ल़घुकथा से मेरा पहली साक्षात्कार प्रसिद्ध उर्दू मासिक ‘शमा’ के द्वारा हुआ : ‘शमा’ में मिनी–मिनी कहानियों शीर्षक से लघुकथाएँ छपती थी; तब मैं सिर्फ़ पाठक था, लिखने का सिलसिला बहुत बाद मे शुरू हुआ।
‘शुभ तारिका’ जो सन् 1980 के आसपास ‘‘तारिका’’ नाम से छपती थी। हिन्दी में लघुकथाएँ तारिका के माध्यम से पहले–पहल खूब पढ़ी। उसके बाद सारिका कादम्बिनी, आजकल, समाज कल्याण, अमर उजाला, दैनिक जागरण आदि में लघुकथाएँ खूब पढ़ीं तथा छपी भी।
यूँ तो दर्जनों लघुकथाएँ ऐसी हैं हृदय पर छाप छोड़ गई हैं। महेन्द्र सिंह महलान की एक लघुकथा : ‘ एकाएक वह बूढ़ा हो गया, एक बेटी का बाप जो बन गया है आज’’ शायद बूढ़ा शीर्षक से छपी थी। हमेशा जब कभी भी किसी मित्र या संबंधी के लड़की पैदा होने की सूचना मिलती है तो यह लघुकथा एकाएक ज़हन में कौंध जाती है।
इसी तरह अब जब यदा–कदा अस्पतालों से दो–चार होना पड़ता है तो अस्पतालों की अव्यवस्था और तीमारदारों की विवशता पर सुकेश साहनी जी की लघुकथा ‘यम के वंशज’ आक्रोश के साथ–साथ आँखों के कोर गीला कर देती है।
मेरी पसंद की लघुकथाओं में पहली श्री अमरीक सिंह दीप की लघुकथा ‘‘उस स्त्री की अन्तिम इच्छा ’’ है जो हंस पत्रिका के फरवरी 2008 अंक में छपी थी। इस लघुकथा ने मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया। स्त्री की विडम्बना इससे बढ़कर नहीं हो सकती। लघुकथा इस प्रकार है–
उस स्त्री की अंतिम इच्छा
अमरीक सिंह दीप
उस स्त्री को पुरुष प्रधान की अदालत में पेश किया गया।
उस पर आरोप था कि वह अपने हिस्से के आवंटित पुरुष अर्थात् अपने पतिदेव के देह सुख के लिए दहेज में डबलबेड नहीं लाई, डबलबेड पर कोकापंडित के चौरासी आसनों की परीक्षा हेतु ब्ल्यू फिल्म देखने के लिए डी.वी.डी. और महंगा होम थियटर टी.वी. नहीं लाई, उसे पानी पी–पीकर कोसने के लिए परिवार वालों के फ़्रिज़ नहीं लाई। अपने आवंटित पुरुष की अंतिम स्त्री नहीं है वह। अपनी प्रेमिकाओं के साथ मौज–मस्ती और लांग ड्राइव पर जाने के लिए पति परमेश्वर हेतु कार नहीं लाई, अपने पूज्य पतिदेव के पृथ्वी के समस्त श्रेष्ठ सुख भोगने हेतु दहेज में मोटी रकम नहीं आई।
स्त्री का अपराध स्पष्ट और सर्वसिद्ध था। अदालत ने एकमत होकर उसे सजा–ए–मौत सुना दी।
सजा से एक दिन पूर्व जेलाध्यक्ष ने उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी। हर कैदी की तरह स्त्री ने भी मरने से पहली अपनी अंतिम इच्छा ज़ाहिर कर दी कि वह हमेशा से एक डरपोक प्राणी बनी रही अत: एक दिन के लिए शेर की पीठ पर बैठाया जाए, वह जीवन भी कुटती–पिटती रही फिर भी न उसने कोई प्रतिरोध किया न शस्त्र उठाया अत: शेर की पीठ पर बैठाने के बाद उसके हाथ में नंगी तलवार दे दी जाए, उसने सदैव मोन रहकर पुरुष की हर जुल्म ज्यादती सहा है इसलिए शेर की पीठ पर बैठाने और हाथ में नंगी तलवार थमाने के बाद भरे समाज में उसकी जय–जयकार की जाए।
