वर्तमान समय गहन मंथन ,आत्मसंघर्ष ,अन्तर्द्वन्द्व, मूल्यों के क्षरण एवं सत्ता द्वारा जनसाधारण की वंचना का समय है ।सधे हुए लेखक के लिए कोई विषय नया या पुराना नहीं होता ।लेखक के कलात्मक स्पर्श से कथ्य की बारीकी नए आयाम का उद्घाटन कर सकती है और कमज़ोर हाथों में पड़कर एक दम नया विषय भी निष्प्राण सिद्ध हो सकता है । वैश्वीकरण के इस आधुनिक युग में भी सामन्तकाल किसी न किसी रूप में घर से लेकर सता के गलियारों तक जीवित है ,नाम एवं पैरहन बदलकर ।साहित्यकार पर निर्भर है कि वह परिस्थितियों को किस दृष्टिकोण से देखता है और उनका क्या समाधान प्रस्तुत करता है। लघुकथा के सन्दर्भ में भी यह पूरी तरह से सच है ।
हिन्दी एवं पंजाबी लघुकथा –जगत में पिछले दो दशकों में परिपक्वता के दर्शन होते हैं ।इसके प्रमुख कारण हैं –लेखन एवं सम्पादन का गम्भीर कार्य , विभिन्न मुद्दों पर सम्मेलनों में खुली बहस एव परिचर्चा ,नवीन विषयों का संधान ,शिल्प के प्रति अपनाई गई गम्भीरता ।हिन्दी लघुकथा को लेकर पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी यदा-कदा चर्चा परिचर्चा हुई ।पाठ्यक्रम में भी लघुकथाओं का समावेश किया गया । जब मेरी पसन्द की बात आती है तो ढेर सारी लघुकथाएँ ऐसी हैं, जो मेरे ज़हन में अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं । इन लघुकथाओं ने वर्तमान समाज की धड़कन को तीव्रता से छुआ है । इन कथाओं में सूअर-रमेश बतरा ,आग –असगर वज़ाहत ,फ़र्क-विष्णु प्रभाकर,जानवर भी रोते हैं-जगदीश कश्यप ,ड्राइंग रूम -सतीश राज पुष्करणा, पेट का कछुआ-युगल ,मरुस्थल के वासी –श्याम सुन्दर अग्रवाल,कुण्डली-बलराम अग्रवाल ,सपना –अशोक भाटिया ,जगमगाहट –रूप देवगुण, डाका- कमल चोपड़ा, कुत्ते का खाना –दर्शन मितवा ,सच –झू्ठ-डॉ श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’। हिन्दी –जगत में ऐसी तो सैकड़ों लघुकथाएँ हैं जिन्हें विश्वस्तर की लघुकथाओं में रखा जा सकता है ।
उपर्युक्त सन्दर्भ में मैं दो लघुकथाकारों की रचनाओं का जिक्र करना चाहूँगा ।श्री सुकेश साहनी –मैं कैसे पढूँ ?एवं सुभाष नीरव-धूप ।आज़ादी के बाद शिक्षा –क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है ।पाठ्यक्रम ,शिक्षा-पद्धति ,शिक्षण –विधि, शिक्षण-सामग्री सभी में नए ढंग की सोच आई है ।शिक्षा की नई अवधारणा के अन्तर्गत शिक्षक ,अभिभावक शिक्षा-तन्त्र सभी जागरूक हुए हैं। इन सब प्रयासों एवं नव्याचार के बावज़ूद एक खालीपन उभरा है ।वह खालीपन यांत्रिक अधिक है । इस यांत्रिकता के लिए शिक्षक एवं प्रशासन दोनों ही ज़िम्मेदार हैं ।जैसे भी हो अन्तत: किताबें पढ़ाई या रटवाई जाती हैं। ज्ञान का भूषा बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में ठूँस-ठूँस कर भरा जा रहा है ।पाठ्यक्रम एवं शिक्षक रूपी दो पाटों के बीच में बच्चा बुरी तरह पिस रहा है ।शिक्षक पुस्तकें पढ़ा रहे हैं । बच्चों के मन को पढ़ना कोई ज़रूरी नहीं समझता । ‘मैं कैसे पढ़ूँ?’ लघुकथा में साहनी जी ने इस अछूते विषय को अपनी कथा का आधार बनाया है। बच्चे की मानसिक स्थिति अगर पढ़ते समय सामान्य नहीं है तो उसी कोई भी शिक्षक किसी भी विधि से नहीं पढ़ा सकता ।निर्जीव शिक्षण का सबसे बड़ा कारण है-बच्चों से आत्मीयता न होना, उनकी मन:स्थिति को न समझना ।