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सर्वश्रेष्ठ लघुकथाएँ –‘बोहनी’ और ‘नपुंसक’
दामोदर दत्त दीक्षित
 

हिन्दी लघुकथा साहित्य अब समृद्ध हो चुका है। विभिन्न लेखकों द्वारा लिखी गई बहुत–सी ऐसी लघुकथाएँ हैं जो मील का पत्थर सरीखी हैं। उनमें से एक या दो का चयन करना अत्यंत कठिन है क्योंकि मामला ‘नेक–टू–नेक ‘फाइट’ और ‘इक्वल मार्क्स’ जैसा है। फिर भी आधे या चौथाई अंक की सीमा तक विचार करते हुए अभी तक पढ़ी गई लघुकथाओं में चित्रा मुद्गल की ‘बोहनी’ और सुकेश साहनी की ‘नपुंसक’ मुझे सर्वश्रेष्ठ लगती है।
चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘बोहनी’ कई बरस पहले पढ़ी थी, जो आज भी मन की गहराइयों में नक्श है। श्रेष्ठता के माप का यह भी एक पैमाना हो सकता है। नहीं! कुछ विश्वास इतने प्रबल होते हैं, आस्थाएँ इतनी गहरी होती हैं कि वैज्ञानिक आधार न होने के बावजूद महत्वपूर्ण हो जाती हैं। दिशा निर्धारक और प्रभावोत्पादक भी। ‘बोहनी’ ऐसी ही लघुकथा है।
एक स्त्री लोकल ट्रेन पकड़ने से पहले पुल पर आसन जमाए अपंग बौने भिखारी के चीकट अँगोछे पर सिक्का उछाल देती है। यह क्रम आदत का रूप ले लेता है। स्त्री के लिए ही नहीं, भिखारी के लिए भी। एक दिन पर्स टटोलने पर कोई सिक्का हाथ नहीं लगता, तो वह ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए चली जाती है।
अगले दिन छुट्टे पैसे होने के बावजूद उसमें उपेक्षा और लापरवाही का भाव उभरता है। यह सोचकर कि वह रोज़ ही पैसा देती है, फिर कोई ज़बर्दस्ती तो है नहीं, बग़ैर पैसा दिए चली जाती है। सच तो यह है कि उसकी उदारता में अहंकार और अधिकारभाव पैदा हो जाता है। अन्तर्निहित सद्भाव असद्भाव में परिवर्तित हो जाता है, उदारता का धवल वर्ण धूसर हो जाता है। भिखारी की जरूरत गौण हो जाती है और रिरियाहट भरी याचना कुढ़न पैदा करती है।
स्त्री तीसरे दिन भी भिखारी को पैसा नहीं देती। आड़ लेती है ट्रेन छूट जाने की ,जबकि ऐसी स्थिति तो रोज़ ही होती थी। पर भिखारी की गिड़गिड़ाती पुकार से कदम ठिठक जाते हैं, ‘‘माँ...मेरी माँ...पैसा नहीं दिया न। दस पैसे फ़क़त...।’’
वह बार–बार की आवाज़ से खीझकर बिफ़र उठती है, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
अहंकार और अधिकारभाव शब्दों में उतर आता है कि नकारात्मक भावों की कोई संभावना न रहे। भिखारी फिर भी पीछा नहीं छोड़ता और उसकी निर्लज्ज हठधर्मिता बरकरार रहती है। इसे छोड़ दे, तो भिखारी ही कैसा? यही तो भिखारीधर्म है। वह फिर रिरियाता है, ‘‘नई, मेरी माँ! तुम देता तो सब देता...। तुम नहीं देता तो कोई नई देता। तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने को मिल जाता, तीन दिन से तुम नहीं दिया माँ। भुक्का है, मेरी माँ!’’
स्त्री चौंक उठती है। जिसे वह सामान्य रिरियाहट समझ नहीं थी, वह नये, विस्मयपरक अर्थ खोलती है...‘‘भीख में भी बोहनी!’’ गुस्सा भरभरा जाता है। वह एक रुपए का सिक्का आहिस्ता से अँगोछे पर उछालकर, दुआओं से नख–शिख भीगती प्लेटफार्म पर पहुँचती है, पर तब तक ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ चुकी होती है। आँखों के सामने ‘मस्टर रोल’ घूम जाता है कि अब समय से कार्यस्थल पर पहुँचने से रही। उसे ट्रेन छूटने का अफ़सोस तो है, पर उससे कहीं ज्यादा भिखारी की ‘बोहनी’ करने का संतोषभाव है, सुख है।
‘बोहनी’ मनुष्य के बदलते ‘मूड’ की कथा है। अहंकार और अधिकारभाव स्त्री के औदार्यभाव पर ‘ब्रेक’ लगा देते हैं, गिरह लगा देते हैं, पर बोहनी की बात सुनते ही जैसे करेन्ट लग जाता है। औदार्यभाव का बाँध टूट जाता है, गिरह खुल जाती है। उदारता को घेरे ‘नेगेटिवेटी’ का क्षरण हो जाता है, बादल छँट जाते हैं ।धवलता से शुरू हुई यात्रा घूसरता से होते हुए पुन: धवलता तक पहुँच जाती है। एक विश्वास....जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं....स्त्री के सोच में, व्यवहार में ऊर्ध्वगामी परिवर्तन ला देता हे। मार्मिक, संवेदनशील ‘बोहनी’ उत्कृष्ट कोटि की लघुकथा है।
