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श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’
संतू व एक पवित्र लड़की
 

श्याम सुन्दर अग्रवाल मूलत: पंजाबी के लेखक हैं और हिन्दी लघुकथा में भी उनकी वही पहचान है। लघुकथा विधा से जुड़े ऐसे लेखक गिनती में कम हैं जिनकी रचनाएँ गुणात्मक दृष्टि से इतनी अधिक है कि एक–दो रचनाओं का चुनाव मुश्किल लगता है।
लघुकथा के रूप की स्पष्टता और विषयों का चुनाव लघुकथा में निरन्तर चर्चा का विषय रहे हैं और यह बहस आज भी खत्म नहीं हुई है। परन्तु श्यामसुन्दर अग्रवाल ने बहुत शीघ्र ही इन दोनों पक्षों को पहचान लिया। प्रस्तुत रचना ‘संतू’ हिन्दी क्षेत्र में काफी जगह छपी है। इस रचना की प्रस्तुति के अलावा विषय का चुनाव व उसका निर्वाह भी प्रभावशाली हैं।
मनोवैज्ञानिक विषयों को लेकर लघुकथा में बहुत ही कम लिखा गया है। लघुकथा की सामर्थ्य को पहचानते हुए, लेखक ने इस विषय को बखूबी निभाया है। काम करने और बेरोजगारी की मानसिकता में क्या अन्तर है, यह रचना उसका चित्रण करने में सफल रही है। काम करते हुए वह कितने आत्मविश्वास से कहता है, ‘चिन्ता मत करो जी! मैं तो पचास किलो आटा उठाकर सीढि़याँ चढ़ते नहीं गिरता’। और वही काम छूट जाने पर दु:खी,परेशान हुआ, उन्हीं सीढि़यों से फिसल जाता है, जिस पर एक रोज पहले उसने दस बड़ी बड़ी पानी से भरी बाल्टियाँ चढ़ाई थी।
इस रचना की यह भी खूबी है कि यह एक ऐसा सार्थक व शाश्वत संदेश देने में कामयाब रही है कि बेकारी व बेरोजगारी अपने आप में कितना बड़ा अभिशाप है। यह बात चाहे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के माध्यम से उजागर की गई है, वहीं यह आज की युवा पीढ़ी के लिए भी सच है जो बेरोजगारी से जूझती हुई नशों व अन्य असामाजिक कार्यों में ग्रस्त हो रही है।
सिर्फ़ बीस पंक्तियों की इस रचना में वार्तालाप व दृश्य चित्रण के माध्यम से एक मनोवैज्ञानिक पहलू की तस्वीर खींचना इस रचना की एक विशेषता है!
वैसे तो साहित्य की कसौटी सृजनात्मकता ही है। इसका विधा विशेष से कोई अलग सा नाता नहीं है। परन्तु बहुत बार देखने में आता है कि घटना को हू–बहू प्रस्तुत कर दिया जाता है जैसी वह घटी होती है। लघुकथा में इस तरह की रचनाओं की गिनती कुछ ज्यादा ही है। इसके अतिरिक्त घटित यथार्थ के साथ, इच्छित यथार्थ भी लेखक को सृजनात्मकता के घेरे में लाता है।
प्रस्तुत रचना ‘एक पवित्र लड़की’ बलात्कार का शिकार है। यू ंतो सच है कि बलात्कार में औरत का कसूर कहाँ है। पर होता इसके विपरीत है। वह शारीरिक व मानसिक पीड़ा से तो गुजरती ही है, इस के अतिरिक्त समाजिक अलगाव को भी भोगती है। परन्तु लेखक ने इसे एक अपने दृष्टिकोण से, इच्छित यथार्थ के संदर्भ में पेश किया है। रचना का नायक गौतम जब अपनी मंगेतर से पूछता है, ‘क्या उस दरिन्दे ने तेरे शरीर के साथ तेरा मन भी लूट लिया?’ और फिर मंगेतर का उस व्यक्ति के प्रति रोष प्रदर्शन देखकर निर्णायक आवाज़ में कहता है, ‘गर मेरी जान का मन इतना पवित्र है तो उसका सबकुछ पवित्र है।’
इस तरह यह रचना नारी के सम्मान व सशक्तीकरण के उन उठाए गए सार्थक कदमों में एक सकारात्मक समझ में बढ़ावा है। यह सिर्फ़ पाठक को ही एक नया दृष्टिकोण नहीं देती, लेखकों को भी अपनी रचना में एक आशावादी पहलू प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित करती है।

