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बदबूदारयुगऔरअभिजात्यसमाज
बलराम अग्रवाल
 

‘विद्या ददाति विनयं’—इस सूत्र के हम ही प्रस्तोता हैं। हम, यानी विश्व की ज्ञानश्रेष्ठ-जाति—हिन्दु। लेकिन ‘विनय’ की हमारी परिभाषा दुर्भाग्यवश नहीं बल्कि अभिजात्य-जड़तावश लगातार गड़बड़ा रही है। कुछेक वर्षों से नहीं, सदियों से। हम हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, मुसकराकर खड़े रहने को ही ‘विनयशील होना’ मानने लगे हैं; जबकि मानवीय-मूल्यों से विरक्त व्यक्ति में ‘विनय’ का यह न सिर्फ संकुचित बल्कि छिछला रूप है। विश्वभर में विचार और व्यवहार के इस छिछलेपन के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है। समकालीन भारतीय साहित्य भी इस वैश्विक जनांदोलन में अपना रचनात्मक योग दे रहा है। जहाँ तक समकालीन हिन्दी लघुकथा का सवाल है, जड़ताओं और विसंगतियों पर लगातार चोट करना इसका प्रमुख विषय रहा है। चारित्रिक विसंगतियाँ—वे चाहे सामाजिकों के बीच हों, राजनीतिकों के बीच हों, धार्मिकों के बीच हों या किन्हीं अन्य के बीच—प्रारम्भ से ही इसके निशाने पर रही हैं। गत कुछ वर्षों से शैल्पिक दृष्टि से समकालीन हिन्दी लघुकथा में कुछ चमत्कारिक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। घटनाशीलता गौण और विचारशीलता प्रमुख होती जा रही है, जो कि इसके गुणात्मक उत्कृष्टता की ओर बढ़ जाने का संकेत है। कथ्य के विकास में मनोभावों और मानसिक-उद्वेलनों ने प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी है। लघुकथा को ‘कौंध’ की तरह दो वाक्यों में समाप्त कर डालने का या दो विपरीत स्थितियों के चित्रण तक कथ्य को सीमित रखने के दिन जैसे लद ही गए हैं। आकार और गुणवत्ता, दोनों के मद्देनजर, कई बार तो लगता है कि लघुकथा कहानी के कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने लगी है। देख और पढ़कर सन्तोष का अनुभव होता है।
सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और मूल्य—ये ऐसे शब्द हैं जिनका उल्लेख अभिजात्य हिन्दू समाज में अक्सर बड़े गर्व के साथ किया जाता है, बिना यह विचारे कि हमारे बाह्य और आभ्यंतर जगत में इन सब की ही सार्थक और सकारात्मक भूमिका कितनी रह गई है। जहाँ तक सिद्धांतों की बात है, हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रस्तोता और पोषक दोनों हैं, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर हमसे अधिक संकुचित जाति धरती पर शायद ही कोई दूसरी हो। हमारे बीच ऐसे विद्वानों की कोई कमी कभी नहीं रही जो जातीय-संकुचन के इस आरोप पर सामने वाले के खिलाफ कोबरा की तरह पूँछ पर खड़े हो जाने में पलभर की भी देरी नहीं करते। इस बिन्दु पर वे गजब के फुर्तीले और तर्कशील सिद्ध होते हैं। संसार की शेष समस्त सभ्य जातियों में व्याप्त संकीर्णता के बारे में उनका ज्ञान इतना विशद है कि आप दाँतों तले जीभ दबाने को मजबूर हो जाएँगे, लेकिन अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराएँ, अपने मूल्य किन-किन बिन्दुओं पर कितना-कितना सड़-गल गए हैं, पूँछ पर खड़े इन कोबराओं को कभी नजर नहीं आता। ये सिर्फ बाहर देखते हैं, भीतर नहीं। शिक्षा और उस शिक्षाजनित ज्ञान की सार्थकता इस बात में निहित है कि वह हमें अपने भीतर देखना, अपने भीतर विचरना और विचारना सिखाए, गलित मान्यताओं के खिलाफ द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करे। समकालीन हिन्दी लघुकथा में द्वंद्व का यह चित्रण नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कर रहा है। अपनी इस मान्यता की पुष्टिस्वरूप मैं जिन दो लघुकथाओं को प्रस्तुत करना चाहूँगा, उनमें पहली है—कथाकार डॉ अशोक भाटिया की ‘हरिगंधा’ के लघुकथा-विशेषांक में प्रकाशित लघुकथा ‘कपों की कहानी’ तथा दूसरी है—‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित सुशान्त सुप्रिय की लघुकथा ‘बदबू’।