‘हाँ’ या ‘न’ का अन्तर्द्वन्द्व हर मनुष्य के मन में उठता है....वह चाहे साधु हो या शैतान या इन दोनों के बीच घटती–बढ़ती मात्रा में कहीं हो। यह अन्तर्द्वन्द्व शायद उतना ही पुराना है जितना कि मनुष्य का अस्तित्व। सामान्यत: इसे सामान्य स्थिति कहा जाएगा, पर यह स्थिति तब विशिष्ट हो उठती है जब दाँव पर बड़ी चीज़ें लगी हों, ऊँचे मूल्य और आदर्श की बात हो। अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सुकेश साहनी की लघुकथा ‘नपुंसक’ महत्वपूर्ण है।
‘नपुंसक’ में युवा छात्र नवाब हास्टल में किसी ‘रेजा’ (मज़दूरिन) को ले आता है। जवानी के जोश और जोम में और संवेदन शून्यता के नाते नवाब और उसके साथियों को इस बात का एहसास तक नहीं कि वे किसी स्त्री ग़रीबी, मजबूरी और असमर्थता का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं। आगे–पीछे पाँच लड़कों द्वारा स्त्री से दुराचार कर चुकने के बाद शेखर को कमरे में धकेलकर दरवाज़ा बाहर से बन्द कर दिया जाता है। बेबस, भयभीत नग्न स्त्री को देखकर शेोखर को ग्लानि और खुद से नफ़रत होती है। जागृत विवेक कहता है कि बाहर निकलकर साथी लड़कों को धिक्कारेगा, उनके सोए ज़मीर को जगाएगा और स्त्री को मुक्ति दिलाएगा।
कमरे से बाहर निकलने पर भीरुता हावी हो जाती है और सारा जोश ठंडा हो जाता है। ‘कैसा रहा’ के अंदाज़ में जब साथी उस पर निगाहें टिकाते हैं, तो शरीर और मन से शिथिल हुआ शखर बेशर्मी से मुस्कुराकर, अपनी बायीं आँख दबाकर बोलता है, ‘‘धाँसू।’’ साथी सीटियाँ बजाकर, ठहाके लगाकर और उसके कन्धे थपथपाकर दाद देते हैं। इतनी ही देर में सातवाँ लड़का स्त्री के कमरे में जा चुका होता है। अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपने ही पदचापों से शेखर के दिमाग में धमाके–से होते हैं....‘‘नपुंसक....मुक्तिदाता।...नपुसंक !’’
शेोखर जब स्त्री के सामने होता है, तो उसका विवेक जग जाता है, पर नित–नित बदलते मौसम की तरह बाहर निकलते ही सोडावाटरी जोश ठंडा हो जाता है और वह भीड़ का हिस्सा बन जाता है। इस सीमा तक भीरुता हावी कि वह साथियों के सामने स्वीकार करने तक को तैयार नहीं कि उसने स्त्री के साथ दुराचार नहीं किया है। साथियों को रोकने की बात बहुत पीछे छूट जाती है। साथियों से अलग होते ही अपनी भीरुता पर ग्लानि होती है, पर इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। कमरे से बाहर निकलने पर वह इसलिए शेखी बघारता है कि साथी उसे नपुंसक बताते हुए मज़ाक उड़ाऐंगे। क्या ही विडम्बना है कि साथियों की नज़रों में नपुंसक होने से तो बच गया, पर स्वयं अपनी नज़रों में नपुंसक हो गया।
दरअसल शेखर का विवेक मरता तो नहीं, पर साहस के अभाव में ‘हाइबरनेशन’ में चला जाता है और इसी नाते निष्फल सिद्ध होता है। जुनूनी भीड़ का हिस्सा बनने की ललक में दुराचार न करने पर भी वह औरों के लिए दुराचारी सिद्ध होता है। उसकी स्थगित विवेकबुद्धि से न तो ग़रीब–असहाय स्त्री पर कोई प्रभाव पड़ता है, न ही साथियों पर।
ध्यातव्य है कि शेखर जैसे पात्रों की समाज में कमी नहीं जो भीड़ का हिस्सा बनने पर भीरुतावश अन्तर्निहित सामर्थ्य खो देता हैं। उनमें विवेक के क्षणिक या अल्पकालिक स्फुरण तो होते हैं, पर दृढ़ता के अभाव में परिवर्तन का हेतु नहीं बन पाते और यथास्थिति चलती रहती है। ‘नपुंसक’ वर्तमान परिवेश की लघुकथा है,जो मनुष्य के धूप–छाँव जैसे अन्तर्द्वन्द्व को उभारने में सर्वथा सक्षम है और इसी नाते उत्कृष्ट है।

