दर्शन जोगा की लघुकथा ‘जालों वाली छत‘ वर्तमान व्यवस्था की संवेदनहीनता, कुप्रबंध एवं अमानवीयता को अभिव्यक्त करती लघुकथा है। प्रत्यक्ष रूप में यह लघुकथा वर्तमान नौकरशाही के सबसे असंवेदनशील पुर्जे ‘बाबू कल्चर‘ पर व्यंग्य कसती है। फाइलों की दुनिया से संबंधित इस संवेदनहीन वर्ग में फाइल को आगे सरकाने में जिस तरह जनकल्याण की भावना लोप हुई है, वह समूची व्यवस्था में बड़ी गिरावट की सूचक है। सरकारी मशीनरी के इस उदासीन एवं अरुचिकर व्यवहार में इसका समूचा अमानवी अमल दृष्टिगोचर होता है। इस व्यवस्था में खुद एक कर्मचारी के परिवार को कर्मचारियों की ओर से परेशान किया जाना और औरत को औरत की ओर से ही दुत्कारे जाना, इस व्यवस्था की अत्यधिक संवेदनहीनता को शिद्दत से उभारता है। औरत की विन के जवाब में औरत का यह रूखा व्यवहार कि ‘तेरी बात सुन ली मैने, हमारे पास तो ऐसे ही केस आते हैं।‘ सिद्ध करता है कि बाबू केवल बाबू है– संवेदनहीन मशीन का संवेदनहीन पुर्जा, चाहे वह औरत हो अथवा मर्द। परोक्ष में एक और तथ्य भी विदित हुआ है, वह है–
‘आदमी खानी सड़कें‘ का प्रसंग, जो भारतीय परिस्थितयों में बहुत विकराल रूप धारण कर चुका है। ड्राइविंग की बेहद लापरवाही, आवाजाही के नियमों से अनभिज्ञता और सड़कों की दयनीय हालत पता नहीं कितनी मानवीय जानों को लील कर उन पर आश्रित परिवारों को दया के पात्र बना देती है।
तकनीकी पक्ष से भी यह लघुकथा कई पक्षों से महत्त्वपूर्ण है। समूचा कथानक संवाद दर संवाद निर्मित हुआ है जो नाटकीय–संरचना के कारण निरंतर पाठक को अपने साथ जोड़कर रखता है और प्रत्येक संवाद अगले संवाद तक पहुँचने की उत्सुकता को बढ़ाता है और कथा निरंतर विकास करती हुई शिखर तक पहुँचती है। व्यवस्था के सताए हुए इंसान का दर्द इन पंक्तियों द्वारा अपने शिखर को प्राप्त होता है।
‘बापू जी, अपना भाग्य इतना ही अच्छा होता तो वह क्यों जाता सिखर दोपहर में!’
लघुकथा का शीर्षक परत-दर परत रूपक बनकर लघुकथा के समूचे थीम को प्रतिबिंबित करता है। ‘जालों वाली छत‘ एक तरफ समूचे रत की स्थिति को रूपमान करती है कि समस्या छत की नहीं बल्कि उस पर लगे अनेक प्रकार के जालों की है। लघुकथा में व्यंग्य का निशाना बना ‘बाबू कल्चर‘ वह जाला ही है जो भारतवर्ष की छत पर चिपटा हुआ है। दूसरी तरफ कुप्रबंधों से पैदा हुए संकट (सड़क–दुर्घटनाएँ इत्यादि) भी वे जाले ही हैं ;जो अच्छे भले इंसान (नायिका) को बदसूरत और दयनीय बना देते हैं। इस तरह लघुकथा थीम, संगठन, एवं शीर्षक के पक्ष से एक सशक्त लघुकथा है।
विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ‘फर्क’ मनुष्य के स्वयं को ब्रह्माण्ड में सबसे समझदार कहलाने के मिथक के भ्रम का खंडन करती है और उस की सर्वोत्तम होने की धारणा पर प्रश्नचिह्न लगाती है। स्थितियों की विडंबना यह है कि स्वयं को सबसे श्रेष्ठ कहलाने वाला यह जीव धर्मों, जातियों, रंगों, भाषाओं, क्षेत्रों, नसलों, हदों और सरहदों में इस तरह खंडित हो गया है कि उसके भीतर से ‘मनुष्य‘ होने का अहसास ही मर गया और वह भिन्न-भिन्न–लेबलों तहत अपने–अपने दायरों में सिमट कर इस तरह से संकीर्ण हो गया है कि उसे दूसरे का प्रत्येक कार्य बदनीयती से किया लगता है। मनुष्य ने मनुष्य से ही दूरी और नफरत पैदा कर ली है, जिस के परिणाम स्वरूप सीमाओं पर पक्की लकीरें खींच ली गई, पहरेदार खड़े कर दिए गए, हथियार पकड़ा दिए गए और नफरत बो दी गई। किस ने किया ? किस के लिए ? मनुष्य ने, मनुष्य के लिए।
यह रचना मनुष्य के दम्भ को एक और दृष्टि से भी उजागर करती है, मनुष्य दूसरों को मुखौटे पहन कर मिलता है। वह जो कुछ भीतर से है, बाहर से उसके बिल्कुल विपरीत व्यवहार करता है और एक लंबे अभ्यास के कारण वह इस काम में पूरी तरह परिपक्व हो गया है।
चेहरे पर मुस्कराहट और दिल में नफरत की आग का प्रतिरूप यह इंसान अपने इंसान होने के संकल्प का ही मुँह चिढ़ा रहा है।
तकनीकी दृष्टि से भी यह लघुकथा कई पक्षों से महत्त्वपूर्ण है:
1) वातावरण चित्रण
2) संवाद
3) व्यंग्य विधि
4) तुलनात्मक विधि
भारत–पाक की सरहद और ‘नो मैन्ज़ लैंड’ तथा उसके आसपास के दृश्य का बहुत कमाल का चित्रण किया गया है। रचना नैरेटर के वृतांत के साथ -साथ संवाद दर संवाद आगे बढ़ती है और प्रत्येक संवाद अपने आप में व्यंग्यबाण है, जो मनुष्य के दंभ और विरोधाभास को शिद्दत से आगे बढ़ाता है। बकरियों के झुंड के गुज़र जाने के बाद रचना का अंतिम संवाद मनुष्य की अमानुषता, दंभ, ‘समझदारी‘ पर तीक्ष्ण व्यंग्य करता है।
‘ जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।’
लघुकथा का शीर्षक ‘फर्क‘ भी मनुष्य और जानवरों के व्यवहार के तुलनात्मक परिपेक्ष्य में से अपना तर्क देता हुआ, रचना के थीम को औचित्य और तार्किकता प्रदान कर सशक्त प्रतीक के रूप में सामनें आता है।
