बहुत सी लघुकथाओं ने मुझे प्रभावित किया है । उनमें सबसे अधिक प्रिय दो लघुकथाएँ हैं। रामकुमार आत्रेय द्वारा रचित ‘कबूतरी’ एक श्रेष्ठ लघुकथा है। इसका कथ्य तो प्रभावशाली है ही, उसकी प्रस्तुति भी आकर्षक है। लेखक के कबूतरी के प्रतीक के माध्यम से जवान होती लड़की की मनोदशा का मार्मिक चित्रण किया है। लड़की द्वारा पिंजरा खोलकर कबूतरी को उड़ा देना संकेत में बहुत कुछ कह देता है, जिसे उसका पिता समझ जाता है तथा उसके विवाह की तैयारी करने लगता है। स्वरूप की दृष्टि के ‘कबूतरी’ एक आदर्श रचना है। इसकी कथावस्तु में कसावट है, तो संवाद सधे हुए हैं। भाषा भी सरल सुबोध और पात्रानुकूल है। अत: इसे एक मानक लघुकथा माना जा सकता है।
‘सिलसिले’ का अन्त डॉ. सत्यवीर ‘मानव’ का एक विशिष्ट लघुकथा है। तात्त्विक दृष्टि से विवेचन करने पर हम पाते हैं कि कथावस्तु, पात्र,संवाद, भाषा शिल्प, सभी की दृष्टि से यह रचना लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती है। देश–काल की एकरूपता भी इसमें हैं, जो एक श्रेष्ठ लघुकथा के लिए आवश्यक हैं लघुकथा–नायक के आत्मचिन्तन के माध्यम से कथ्य को संक्षिप्त विस्तार दिया गया है तथा समस्या की आदर्श समाधान में परिणति करवाकर एक बहुत बड़े उद्देश्य को लघुकथाकार ने सहजता से व्यक्त कर दिया है। विषय लीक से हटकर तथा गम्भीर है; इस विषय पर इससे बढि़या लघुकथा नहीं लिखी जा सकती।
रामकुमार आत्रेय
कबूतरी
‘‘एजी, सुनते हो? अपनी बेटी को समझाओ, तुम्हारे लाड़ ने इसे बिगाड़ दिया है।’’ पत्नी आंगन में खड़े–खड़े चिल्लाई।
‘‘क्यों, क्या किया है इसने?’’ पति ने भीतर से ही जानना चाहा।
‘‘जो भी करेगी, उलटा ही करेगी....अच्छा तो करने से रही....मेरे देखते ही देखते इसने पिंजरे को खोलकर अपनी कबूतरी को उड़ा दिया......उसकी गुटर–गूँ सुनकर जी लगा रहता था.....पर इस मरी को यह सब अच्छा नहीं लगा....अपनी बेटी जैसी ही लगती थी मुझे तो वह....मेरी आँखों के सामने ही तो बड़ी हुई थी।....पाला भी तो मैंने उसे बड़े लाड़ से था।’’ पत्नी कहते–कहते भीतर चली गई।
वह सचमुच में रोने को थी।
पति कुछ देर गर्दन झुकाए सोचता रहा। फिर बोला, ‘‘ऐसा करो, अटैची में रखे मेरे नए कपड़े निकाल दो। मैं दो–तीन दिन के लिए अपनी रिश्तेदारियों में होकर आता हूँ।’’
पत्नी ने चकित होते हुए पूछा,‘‘जो मैं कह रही थी, वह तो सुनते नहीं....ऐसा कौन–सा काम आ पड़ा कि तुरंत चल दिए?’’
‘‘पगली! तुम्हारी ही बात का जवाब है यह। तुम समझती नहीं हो....अपनी बेटी जवान हो गई है, जवान....उसकी शादी कर देनी चाहिए....अब उसे कबूतरी की तरह पिंजरे में बाँधे रखना ठीक नहीं।’’ पति ने समझाया।
डॉ. सत्यवीर ‘मानव’
सिलसिले का अन्त
‘‘रामदीन बनाम रामलाल हाजिर हों!’’
अहलमद आवाज लगा रहा था औ वह अतीत की गहराइयों में डूबा जा रहा था। वहाँ केवल अंधेरा ही अंधेरा था। कभी–कभार रोशनी की काई एकाध किरण कौंध जाती थी, बस! वह देख रहा था कि रामलाल के पूर्वज रामदीन के पूर्वजों का अमानवीयता की हद तक जाकर शोषण और उत्पीड़न कर रहे हैं और यह सिलसिला कई पीढि़यों तक चलता रहता है....खुद उसके पूर्वज भी तो रामदीन के पूर्वजनों के ही भाई–बंधु थे तब तो मैं जरूर रामलाल को सबक सिखाऊँगा।.......लेकिन इसमें रामलाल का क्या दोष है?–उसकी आत्मा न सवाल किया।
‘‘न हो लेकिन इसके पूर्वजों की तो गलती थी।’’
‘‘लेकिन गवाहों के बयान और वकीलों की जिरह सुनकर तुम अच्छी तरह समझ चुके हो कि रामलाल निर्दोष है और रामदीन उसे फंसाना चाहता है।’’ उसकी आत्मा ने झिंझोड़ा।
‘‘पर..............।’’
‘‘यह मत भूलो कि तुम आज एक न्यायाधीश हो! आज तुम जिस भूमिका में हो, कल रामलाल के पूर्वज उस भूमिका में थे और कौन जानता है कि कल को फिर घटना–क्रम उलटा घूम जाए.....तब तुम फिर अतीत की पुनरावृत्ति चाहोगे?.........तुम इस समय और कुछ नहीं हो, एक न्यायाधीश हो न्यायाधीश! इसलिए तुम सिर्फ़ न्याय करो.....क्योंकि एक अन्याय ही दूसरे अन्याय को जन्म देता है और एक न्याय कई अपराधों को मार देता है। समझे तुम!’’ उसकी आत्मा ने उसे फटकारा।
‘‘रामदीन बनाम रामलाल हाजिर हो!’’ अहलमद की आवाज ने उसे विचारों की तन्द्रा से बाहर निकाला। अब उसके चेहरे पर कोई तनाव नहीं था। उसने कलम उठाई और फैसला लिख दिया–‘‘रामलाल को बाइज़्ज़्त बरी किया जाता है।’’