पुरुष ने अपने धर्म की महान परंपरा का पालन करते हुए स्त्री की अंतिम इच्छा का तहेदिल से सम्मान किया। भरे समाज में उसकी जयजयकार के लिए भव्य जगराते का आयोजन किया। उसे शेर की पीठ पर बैठाया, उसके हाथ में नंगी तलवार थमा दी और रात भर संगीत के आधुनिक वाद्ययंत्रों को बजाकर पंचम सुर में गला फाड़ कर पूरी रात स्त्री की महानता की जयजयकार की।
और अगले दिन स्त्री की मिट्टी का तेल डालकर फूंक दिया गया।
इस लघुकथा पर मेरी प्रतिक्रिया ‘‘हंस पत्रिका के अप्रैल 2008 अंक में छपी थी जो ज्योंकी त्यो। यहाँ प्रस्तुत है।
‘‘हंस फरवरी अंक में भाई अमरीक सिंह ‘दीप’ ने पुरुष प्रधान समाज पर धर्मांधता की ओर से इतनी ज़ोर से तमाचा मारा है कि कोई चाहकर भी वह गाल सहला नहीं पाएगा। किसी ने गाल सहलाते देख लिया तो क्या जवाब देगा समाज को, अपने आप को, आने वाली पीढ़ी को? शायद ‘‘उस स्त्री की अन्तिम इच्छा’’ अभी पूरी नहीं हुई है।’’
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा श्री विकेश निझावन की ‘तारिका’ अक्टूबर 1981 अंक में छपी लघुकथा ‘कटे हाथ’ है।
कटे हाथ
विकेश निझावन
इन हाथों से वह कविता लिखा करता था।
इन हाथों से वह कहानियाँ लिखा करता था।
इन हाथों से वह चित्र बनाया करता था।
उसकी शादी हो गई। पत्नी को उसका कविता लिखना, कहानी लिखना, चित्र बनाना कतई नहीं भाया।
उसने कलम एक ओर रख दी। सोचा, ये लिखना और चित्र बनाना तभी सार्थक हो सकता है, यदि वास्तविक जीवन भी इतना ही खूबसूरत हो। पहले पत्नी से ‘एडजस्टमैन्ट’ कर ले, फिर इन चीजों को उठाएगा।
पर पत्नी उसे कहाँ समझ पाई। हर बात में खींचातानी। एक बार पत्नी पर हाथ उठ गया उसका।
–खबरदार, जो मुझ पर हाथ उठाया तो! काट कर रख दूँगी इन्हें।
वह सोचने लगा। अब उसके पास ऐसे कौन से हाथ हैं। जो कटने बाकी रह गए हैं।
लघुकथा ‘कटे हाथ’ मेरी पंसदीदा लघुकथाओं में से एक है। लेखक की मनोदशा की, उसके भीतर उपजी संवेदना को
जब उसकी जीवन संगिनी बिना सोचे समझे उसके सृजन में बाधा बनती है तब लेखक स्वयं को कटे हाथ सरीखा अनुभव करता है अथवा उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करता है।
इसी संबंध में एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा। प्रसिद्ध शायर मोमिन खाँ ‘मोमिन ’ बादशाही दौर में दिल्ली में शायरी के साथ–साथ हकीमी किया करते थे। शादी के दिन सुहागरात को मोमीन साहब शेर गुनगुनाते हुए नवविवाहिता पत्नी के पास पहुँचे तो पत्नी ने कहा–‘‘, मेरी शादी तो एक सिपहसालार से तय हुई थी मगर वहाँ मेरी बदकिस्मती से न हो सकी।’’ मोमिन साहब इतना सुनकर फौरन उल्टे पाँव वापस चले गए और सवेरे सबके समझाने के बावजूद इस तर्क के साथ पत्नी को तलाक़ दे दिया कि ‘‘जब उसे मेरे फ़न से
लगाव नहीं तो मैं उसके साथ जि़न्दगी कैसे गुज़ार सकता हूँ।’’