चित्रा मुद्गल
बोहनी

उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर मैं ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियायी–सी झरतीं...आठ–दस डग पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई ।
दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं!...और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ..मेरी माँ...पैसा नई दिया ना? दस पैसा फकत....’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘‘माँ..मेरी माँ....’’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’
भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफॉर्म पर पहुँची मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने मस्टर घूम गया अब...?

नपुंसक
सुकेश
साहनी

पूरे हॉस्टल में हलचल मची हुई थी, नवाब किसी रेजा (मजदूरिन) को पकड़ लाया था,उसे कमरा नम्बर चार में रक्खा था, पाँच लड़के तो ‘हो’ भी गए थे। शोर,कहकहों और भद्दे इशारों के बीच कुछ लड़कों ने शेखर को उस कमरे में धकेल कर दरवाजा बाहर से बंद कर लिया था। भीतर ‘वह’ बिल्कुल नग्नावस्था में दरवाजे के पास दीवार से सटी खड़ी थी। वह बेहद डरी हुई थी। भयभीत आँखें शेखर को ही घूर रही थीं। शेखर को अपने आप से नफरत हुई। दिमाग में विचारों के चक्रवात घूमने लगे। बेबस नारी के साथ कैसा क्रूर, घिनौना मजाक! वह बाहर निकलकर सबको धिक्कारेगा। जगाएगा उनके सोए हुए जमीर को । अश्लील चुटकलों पर अट्टाहस हो रहे थे। फिर भी, थोड़ा समय गुजर जाने के बाद ही वह कमरे का दरवाजा खुलवाने के लिए दस्तक दे सका।
कई जोड़ी सवालिया आँखें ‘कैसा रहा’ के अंदाज में उस पर टिकी थीं। अब तक विचित्र–सी शिथिलता उसके शरीर पर छा गई थी। न जाने उसे क्या हुआ कि वह बेशर्मी से मुस्कराया और हाथ के इशारे के साथ अपनी बायीं आंख दबाकर बोला–‘‘धाँसू!’’ प्रत्युत्तर में सीटियाँ बजीं, ठहाके लगे, उसके कन्धे थपथपाए गए। इतनी ही देर में सातवाँ लड़का भीतर जा चुका था।
शेखर वहाँ से चलने को हुआ।
‘‘कहाँ यार?’’ कई स्वर एक साथ उभरे।
वह अपने होंठों को जबरदस्ती खींचकर मुस्कराया और हाथ के इशारे से उन्हें बताने लगा कि वह अपनी सफाई करके अभी लौटता है। अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपने ही पदचापों से उसके दिमाग में धमाके से हो रहे थे–नपुसंक....नंपुसक....! मुक्तिदाता !....नंपुसक !

 

 
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