जूते की जात: विक्रम सोनी, और जूते और कालीन: चैतन्य त्रिवेदी
इस कॉलम के लिए लघुकथा के विपुल साहित्य से दो रचनाओं का चयन करना दुष्कर कार्य है पर चूंकि कॉलम की अपनी सीमा है अत: चयन उन दो कथाओं का किया जो जेहन में पहले आ गई एक विक्रम सोनी की ‘जूते की जात’, व दूसरी चैतन्य त्रिवेदी की ‘जूते और कालीन’ दिलचस्प बात यह है कि दोनों कथाएँ जूते से संबंधित है, फिर भी उनके कथ्य बिल्कुल अलग–अलग है। ‘जूते की जात’ यानि जूते की भी जात होती है, ठीक उसी तरह जिस तरह पानी की जात होती है, जाति व्यवस्था इतनी कठोर है कि वस्तुओं की जाति भी तय कर देते हैं। अब पंडित सियाराम मिसिर को अपने गर्दन के ‘हल’ को ठीक कराने के लिए रमोला के जूते खाने (छुआने) पड़ेंगे। लेकिन क्या करें, दर्द असहनीय है और इसी के जूते से ठीक होगा। पिछले साल लखमी ठाकुर के भी हूल उठा था तो इसी ने जूता छुआकर ठीक किया था। अब देखिए जूता भी खाना है और वह भी किसका का, और किसको (?) पंडित सियाराम को। घोर अपमान, इससे तो बेहतर होता धरती फटती और वे उसमें समा जाते। लेकिन यह जीवन और जिजीविषा भी क्या–क्या न करवा देती है। मिसिरजी अपने को समझा रहे है बस जरा जूता ही तो छुआ है। उसके बाद तो गंगाजल से स्नान कर लेंगे, जब शरीर ही न रहेगा चंगा, तो काहे का धर्म–पुण्य? जब जीवन पर आन पड़ती है तो धर्मिक–सामाजिक धाराणाएँ, मान्यताएँ, विश्वास सब ध्वस्त हो जाते है और उनके विकल्प चुन लिए जाते हैं जैसे गंगाजल से नहाना।
अब रमोला जूते छुआने के ग्यारह रुपए माँगता हे यानि जूते की पूरी कीमत क्योंकि उस जूते को कोई खरीदेगा नहीं। अपने कच्चे माल व मेहनत का पैसा तो वह पूरा लेगा। यह चारित्रिक गुण जाति विशेष का न होकर श्रमिक का है। अपनी मेहनत का पूरा मेहनताना चाहिए। मिसिर जी भुनभुनानाकर, रमोला के बाप को गाली देकर, आखिर जूता छुआने के लिए तैयार हुए और कहा ‘देख, धीरे छुआना तनिक’
जब रमोला जूता लेकर उठा तो ‘उसकी आँखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गए जुल्मों सितम अपमान के दृश्य साकार हो उठे’। ‘उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिर जी की गर्दन पर जूता जड़ दिया’। दमित भावनाओं ने अवसर पाते ही पुराना हिसाब–किताब चुकता कर दिया। लेकिन प्रत्यक्षत: क्या कहता है ‘अरे मिसिर देख, तोर हूल हमार जुतवां में बैठ गइल और मिसिर की गर्दन जूते पड़ने लगे।’
यह कथा क्यों हांट करती है? क्योंकि इसका कंटेंट बहुत ही फोर्सफुल है, यह सामाजिक यथार्थ से पाठक का सीधा साक्षात्कार कराती है, कथा का बदन कसा हुआ है, भाषा और उसका लहजा आकर्षक है और सबसे बड़ी बात कि उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगा पाठक! अगर पाठक जाति- मानसिकता से ग्रस्त है तो उनकी प्रतिक्रिया वायलेंट भी हो सकती है। ‘सालों की हिम्मत देखों, इनको इनकी औकात दिखानी पड़ेगी’ थोड़ी मंद प्रतिक्रिया ‘सरकार ने इनके हौसले बना रखे है, ओछे लोग है, ओछी हरकत करेंगे।’ लेकिन जो मानवतावादी है, मनुष्यों की बराबर में विश्वास करते है जो संवेदनशील है ,वे रमोला के हृदय में जलते ज्वालामुखी को देख सकेंगे और उसके प्रतिकार का समर्थन भी करेंगे।
‘गाँव वाले हैरान थे, किंतु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे’ ये गाँव वाले कौन है? रमोला जैसे ही लोग। करीब चार सौ शब्दों में सदियों की यात्रा कोई बुरा सौदा नहीं है यह लघुकथा। यह लघुकथा उस सभ्यता–संस्कृति पर कोड़े बरसा रही है और पाठक हैरान उत्साह से इस दृश्य को देख रहा है।