जो शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते ही तुरन्त पढ़ाना शुरू कर देते हैं , वे अपने इस कर्म में प्राय: असफल रहते हैं ;क्योंकि उनका ध्यान बच्चों की मुखमुद्रा की ओर नहीं जाता ।किसी का उदास चेहरा उनें प्रश्नाकुल नहीं करता । वे केवल मशीन बनकर रह जाते हैं,एक दफ़्तर के बाबू की तरह ।बच्चे मशीन नहीं हैं । बच्चे किसी दफ़्तर की निर्जीव फ़ाइलें नहीं हैं ,जिन्हें कर्मठ क्लर्क युद्ध-स्तर पर निपटने के लिए जी-जान से जुट जाएँ। इस कथा में भी ऐसा ही होता है। शुचि के नन्हें भाई गुड्डे की अकालमृत्यु उसे भीतर तक झकझोर देती है । पूरे घर में मुर्दनी छाई हुई थी ।माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ ।माँ रो-रोकर थक चुकी थी।गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को पहली बार रोते देखा। सभी रोए –यहाँ तक कि दूधवाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे । शोक में डूबा पूरा वातावरण शुचि को उद्वेलित कर देता है ।कक्षा में पहुँचकर भी वह उस शोक की परिधि से बाहर नहीं निकल पाती है । टीचर शुचि से प्रश्न करती है, परन्तु वह इच्छित उत्तर नहीं दे पाती है।वह उत्तर देती है-‘भगवान ने बच्चा वापस ले लिया’। शुचि का यह उत्तर अत्यन्त हृदय –विदारक है ।बच्चे खी-खी कर हँसने लगते हैं ।टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगता है । दण्ड स्वरूप शुचि को बैंच पर खड़ा कर दिया जाता है ;क्योंकि दण्ड कमज़ोर शिक्षक का सबसे बड़ा हथियार है ।सफ़ेद कपड़ों मे लिपटे गुड्डे का शव उसकी डबडबाई आँखों के सामने घूम रहा है । ‘टू प्लस फ़ाइव-कितने हुए ?’इस बार टीचर उसी से पूछ रही थी ।वह ध्यान से ब्लैक बोर्ड को देखती है।उसे ब्लैक बोर्ड सफ़ेद नज़र आता है- गुड्डे के शव की तरह सफ़ेद। ब्लैक बोर्ड की निर्जीवता(सफ़ेद रंग) वस्तुत: शिक्षक के हृदय की संवेदनशून्यता ही है । यह संवेदनहीनता पूरी शिक्षा -प्रणाली पर एक प्रश्नचिह्न है,जिसका उत्तर तलाशना निहायत ज़रूरी है ।कक्षा में प्रविष्ट होने पर शिक्षक को कम से कम बच्चों के चेहरों पर तो एक नज़र ज़रूर डालनी चाहिए, बच्चों के साथ आत्मीय संवाद के बाद शिक्षण शुरू करना चाहिए
शिल्प की दृष्टि से भी यह लघुकथा पूर्णतया परिपक्व है । उद्देश्यपूर्ण एवं व्यंजनात्मक शीर्षक पूर कथा-सूत्र से आद्यन्त जुड़ा हुआ है ।सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ,जहाँ वातावरण की शोकाकुलता को और गहन करती है ,वहीं शुचि की आँखों में तैरता गुड्डे का शव में लिपटा स्वरूप साहनी जी की भाषिक क्षमता और बिम्ब विधान को उजागर करता है ।शिक्षक का सतही व्यवहार बिना किसी टिप्पणी के शिक्षा की संवेदनशून्यता पर तीखा प्रहार है ।ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े कि तरह सफ़ेद रंग का नज़र आता है –यह शिक्षा में सम्प्रेषण की उपेक्षा को रेखांकित करता है ।यहाँ रूसी शिक्षक वसीली सुखोम्लीन्स्की का यह कथन प्रासंगिक होगा-‘वह व्यक्ति,जो छात्रों से केवल क्लास में मिलता है-मेज़ के एक तरफ़ शिक्षक और दूसरी ओर छात्र –वह बाल हृदय की गहराइयों को नहीं जानता और जो बच्चों को नहीं जानता, वह उनका चरित्र –निर्माता नहीं हो सकता।’
रोज़मर्रा की इस शैक्षिक अव्यावहारिकता को साहनी जी ने मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है ।