दर्शन जोगा
जालों वाली छत
आज फिर ससुर और बहू दोनों दफ्तर पहुँचे। बुजुर्ग बेचारा पहाड़–सी मार का मारा, बड़ी उम्र और कमज़ोर सेहत के कारण दम लेने के लिए कमरे के बाहर पड़े बैंच की ओर हुआ। साँसो–साँस हुए ससुर की दशा देख बहू ने कहा, ‘आप बैठ जाओ बापूजी, मैं पता करती हूँ।‘
कमरे में दाखिल होते ही उसकी निगाह पहले की तरह ही पड़ी तीन–चार मेजों पर गई। जिस मेज पर से वे कई बार आकर मुड़ते रहे थे, उस पर आज सूखे–से बाबू की जगह भरे शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाए बैठी कागज़ों को उलट–पलट रही थी। लड़की को देखकर वह हौसले में हो गई।
‘सतिश्री ‘काल जी!‘ उसने वहाँ बैठे सभी का साझा सत्कार किया।
एक–दो ने तो टेढ़ी–सी नज़र से उसकी ओर देखा, पर जवाब किसी ने नहीं दिया। उसी मेज के पास जब वह पहुँची तो क्लर्क लड़की ने पूछा, ‘हाँ बताओ ?‘
‘बहनजी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजम था। पिछले दिनों सड़क पर जाते को कोई चीज फेंक मारी। उसके भोग की रस्म पर महकमे वाले कहते थे, जो पैसे–पूसे की मदद सरकार से मिलनी है, वह भी मिलेगी, साथमें उसकी जगह नौकरी भी मिलेगी। पर उस पर निर्भर उसके वारिसों का सर्टीफिकट लाकर दो। पटवारी से लिखाके कागज यहां भेजे हुए हैं जी, अगर हो गए हों तो देख लो जी।‘
‘क्या नाम है मृतक का ?‘ क्लर्क लड़की ने संक्षेप और रूखी भाषा में पूछा।
‘जी, सुखदेव सिंह।‘
कुछ कागजों को इधर–उधर करते हुए व एक रजिस्टर को खोल लड़की बोली, ‘कर्मजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?’
‘जी हाँ, जी हाँ, यही है।‘ वह जल्दी से बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
‘साहब के पास भीतर भेजा है केस।‘
‘पास करके जी ?‘ उसी उत्सुकता से कर्मजीत ने फिर पूछा।
‘न...अ..अभी तो अफसर के पास भेजा है, क्या पता वह उस पर क्या लिख कर भेजेगा, फिर उसी तरह कारवाई होगी।‘
‘बहन जी, अंदर जाकर आप करवा दो।‘
‘अंदर कौनसा तुम्हारे अकेले के कागज हैं, ढे़र लगा पड़ा है। और ऐसे एक–एक कागज के पीछे फिरें तो शाम तक पागल हो जाएँगे।‘
‘देख लो जी, हम भगवान के मारों को तो आपका ही आसरा है।‘ विधवा ने काँपते स्वर में विलाप–सी मिन्नत की।
‘तेरी बात सुन ली मैने, हमारे पास तो ऐसे ही केस आते हैं।‘
औरत मन–मन भारी पाँवों को मुश्किल से उठाती, अपने आपको सँभालती दीवार से पीठ लगाए बैंच पर बैठे बुज़ुर्ग ससुर के पास जा खड़ी हुई।
‘क्या बना ई ?‘ उसे देखते ही ससुर बोला।
‘बापूजी, अपना भाग्य इतना ही अच्छा होता तो वह क्यों जाता सिखर दोपहर!‘
बुज़ुर्ग को उठने के लिए कह, धुँधली आँखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों की ओर देखती, वह धीरे–धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल पड़ी।
विष्णु प्रभाकर
फर्क
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा–रेखा को देखा जाए। जो की एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है। दो थे, तो दोनों एक दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था–पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमांडर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे। इतना ही नहीं, कमांडर ने उसके कान में कहा, ‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए ? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।‘
उसने उत्तर दिया, ‘जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूं ?‘
और मन नही मन कहा, ‘मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं ? मैं इंसान हूँ, अपने–पराये में भेद करना जानता मैं हूँ। इतना विवेक मुझमें है।‘
वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहां आ पहुंचे। रोबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी–उसने उन्हें मुबारकबाद कहा। बड़ी गर्मजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले, ‘उधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।‘
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यंत विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, ‘बहुत–बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफी चाहता हूँ।‘
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुईं कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचे भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा, ‘ये आपकी हैं ?‘
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, ‘जी हाँ, जनाब, हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।‘
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