दोनों कथाएँ सामाजिक यथार्थ पर खड़ी हे ‘जूते की जात’ जहाँ सामाजिक यथार्थ (स्थूल) से सीधे साक्षात्कार कराती है वही ‘जूते और कालीन’ यथार्थ को सटल रूप में दर्शाती है, पाठक को एक भाव जगत में ले जाती है यह यथार्थ का एक सूक्ष्म जगत है और इसके दरवाजे तभी खुलते है जब पाठक ध्यान लगाकर पढ़ता है। और शब्दों के अर्थ उसके समक्ष खुलते जाते है। कालीन महत्वपूर्ण लोगों,मेहमानों की कदम बोसी के लिए निभाए जाते है ताकि वे उन कालीनों पर नंगे पाव चलकर उसके मखमलीपन को महसूस कर सके, उसके सौंदर्य से अभिभूत हो सके, उसकी कलात्मकता पर मुग्ध हो सके। लेकिन पूंजीवाद के इस दौर में जूते ने कालीन को रौंद डाला है, वस्तु से उपभोक्ता का रिश्ता समाप्त कर डाला है। कीमत चुका दी, बस। जब वस्तु से ही रिश्ता नहीं रहा तो उसके निर्माता (कारीगर) से क्या रिश्ता होगा? पूंजीवादी मनी–मार्केट की दुनिया में संवदेनहीन न रहे तो वस्तु के पार की दुनिया देखकर उनके प्रति संवेदनशील कैसे हो सकेंगे! लेकिन कारीगर का रिश्ता उसके द्वारा निर्मित वस्तु से बना रहता है, उसके साथ दुराचार से उसे दुख होता है ‘जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों न क्या–क्या नहीं किया उस पर पैर तो रख लें लेकिन जूते नहीं रखे श्रीमान्’
वस्तु की कीमत चुकाकर फिर उसके साथ वह कुछ भी करें यह उसका अधिकार है, उसके स्वामित्व में है, वह उसके साथ कुछ भी करे, किसी को क्या?
‘दाम चीजों के हो सकते है, लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती है, उसके लिए हुनर लगता है, धैर्य लगता है, परिश्रम लगता है, दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र करनी होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती है’ कलात्मकता और कल्पनाओं के रंग के दाम नहीं चुकाएं है, दी तो केवल मजदूरी है। उनके कलात्मक सृजन का शोषण परिलक्षित होता है, वो लाभ कोई उठा ले जाता है।
इन कालीनों के निर्माण में बालश्रम लगा है, इसकी अभिव्यक्ति की बानगी कथा में देखिए ‘इस कालीन के रेशे–रेशे में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है’ मनी–मार्केट की दुनिया इस भाव जगत को समझा पाएगी? ‘स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श, जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए ‘इस त्याग का कोई दाम नहीं है, न दिया जा सकता है। इसके कसीदे देखिए श्रीमान्, ये सुन्दर–सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में ले चलने का मन बना देते है। (इस सौंदर्य सृजन का कोई दाम नहीं चुराया गया) इन कसीदों के लिए इन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाई रात–रात, मन मारा जिनके लिए उन्हें क्या मिला मजदूरी में सिर्फ़ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गए’ जिन्होंने अपना आसमान खोकर भी ये कलात्मक नमूने बनाए है उस पर पैर तो रख ले लेकिन जूते नहीं रखे श्रीमान् लेखक स्थूल से सूक्ष्म जगत में पाठक को ले जाता है। विचार से ज्यादा भावजगत में लेखक पैठ करता है।
जूते की जात
विक्रम सोनी
उस दिन अचानक धर्म पर कुण्डली मारकर बैठे पण्डित सियाराम मिसिर की गर्दन न जाने कैसे ऐंठ गयी और उन्हें महसूस हुआ कि उनकी गर्दन में 'हूल' पैदा हो गया है। पार साल लखमी ठाकुर के भी 'हूल' उठा था।
अगर रमोली उसके हूल पर जूता न छुआता तो
… कैसा तड़पा था। यह सोचकर उन्हें झुरझुरी लगने लगी, तो क्या उन्हें भी रमोली से अपनी गर्दन पर जूता छुवाना होगा। हुँ! वह खुद से बोले ,''उस च… की यह मजाल!" तभी उनकी गर्दन में असहनीय झटका सा लगा और वे कराह उठे।
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अरे क्या है- बस जरा जूता ही तो छुवाना है। उसके बाद तो गंगा जल से स्नान कर लेंगे । जब शरीर ही न रहेगा चंगा तो काहे का धर्म पुण्य?"