दूसरी लघुकथा है ‘धूप’ ।दफ़्तरों का जीवन बहुत औपचारिक ,दमघोंटू और असहज है । इसका प्रभाव कार्यालय के कामकाज,अधिकारी-कर्मचारी सम्बन्धों पर भी पड़ता है । अधिकारी भी मूलत: सामाजिक प्राणी है ।दफ़्तरी औपचारिकता ,झूठा दिखावा उसके अन्तर्मन की ऊष्मा को नष्ट कर देते हैं ।धूप लघुकथा में सुभाष नीरव ने इसी ऊष्मा की तलाश की है । इस लघुकथा का कथ्य निहायत बारीक है –एक रेशा जैसा। पहले दफ़्तर में ‘लंच के समय चपरासी स्वयं लॉन की घास पर कुर्सियाँ डाल देता था-ऑफ़िसर्स के लिए ।ऑफ़िस के कर्मचारी दूर बने पार्क में बैठकर धूप का मज़ा लेते थे।’
अधिकारी चाहकर भी सामने वाले पार्क में मातहतों के बीच घास पर नहीं बैठ सकता अधिकारी होने का यह अहं उसे उस धूप से वंचित करता है । कल्पना म उनको लगता है कि पार्क में उनके पहुँचने से सब मातहत उठकर चले गए ।अभी लंच खत्म नहीं हुआ था ।वे पार्क की ओर बढ़ गए । उनके पहुँचने पर लोगों में तनिक भी हलचल भी नहीं हुई। लोगों ने देखकर भी अनदेखा कर दिया ।लोगों के उठकर चलने पर उन्हें लंच के खत्म होने का अहसास हुआ । वे उठकर ‘लोगों की भीड़ का एक हिस्सा होते हुए अपने ऑफ़िस पहुँचे।’ ऑफ़िस में पहुँचकर उन्हें वर्षों बाद खोई हुई किसी प्रिय वस्तु के अचानक प्राप्त होने की सुखानुभूति हो रही थी । औपचारिकता की छद्म गुंजलक से वे बाहर आ चुके थे ।आज वे ऑफ़िस पहुँचे थे- लोगों की भीड़ का एक हिस्सा होते हुए । यह एक हिस्सा होना ही धूप है ,अधिकारी के छद्म कवच से मुक्ति है। यही मुक्ति उसे ‘प्रिय वस्तु के मिलने का अहसास कराती है ।लेखक ने धूप शीर्षक का चयन जिस उद्देश्य से किया है ,उसे यह लघुकथा सहज रूप से अभिव्यक्त करती है ।इस तरह के विषय को लेकर लघुकथा लिखना कठिन कार्य है । बनावट और बुनावट दोनों ही स्तरों पर लेखक दफ़्तरों की स्थिति पर पैनी नज़र रखता है और धूप के अभाव का एक क्रियात्मक समाधान प्रस्तुत करता है । यह धूप मई-जून की लू-लपट नहीं है ।यह तो सर्दियों की गुनगुनी धूप है,तन-मन को राहत देने वाली ।अधिकारी और कर्मचारी के बीच की दूरी को कम करके आपसी सम्बन्धों की गरमाहट को जीवित करने की ।
मैं कैसे पढ़ूँ ?
सुकेश साहनी
पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ---रो-रोकर थक चुकी माँ के पास चुपचाप बैठी गाँव की औरतें । सफेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था----
“शुचि!” टीचर की कठोर आवाज़ से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई।
“तुम्हारा ध्यान किधर है? मैं क्या पढ़ा रही थी----बोलो?” वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे।
“बोलो!” टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।
“भगवान ने बच्चा वापस ले लिया----।” मारे डर के मुँह से बस इतना ही निकल सका ।
कुछ बच्चे खी-खी कर हँसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा।
“स्टैंड अप आन द बैंच !”
वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा--- ये सब हँस क्यों रहे हैं, माँ-पिताजी, सभी तो रोये थे-यहाँ तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहाँ उसे माँ के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था । हँसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्हीं बाँहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!
