साम्प्रदायिकता के विरोध में खड़ी एक सशक्त लघुकथा है। यह बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाती है। जो अनकहा है, वही इसकी ताकत है। लोग व्यर्थ में ही परस्पर नफरत, शत्रुता और अविश्वास पाले रहते हैं। आशंकित हो भय के साए में जीते–मरते हैं। साम्प्रदायिकता तनाव के बीच कथा–नायक कमानीदार चाकू लेकर घर से निकलता है, इस आशय से कि दूसरे सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति से सामना होगा और ऐसी नौबत आई तो वह उसे निपटा देगा। तेजी से जाते हुए उसका स्कूटर फिसल जाता है और वह सड़क पर गिरकर चोटिल हो जाता है। दूसरे सम्प्रदाय के दो प्रौढ़ व्यक्ति दौड़े–दौड़े उसके पास आकर उसे उठाते हैं। इसे देख कथा–नायक तेजी से अपना हाथ जेब में डालता है, पर वहाँ कुछ नहीं था। ‘बेटा, तेरा चाकू’ , दूसरे आदमी ने कुछ ही दूरी पर गिरे चाकू को उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा। उसने दोनों आदमियों की तरफ देखा और नज़रें चुराकर चाकू पकड़ा और स्कूटर स्टार्ट कर तेजी से चला गया।
जिन लोगों के खिलाफ नायक हिंसा पर उतारू होने के लिए तत्पर था, जब वे ही लोग मासूमियत और सद्भाव के साथ उसे वापस चाकू हाथ में थमाते हैं, उससे नायक को अपनी सोच पर जिस तरह की शर्मिन्दगी महसूस होती है, उसका अत्यन्त प्रतीकात्मक, प्रभावी और मार्मिक चित्रण इस लघुकथा में हुआ है।
शब्द–चयन, दृष्टि–सम्पन्नता और अभिव्यक्ति–कौशल के कारण लघुकथा यादगार बन गई है। बिना किसी स्पष्टीकरण के लघुकथा अपने निष्कर्ष तक पहुँचाने में समर्थ है। सबसे बड़ी बात कि जातिवाद, साम्प्रदायिकता जैसे संकीर्ण सोच को एक घृणित, निंदनीय सोच के रूप में प्रस्तुत करने में सफल है यह लघुकथा।
कमानीदार चाकू
जगदीश अरमानी
शहर की हवा बड़ी खराब थी। इतनी खराब कि किसी भी वक्त कोई भी घटना घट सकती थी। आगजनी, खून–खराबे और लूटमार की घटनाएँ आम घटती थीं।
वह जब भी घर से निकलता उसकी पत्नी उसके घर लौटने की सौ–सौ मिन्नतें मानतीं। जब तक वह घर न लौट आता, उसकी पत्नी को चैन न पड़ता। उसका एक पैर घर के भीतर और दूसरा बाहर होता।
वह भी अब घर से बाहर निकलते हुए, अपनी जेब में कमानीदार चाकू रखता और सोचता–अगर मेरे काबू कोई आदमी आ गया तो एक बार तो उसकी आंतें निकालकर रख दूँगा।
वह सोचता–सोचता जा रहा था कि अचानक बाजार का एक मोड़ आने पर उसका स्कूटर किर–किर करता सड़क पर फिसल गया।
दूसरे संप्रदाय के दो अधेड़ उमर के आदमी उसकी तरफ दौड़े–दौड़े आए, वह डर गया, पर हिम्मत करके फौरन उठा। शरीर पर कई जगह आई खरोंचों की परवाह किए बिना उसने तेजी से हाथ अपनी जेब में डाला, पर वहाँ कुछ भी नहीं था।
‘‘बेटा, तेरा चाकू।’’ दूसरे आदमी ने कुछ दूरी पर गिरा उसका चाकू उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा।
उसने एक नजर दोनों आदमियों की तरफ देखा और नज़रें झुकाकर चाकू पकड़ लिया और तेजी से स्कूटर स्टार्ट करके चला गया।
भ्रष्ट आचरण को उजागर करती एक श्रेष्ठ व्यंग्य लघुकथा
शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं वही भगीरथ हूँ’ आज के भ्रष्ट माहौल पर तीखा व्यंग्य है। इसमें निर्माण से जुड़े लोभी ठेकेदारों की मनोवृत्ति को उजागर किया गया है। उनका पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि कोई बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में आ जाए तो न्यारे–वारे हो जाएं। सारा पुश्तें तर जाएँ। आजकल निर्माण के कुछ दिनों बाद ही जिस प्रकार सड़कें गड्ढो में तब्दील हो जाती हैं और पुल चरमराने लगते हैं, वह सर्वविदित है। इसमें इंजीनियरों की मुठ्ठी भी गर्म होती है। यह मिला–जुला खेल है, चरित्रहीनता का ज्वलंत उदाहरण।
इस कथा में जब एक ठेकेदार को गंगा किनारे खड़े प्राचीन साक्षात भगीरथ पुरखे तर सके थे। यह सुनकर ठेकेदार एकदम से कहता है–‘वाहवा! कितना बड़ा प्रोजेक्ट रहा होगा! अगर ऐसा प्रोजेक्ट मुझे मिल जाए तो पुरखे तो क्या पीढि़याँ तर जाएँ।’
भ्रष्टाचार पर इससे तीखा व्यंग्य और क्या हो सकता है! इस लघुकथा में व्यंग्य एक अन्तरधारा की तरह मौजूद है। यह शरद जोशी जैसे प्रतिष्ठित व्यंग्यकार के बूते की ही बात थी कि वे एक सामाजिक बुराई पर प्रहार कर उस पर अपना वक्रीय आक्रोश व्यक्त कर सके।
मैं वही भगीरथ हूँ
शरद जोशी
मेरे मोहल्ले के एक ठेकेदार महोदय अपनी माता को गंगा स्नान कराने हरिद्वार ले गए। गंगा के सामने एक धर्मशाला में ठहरे। शाम सोचा, किनारे तक टहल आएँ। वे आए और गंगा किनारे खड़े हो गए।
तभी उन्होंने देखा कि दिव्य पुरुष वहीं खड़ा एकटक गंगा को निहार रहा है। ठेकेदार महोदय उस दिव्य व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए। पास गए और पूछने लगे, ‘आपका शुभ नाम?’
‘‘मेरा नाम भगीरथ है।’’ उस दिव्य पुरुष ने कहा।
‘‘मेरे स्टाफ में ही चार भट भगीरथ है। जरा अपना विस्तार के परिचय दीजिए।’’
‘‘मैं भगीरथ हूँ, जो वर्षों पूर्व इस गंगा को यहाँ लाया था। उसे लाने के बाद ही मेरे पुरखे तर सके।
‘‘वाहवा, कितना बड़ा प्रोजेक्ट रहा होगा। अगर ऐसा प्रोजेक्ट मिल जाए तो पुरखे क्या, पीढि़याँ तर जाएँ।’’