रमोली को देखते ही मिसिरजी ने उसे करीब बुलाकर कहा,"अरे रमोलिया, ले तू हमारा गरदनियाँ में तनिक जूता छुवा हूल भर गइलबा ।"
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ग्यारह रुपया लूँगा मिसिरजी ।"
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का कहले? हरामखोर , तोरा बापो कमाइल रहलन ग्यारह रुपल्ली ?"
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मिसिरजी, इस जूते को कोई खरीदेगा नहीं न! और में झूठ बोल कर बेचूँगा नहीं!"
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खैर, चल लगा जूता, आज तोर दिन है। देख, धीरे छुआना तनिक, समझे!"
जब रमोली जूता लेकर टोटका दूर करने उठा तो उसकी आखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गये जुल्मोसितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे ।
उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिरजी की गर्दन पर जूता जड़ दिया । मिसिरजी के मुख से एक प्रकार की डकराहट पैदा हुई, ठीक वैसी ही जब मिसिरजी ने उसके पिता पर झूठा चोरी का इल्जाम लगाया था और मिसिरजी के गुण्डे लाठी से उसे धुन रहे थे। तब बाप की दुहाई वाली डकराहट क्या वह भूल पायेगा ?
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अरे मिसिर देख, तोरा हूल हमार जुतवा मा बैठ गैइल।" और मिसिर की गर्दन तथा चाँद पर लाठियों के समान जूते पड़ने लगे। गाँव वाले हैरान थे, किन्तु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे।
जूते और कालीन
चैतन्य त्रिवेदी
‘‘जब भी वे कालीन देखते हैं तो कोफ्त से भर जाते हैं । कालीन बुने जाने के उन कसैले दिनों की याद में । कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं । ’’
‘‘ क्यों भला , हमने उनका क्या बिगाड़ा ?’’
‘‘यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमबोसी के लिए बिछाया है, उसके रेशे – रेशे में पल – पल के कई अफसोस भी बुनें हुए हैं , जिसे आप नहीं जानते । ’’
‘‘ हमने दाम चुका दिए । उसके बाद हम चाहे जो करें कालीन का । ’’ उन्होनें कहा ।
‘‘ नहीं श्रीमान, दाम चीजों के हो सकते हैं , लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती है । उसके लिए हुनर लगता है । धैर्य लगता हें । परिश्रम लगता है दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती हैं ’’
‘‘ आप क्या चाहते है ?’’
‘‘आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशें – रेशें में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है । स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श , जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गयें । इसके कसीदे देखिए श्रीमान, ये सुन्दर – सलोने कसीदे , जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में चलने का मन बना देते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाई रात – रात , मन मारा जिनके लिए । उन्हें क्या मिला मजूरी में , सिर्फ़ रोटी ही तो खाई , लेकिन अपना आसमान निगल गये ।’’
‘‘कुछ पैसे और ले लो यार , लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है !’’वह बोले ।
‘‘बात पैसों की नहीं्है । उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगो ने क्या – क्या नहीं बिछा दिया , उस पर पैर तो रख लें , लेकिन जूते नहीं रखें श्रीमान ।’’