1-संतू

अधेड़ उम्र का सीधा सा संतू, अपने पाँव से बड़े जूते पहने पानी की बाल्टी उठा जब सीढि़याँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, ‘ध्यान से चढ़ना। सीढि़यों पर कई जगहों पर ईंटें निकली हुई हैं। गिर मत पड़ना।’
‘चिन्ता मत करो जी। मैं तो पचास किलो आटा उठाकर सीढि़याँ चढ़ता नहीं गिरता।’
और सचमुच बड़ी–बड़ी उस बाल्टियाँ पानी ढोते संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रुपए का एक नोट व चाय का कप देते, पत्नी ने कहा, ‘संतू, तू रोज आकर पानी भर जाया कर।’
चाय की चुस्कियाँ लेते संतु ने खुश होते हुए कहा ‘रोज बीस रुपए बन जाते हैं, पानी के। सुना है, अभी महीना भर पानी नहीं आएगा। मौज हो गईं’
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगली सुबह सीढि़याँ चढ़ जब संतू ने पानी के लिए बाल्टी माँगी तो पत्नी बोली, ‘अब तो जरूरत नहीं। रात ऊपर ही नल में पानी आ गया था।’
‘नहर में पानी आ गया!!’ संतू ने गहरी साँस ली और वापसी सीढि़यों की तरफ कदम घसीटने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढि़यों में गिरने की आवाज़ आई। मैंने भागकर देखा, संतू आँगन में उल्टे मुँह पड़ा था।

2-एक पवित्र लड़क

रंजना, उसकी महबूबा, उसकी मंगेतर दो दिन बाद आई थी। आकर वह कुर्सी पर आँखें झुका कर बैठ गई। इस तरह चुपचाप बैठना रंजना के स्वभाव के बिल्कुल उलट था।
‘क्या बात है मेरी सरकार, कोई नाराजगी है?’ कहते हुए गौतम ने थोड़ा झुककर उसका चेहरा देखा तो उसे बहुत हैरानी हुई। ऐसा बुझा हुआ व सोजिश भरी आँखों वाला चेहरा, रंजना के सुन्दर बदन पर उसने पहले कभी नहीं था देखा। लगता था जैसे वह बहुत रोई है।
‘यह क्या शक्ल बनाई है?...कुछ तो बोल?’ उसने रंजन की ठोढ़ी को छूते हुए कहा तो वह सुबक पड़ी।
‘अब मै....आपके काबिल नहीं रही।’
वह एक बार तो सहम गया। उसे कुछ समझ नहीं आया। फिर सँभल कर पूछा, ‘क्यों, क्या हो गया रंजना?’
‘मैं...मैं लुट गई...एक दरिन्दे रिश्तेदार ने ही लूट लिया...’ रंजना फूट–फूट कर रो पड़ी, ‘अब मैं–मैं....पवित्र नहीं रही...’
एक पल के लिए गौतम भी दहल गया। क्या कहे? उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था । फिर उसने रंजना के आँसुओं को पोंछते सवाल किया, ‘क्या उस वहशी दरिन्दे ने तेरे शरीर के साथ तेरा मन भी लूट लिया?’
‘मैं तो थूकती भी नहीं उसे कुत्ते पर...।’ सुबकती हुई रंजना एकदम गुस्से में आ गई। थोड़ा शन्त होकर बोली, ‘मेरा मन तो आपके सिवा किसे ओर के बारे सोच ही नहीं सकता।’
गौतम उठकर रंजना की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। उसने रंजना के चेहरे को अपने हाथों में ले लिया। फिर उसने रंजना के बालों को चूमते कहा, ‘गर मेरी जान का मन इतना पवित्र है तो उसका सबकुछ पवित्र है।’
रंजना सिर ऊपर उठाते गौतम की प्यार भरी आँखों में झाँका। वह कितनी देर एकटक देखती रही। फिर वह कुर्सी से उठी और उसकी बाँहों में समा गई।

 

 
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