यहाँ इस बात को स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि अलग-अलग सन्दर्भों में उत्कृष्ट रचना के तौर पर अलग-अलग लघुकथाओं का नाम सामने आता है। कथ्य के, भाषा के, शिल्प के, शैली के, चारित्रिक विद्रूपता अथवा उच्चता के, मनोविकार के, निर्लज्जता के, जुझारूपन के…गरज यह कि हर विषय के अपने प्रतिमान हैं जिन्हें विभिन्न कथाकारों ने विभिन्न प्रकार से अपनी लघुकथाओं में स्थापित किया है। यहाँ मैं द्वंद्वात्मक शैली में लिखी गई दो मनोविश्लेषणपरक लघुकथाओं पर अपने विचार पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ। इनमें से पहली लघुकथा ‘कपों की कहानी’ का नायक वर्तमान समय की उस अभिजात्य अथवा बूर्जुआ पीढ़ी का प्रतीक है जो विचार के स्तर पर तो गलित मान्यताओं को छोड़ने के द्वंद्व में फँसे होने और सामाजिक-समरसता को कायम करने की मुहिम में जुटे होने का ढोंग रचती है, लेकिन व्यावहारिकता के स्तर पर उसका हाथ कभी अपने कप से छोटे तो कभी ‘क्रेक पड़े हुए’ कपों पर ही पड़ता है। रसोई की रुकी नाली के गंद को यह पीढ़ी अपने हाथों से साफ कर रही है लेकिन उसी रसोई में बड़े और छोटे कपों की दुनिया भी पूरी वीभत्सता के साथ कायम है; और उसी रसोई में परम्परा की तरह सजाकर रखे ‘क्रेक’ कपों को कूड़ेदान का रास्ता दिखा देने का साहस भी यह पीढ़ी नहीं कर पा रही है। अपनी जिन अनेक विशेषताओं के कारण ‘कपों की कहानी’ समकालीन लघुकथाओं के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सक्षम है, उनमें एक यह भी है कि यह अस्पृश्यता को त्यागने सम्बन्धी सामाजिक-दायित्व के उस उफान की ओर संकेत करती है जो पिछले अनेक वर्षों से हमारे मन व मस्तिष्क में रह-रहकर आता है, लेकिन अपनी अभिजात्य-संकीर्णताओं के चलते जिसे कार्यान्वित न होने देकर हम ऐन मौके पर बदलाव का उफान पैदा करने वाली उस आँच को धीमा कर देते हैं।
सुशान्त सुप्रिय की ‘बदबू’ भी इसी प्लेटफॉर्म की बेहद सटीक लघुकथा है। अन्तर केवल इतना है कि जहाँ अशोक भाटिया प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सांकेतिक रहते हैं, वहीं सुशान्त सुप्रिय समापन-बिन्दु पर पहुँचकर प्रारम्भ से चली आ रही सांकेतिकता को खोलकर स्पष्ट कर देते हैं। ‘बदबू’ की एक और विशेषता इसके लेखक का कथा-धैर्य है। जब तक वह कथा को उसके समापन पर नहीं ला खड़ा करता तब तक वह उसका अन्त भी नहीं करता है। शास्त्रीय-पकड़ वाले कुछेक आलोचकों को इस रचना का अन्त किंचित वाचाल और नारेबाजी के निकट प्रतीत हो सकता है। परन्तु इस नारेबाजी को प्रत्यक्ष करने के लिए उन्होंने कुत्ते की नाक वाले जिस चरित्र को गढ़ा है, वह यथार्थत: प्रभावपूर्ण है। बहरहाल, दोनों लघुकथाएँ अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हुई विधागत-दायित्व का पूर्ण निर्वाह करती हैं।

कपों की कहानी
अशोक भाटिया

आज फिर ऐसा ही हुआ। वह चाय बनाने रसोई में गया तो उसे फिर वही बात याद आ गई। उसे फिर चुभन हुई कि उसने ऐसा क्यों किया?
