘दिखा आए फिर?’’
‘‘नहीं जी!’’
‘‘क्यों?’’
‘‘जी, कल पैसे नहीं मिले।’’
‘‘फिर?’’
‘‘जी, आज लेकर जाएगा मेरा बापू।’’
‘‘आज कहाँ से आ गए पैसे?’’
‘‘जी, जमींदारों के से लाया है उधारे।’’
‘‘पहली कक्षा में पढ़ रही शिंदर अपने अध्यापक से सयानों की तरह बातें करती। साँवला रंग मगर सुंदर नैन–नक्श, अपनी उमर के बच्चों से समझदारी में दो–तीन वर्ष बड़ी। उसकी माँ ने स्वयं तंगी भोग छोटी स्कूल बैठाई ताकि चार अक्षर सीख जाए।
अगले दिन वह एक घंटा देर से स्कूल पहुँची!
‘‘लेट हो गई आज?’’ अध्यापक ने पूछा।
‘‘जी, आज माँ फिर ज्यादा तकलीफ में थी.....रोटियाँ पका कर आई हूँ....और पहले–सारा घर सँभाला...। अध्यापक उसके मुख की ओर देखता रहा, ‘‘तू रोटियाँ पका लेती है?’’
‘‘हाँ जी,सब्जी भी बना लेती हूँ...मेरी माँ लेटी–लेटी बताती रहती है, मैं बनाती रहती हूँ।’’ लड़की के चेहरे से आत्मविश्वास झलक रहा था।
‘‘आज तेरी माँ ने तुझे घर रहने को नहीं कहा?’’ अध्यापक का मत था कि उसे छुट्टी दे दे।
‘‘न जी!....आज तो माँ मेरे बापू को कह रही थी–अगर मैं मर गई तो शिंदर को पढ़ने से न हटाना।’’
कक्षा में चालीस–पचास बच्चों के बावजूद अध्यापक के भीतर एक खामोशी छा गई। सुन्न–सा हुआ वह लड़की को देखता रहा..... कितने ही छोटे–छोटे ईसा सूली पर लटक रहे हैं।
रिश्ते का नामकरण
दलीप सिंह वासन
उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की को मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बन कर आई है। रात को स्टेशन पर ही रहेगी। प्रात: वहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गाँव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले घट चुकी एक–दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
‘‘आपका रात को यहाँ ठहरना उचित नहीं है। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर देता हूँ।’’
जब हम गाँव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, ‘‘मैं इस चौबारे में रहता हूँ।’’
अटैची ज़मीन पर रख वह बोली, ‘‘थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं। मैं हाथ–मुँह धोकर कपड़े बदल लूँगी।’’
बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों कमरे में आ गए।
‘‘आपके साथ और कौन रहता है?’’
‘‘मैं अकेला ही रहता हूँ।’’
‘‘बिस्तर तो दो लगे हुए है?’’
‘‘कभी–कभी मेरी माँ आ जाती है।’’
गुसलखाने में जाकर उसने मुँह–हाथ धोए। वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
‘‘आपने रसोई भी रखी हुई है?’’
‘‘यहाँ कौन–सा होटल है!’’
‘‘फिर तो खाना भी यहीं खाऊँगी।’’
बातों –बातों में रात बहुत गुजर गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर लेट भी गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठ कर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, परन्तु उस में बसी औरत गहरी नींद सोई थी।
मैं सीढि़याँ चढ़ छत पर जाकर टहलने लग गया। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लग गई।
‘‘जाओ सो जाओ, सुबह आपने ड्यूटी पर हाजि़री देनी है।’’ मैंने कहा।
‘‘आप सोए नहीं?’’
‘‘मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।’’
‘‘झूठ।’’
‘‘....’’
वह बिल्कुल मेरे सामने आ खड़ी हुई,‘‘अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपको उनींदे नहीं रहना था।’’
‘‘नहीं–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।