“टू प्लस-फाइव-कितने हुए?” टीचर बच्चों से पूछ रही थी ।
शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान ने गुड्डे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था? उसकी आँखें डबडबा गईं। सफेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आँखों के आगे घूम रहा था। इस दफा टीचर उसी से पूछ रही थी । उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफेद रंग का हो गया है। उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया । सफेद बोर्ड पर सफेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?
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-धूप
सुभाष नीरव
लंच का समय।
चौथी मंजि़ल पर स्थित अपने कमरे की खिड़की से उन्होंने बाहर झाँका। कार्यालय के कर्मचारी सामने चौराहे के बीचोंबीच बने पार्क की हरी-हरी घास पर पसरी गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। उन्हें उन सबसे ईर्ष्या हो आयी। और वह भीतर ही भीतर भन्नाए, “किस अहमक ने बनाई है यह सरकारी इमारत ! इस गुनगुनी धूप के लिए तरस जाता हूँ मैं।”
उन्हें अपना पिछला दफ्तर याद हो आया। वह राज्य से केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर आये थे। कितना अच्छा था वह आफिस ! सिंगल स्टोरी ! आफिस के सामने खूबसूरत छोटा-सा लॉन ! लंच के समय चपरासी स्वयं लॉन की घास पर कुर्सियाँ डाल देता था, आफिसर्स के लिए। आफिस के कर्मचारी दूर बने पार्क में बैठकर धूप का मजा लेते थे। पर, यहाँ आफिस ही नहीं, सरकार द्वारा आबंटित फ्लैट में भी धूप के लिए तरस जाते हैं वे। तीसरी मंज़िल पर मिले फ्लैट पर किसी भी कोण से धूप दस्तक नहीं देती।
एकाएक उनका मन हुआ कि वह भी सामने वाले पार्क में जाकर धूप का मज़ा ले लें; लेकिन, उन्होंने अपने इस विचार को तुरन्त झटक दिया। अपने मातहतों के बीच जाकर बैठेंगे ! नीचे घास पर ! इतना बड़ा अफसर और अपने मातहतों के बीच घास पर बैठे !
वह खिड़की से हटकर सोफे पर अधलेटे-से हो गये। और तभी उन्हें लगा, धूप उन्हें अपनी ओर खींच रही है। वह बाहर हो गये हैं बिल्डिंग से। चौराहे के बीच बने पार्क की ओर बढ़ रहे हैं वह। पार्क में घुस कर बैठने योग्य कोई कोना तलाश करने लगती हैं उनकी आँखें। पूरे पार्क में टुकडि़यों में बँटे लोग। कुछ ताश खेलने में मस्त हैं। कुछ गप्पें हाँक रहे हैं। कुछ मूँगफली चबा रहे हैं। कोई-कोई अलग-थलग बैठा है या लेटा है। लोग उन्हें देख ताश खेलना बन्द कर देते हैं। गप्पें हाँकते लोग एकाएक चुप्पा जाते हैं। लेटे हुए लोग उठकर बैठ जाते हैं। पार्क में उनके बैठते ही लोग धीमे-धीमे उठकर खिसकने लगते हैं। कुछ ही देर में पूरा पार्क खाली हो जाता है और बच रहते हैं– वही अकेले !
अचानक उनकी झपकी टूटी। उन्होंने देखा, वह पार्क में नहीं, अपने आफिस के कमरे में हैं। उन्होंने घड़ी देखी, लंच समाप्त होने में अभी बीस मिनट शेष थे। वह उठे और कमरे से ही नहीं, बिल्डिंग से भी बाहर चले गये। पार्क की ओर उनके कदम खुद-ब-खुद बढ़ने लगे। एक क्षण खड़े-खडे़ वह बैठने के लिए उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने लगे। उन्हें देख लोगों में हल्की-सी भी हलचल नहीं हुई। सब मस्त थे। लोगों ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया था। वह चुपचाप एक कोने में अपना रूमाल बिछाकर बैठ गये। गुनगुनी धूप उनके जिस्म को गरमाने लगी थी। पिछले दो सालों में यह पहला मौका था, सर्दियों की गुनगुनी धूप में नहाने का।
लंच खत्म होने का अहसास उन्हें लोगों के उठकर चलने पर हुआ। वह भी उठे और लोगों की भीड़ का एक हिस्सा बनकर आफिस में पहुँचे। अपने कमरे में पहुँचकर उन्हें वर्षों बाद, खोई हुई किसी प्रिय वस्तु के अचानक पा जाने की सुखानुभूति हो रही थी !
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