दरअसल उसके घर की सीवरेज पाइप कुछ दिन से रुकी हुई थी। आप जानते हैं कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति घर में सहज रूप में नहीं रह पाता। यह आप भी मानेंगे कि यदि जमादार न होते तो हम सचमुच नरक में रह रहे होते। खैर, दो जमादार जब सीवरेज खोलने के लिए आ गए, तो उसकी साँस में साँस आई। वे दोनों पहले भी इसी काम के लिए आ चुके हैं। एक आदमी थक जाता तो दूसरा बाँस लगाने लगता। कितना मुश्किल काम है! वह कुछ देर पास खड़ा रहा, फिर दुर्गंध के मारे भीतर चला गया। सोचने लगा कि इनके प्रति सवर्णों का व्यवहार आज भी कहीं-कहीं ही समानताभरा दीखता है। नहीं तो, अधिकतर अमानवीय व्यवहार ही होता है। इतिहास तो जातिवादी व्यवस्था का गवाह है ही, आज भी हम सवर्ण इनके प्रति नफरत दिखाकर ही अपने में गर्व अनुभव करते हैं। यह संकीर्णता नहीं तो और क्या है?
उसके मन में ऐसा बहुत-कुछ उमड़ रहा था कि बाहर से आवाज आई, “बाऊजी, आकर देख लो।”
वह उत्साह से बाहर गया। पाइप साफ हो चुकी थी।
“बोलो, पानी या फिर चाय?” उसने पूछा।
“पहले साबुन से हाथ धुला दो।” वे बोले। शायद वे उसकी उदारता को जानते हैं। वह उनके प्रति अपनी उदारता को यादकर खुश होने लगा। हाथ धुलवाते हुए उसने जान-बुझकर दोनों के हाथों को स्पर्श किया ताकि उन पर उसकी उदारता का सिक्का जमने में कोई कसर न रह जाए। पैसे तो पूरे देगा ही, पर लगे हाथ एक अवसर मिल गया। बोला, “एक बार साबुन लगाने से हाथों की बदबू नहीं जाती। रसोई की नाली रुकी थी, तो मैंने कल हाथ से गंद निकाला था। उसके बाद तीन बार हाथ धोए, तब जाकर बदबू गई।”
“बाऊजी, हमारा तो रोज का यही काम है। थोड़ी चाय पिला दो।”
वह यही सुनना चाहता था। यह तो मामूली बात है। इनके प्रति हमारे पूर्वजों द्वारा किए अन्याय के प्रायश्चित के रूप में हमें बहुत कुछ करना चाहिए। लेकिन क्या?—यह वह कभी नहीं सोच पाया।
वह रसोई में बड़े उत्साह के साथ चाय बनाने में जुट गया। चाय का सामान डालकर उसने तीन कप निकाले। एक कप बड़ा लिया और दो छोटे; फिर सोचा—यह भेदभाव ठीक नहीं। उन्हें चाय की जरूरत मुझसे ज्यादा है। यह सोचकर उसने तीनों एक-से कप उठाए। ऐसे और कई कप रखे थे, लेकिन उसने एक कप साबुत लिया और दो ऐसे लिए जिनमें क्रैक पड़े हुए थे।
उधर चाय में उफान आया, तो उसने फौरन आँच धीमी कर दी।

बदबू
सुशांत सुप्रिय

रेल-यात्राओं का भी अपना ही मजा है। एक ही डिब्बे में पूरे भारत की सैर हो जाती है। तरह-तरह के लोग मिल जाते हैं। विचित्र किस्म के अनुभव हो जाते हैं।
पिछली सर्दियों में मेरे साथ ऐसा ही हुआ। मैं और मेरे एक परिचित विमल राजधानी-एक्सप्रेस से किसी काम के सिलसिले में दिल्ली से रायपुर जा रहे थे। हमारे सामने वाली सीट पर फ्रेंचकट दाढ़ीवाला एक व्यक्ति अपनी पत्नी और तीन साल के बच्चे के साथ यात्रा कर रहा था। परस्पर अभिवादन हुआ। शिष्टाचारवश मौसम से जुड़ी कुछ बातें हुईं। उसके अनुरोध पर हमने अपनी नीचे वाली बर्थ उसे दे दी और हम दोनों ऊपरवाली बर्थ पर चले आए।
मैं अखबार के पन्ने पलट रहा था। तभी मेरी निगाह नीचे बैठे उस व्यक्ति पर पड़ी। वह बार-बार हवा को सूँघने की कोशिश करता, फिर नाक-भौंह सिकोड़ता। उसके हाव-भाव से साफ था कि उसे किसी चीज की बदबू आ रही थी। वह रह-रह कर अपने दाहिने हाथ से अपनी नाक के इर्द-गिर्द की हवा को उड़ाता। विमल भी यह सारा तमाशा देख रहा था। आखिर उससे रहा नहीं गया। वह पूछ बैठा,“क्या हुआ भाईसाहब?”
“बड़ी बदबू आ रही है।” फ्रेंचकट दाढ़ीवाले उस व्यक्ति ने चिड़चिड़े-स्वर में कहा।
विमल ने मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मुझे भी कुछ समझ नहीं आया।
मैंने जीवन में कभी यह दावा नहीं किया कि मेरी नाक कुत्ते जैसी है। हम दोनों को ही विशेष गंध नहीं सता रही थी। इसलिए उस व्यक्ति के हाव-भाव हमें कुछ अजीब-से लगे। मैं फिर अखबार पढ़ने में व्यस्त हो गया। विमल ने भी अखबार का एक पन्ना उठा लिया।
पाँच-सात मिनट बीते होंगे कि मेरी निगाह नीचे गई। नीचे बैठा व्यक्ति अब काफी उद्विग्न नजर आ रहा था। वह चारों ओर टोही निगाहों से देख रहा था। जैसे बदबू के स्रोत का पता लगते ही वह कोई क्रांतिकारी कदम उठा लेगा। रह-रह कर उसका हाथ अपनी नाक पर चला जाता। आखिर उसने अपनी पत्नी से कुछ कहा। पत्नी ने बैग में से ‘रूम-फ्रैशनर’ जैसा कुछ निकाला और हवा में चारों ओर कुछ स्प्रे कर दिया। मैंने विमल को आँख मारी। वह मुस्करा दिया। किनारेवाली बर्थ पर बैठे एक सरदारजी भी यह सारा तमाशा हैरानी से देख रहे थे।
“चलो, अब शायद इस पीड़ित व्यक्ति को कुछ आराम मिलेगा।” मैंने मन ही मन सोचा।
पर थोड़ी देर बाद क्या देखता हूँ कि फ्रेंचकट दाढ़ीवाला वह उद्विग्न व्यक्ति वही पुरानी हरकतें कर रहा है। तभी उसने अपनी पत्नी के कान में कुछ कहा। पत्नी परेशान-सी उठी और हमें संबोधित करके कहने लगी, “भाईसाहब, यह जूता किसका है? इसी में से बदबू आ रही है।”
जूता विमल का था। वह उत्तेजित-स्वर में बोला,“यहाँ पाँच-छ्ह जोड़ी जूते पड़े हैं। आप यह कैसे कह सकती हैं कि इसी जूते में से बदबू आ रही है? वैसे भी, मेरा जूता और मेरी जुराबें, दोनों नई हैं और साफ-सुथरी हैं।”
इस पर उस व्यक्ति की पत्नी कहने लगी,“भाईसाहब, बुरा मत मानिएगा। इन्हें बदबू सहन नहीं होती। उल्टी आने लगती है। आप से गुजारिश करती हूँ, आप अपने जूते पालिथीन में डाल दीजिए। बड़ी मेहरबानी होगी।”
विमल गुस्से और असमंजस में था। तब मैंने स्थिति को सँभाला,“देखिए, हमें तो कोई बदबू नहीं आ रही। पर आप जब इतनी जिद कर रही हैं तो यही सही।”
बड़े बेमन से विमल ने नीचे उतरकर अपने जूते पालिथीन में डाल दिए।
मैंने सोचा, चलो अब बात यहीं खत्म हो जाएगी। पर थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति उठा और मुझसे कहने लगा,“भाईसाहब, मुझे नीचे अब भी बहुत बदबू आ रही है। आप नीचे आ जाइए। मैं वापस ऊपरवाली बर्थ पर जाना चाहता हूँ।”
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने कहा,“क्या आप पहली बार रेल-यात्रा कर रहे हैं? भाईसाहब, आप अपने घर के ड्राइंगरूम में नहीं बैठे हैं। यात्रा में कई तरह की गंध आती ही हैं। टायलेट के पासवाली बर्थ मिल जाए तो वहाँ की दुर्गंध आती है। गाड़ी जब शराब बनानेवाली फैक्ट्री के बगल से गुजरती है तो वहाँ की गंध आती है। यात्रा में सब सहने की आदत डालनी पड़ती है।”
विमल ने भी धीरे-से कहा,“इंसान को अगर कुत्ते की नाक मिल जाए तो बड़ी मुश्किल होती है।”
पर उस व्यक्ति ने शायद विमल की बात नहीं सुनी। वह अड़ा रहा कि मैं नीचे आ जाऊँ और वह ऊपरवाली बर्थ पर ही आएगा।
मैंने बात को और बढ़ाना ठीक नहीं समझा, इसलिए मैंने ऊपरवाली बर्थ उसके लिए खाली कर दी। वह ऊपर चला गया।
थोड़ी देर बाद जब उस व्यक्ति की पत्नी अपने बड़े बैग में से कुछ निकाल रही थी तो वह अचानक चीखकर पीछे हट गई।
सब उसकी ओर देखने लगे।
“क्या हुआ?” ऊपर से उस व्यक्ति ने पूछा।
“बैग में मरी हुई छिपकली है।” पत्नी ने जवाब दिया।
यह सुनकर विमल ने मुझे आँख मारी। मैं मुस्करा दिया।
वह व्यक्ति खिसियाना-सा मुँह लिए नीचे उतरा।
“भाईसाहब, बदबू का राज अब पता चला।” सरदारजी ने उसे छेड़ा। वह और झेंप गया।
खैर, उस व्यक्ति ने मरी हुई छिपकली को खिड़की से बाहर फेंका। फिर वह बैग में से सारा सामान निकालकर उसे डिब्बे के अंत में ले जाकर झाड़ आया। हम सबने चैन की साँस ली। चलो मुसीबत खत्म हुई—मैंने सोचा।
पैंट्री-कार से खाना आ गया था। सबने खाना खाया। इधर-उधर की बातें हुईं। फिर सब सोने की तैयारी करने लगे।
तभी मेरी निगाह उस व्यक्ति पर पड़ी। उद्विग्नता की रेखाएँ उसके चेहरे पर लौट आई थीं। वह फिर-से हवा को सूँघने की कोशिश कर रहा था।
“मुझे अब भी बदबू आ रही है…” आखिर उसने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
“हे भगवान!” मेरे मुँह से निकला।
यह सुनकर विमल ने मोर्चा सँभाला,”भाई साहब, मेरी बात ध्यान से सुनिए। बताइए, हम किस युग में जी रहे हैं? यह कैसा समय है? हम कैसे लोग हैं?”
“क्या मतलब?” वह व्यक्ति कुछ समझ नहीं पाया।
“देखिए, हम सब एक बदबूदार युग में जी रहे हैं। यह समय बदबूदार है; हम लोग बदबूदार हैं। यहाँ नेता भ्रष्ट हैं, वे बदबूदार हैं। अभिनेता अंडरवर्ल्ड से मिले हैं, वे बदबूदार हैं। अफसर घूसखोर हैं, वे बदबूदार हैं। दुकानदार मिलावट करते हैं, वे बदबूदार हैं। हम और आप झूठ बोलते हैं, दूसरों का हक मारते हैं, अनैतिक काम करते हैं, हम सभी बदबूदार हैं। जब यह सारा युग बदबूदार है, यह समय बदबूदार है, यह समाज बदबूदार है, हम लोग बदबूदार हैं तो ऐसे में यदि आपको अब भी बदबू आ रही है तो यह स्वाभाविक है। आखिर इस डिब्बे में हम बदबूदार लोग ही तो बैठे हैं।”

 

 
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