विगत चालीस पैंतालीस वर्षों से हिन्दी लघुकथा के विधा तथा रचनात्मक विकास के हमसफर रहे मुझ जैसे पाठक ,जिसकी निगाहों से कई रचनाएँ गुजरी हो ;उसके लिए श्रेष्ठ वरीयता या पसंदीदा क्रम तय करना वैसा ही दुष्कर कार्य है ;जैसे लड़ी में से आब विशेष के मोती, महकदार फूलों या खूबसूरत चेहरों में से किसी एक या दो का चयन।
अपनी इस सोच की शब्दाकार अभिव्यक्ति के साथ यक–ब–यक जो दो लघुकथाएँ स्मृति–पटल पर कौंध रही हैं उनमें से एक है विष्णु प्रभाकर की रचना ‘‘फर्क’’ और दूसरी विजयदान देथा की ‘‘दुष्टप्रकृति’’।
वस्तुत: लघुकथा क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्य–बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की कूंची और शिल्प के रंगों से तराशी गई प्रभावी अभिव्यक्ति है।
लघुकथा–रचना प्रक्रिया की उपयुर्क्त पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में दोनों लघुकथाओं पर विचार किया जाए तो जाहिर होगा कि ‘‘फर्क’’ लघुकथा भौगोलिक राजनीतिकरण के कारण पशु–पक्षियों के व्यवहार की तुलना में बदतर मानवीय चरित्र पर प्रकाश ही नहीं डालती प्रत्युत् सांकेतिक रूप में स सीमा–बांगड़ पर भी चोट करती है जो शंका के हिकारत–भाव के कारण पारस्परिक रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाती हैं।
राजस्थान के जनजीवन को अपने कथा–साहित्य में जीवंतता प्रदान करने वाले विजयदान देया ने जातीय विशेष के जन्मजात दृष्ट,तुच्छ एवं हीन प्रकृति के थोरी के माध्यम से ऐसे चरित्र को उकेरा है जो अपनी उपलब्धि या धरोहर को संयोगवश दूसरे खुशी या लाभ प्राप्त नहीं कर ले इसलिए या तो उसे गुप्त रखना चाहते हैं या मानसिक विकृति की चरम–स्थिति में नष्ट कर देना अपना धर्म। जैसे पड़ौसी की ओर जाने वाली आम की डालियों को कटवा देना या मॉरीशस के राज हीरामन की लघुकथा ‘‘दुष्ट कीड़े’’ के हब्शी की तरह बदले की भावना से पड़ौसी के फलदार पेड़ों को नष्ट करने के लिए जड़ों में जहरीले कीड़े छोड़ देना।
दोनों ही लघुकथाओं की विषय–वस्तु यद्यपि संक्षिप्त है किन्तु प्रभान्विति की दृष्टि से विराट। ‘‘देखन में छोटी लगे घाव करे गम्भीर’’ उक्ति को चरितार्थ कर विस्तृत फलक का आस्वाद तथा सोच के नए आयाम प्रदान करने वाली।
फर्क
विष्णु प्रभाकर
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है। दो थे तो दोनों एक–दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था–पत्नी थी और अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे। इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, ‘‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।’’
उसने उत्तर दिया, ‘‘जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?’’ मैं इन्सान हूँ, अपने–पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवके मुझमें है।
वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी। उसने उन्हें मुबारकबाद कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले, ‘‘इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।’’
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकार उसने कहा, ‘‘बहुत–बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर लेकिन मुझे आज ही वापिस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफी चाहता हूँ।’’
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा, ‘‘ये आपकी हैं?’’
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ जनाब। हमारी हैं। जानवर हैं फर्क करना नहीं जानते।’’
दुष्ट–प्रकृति
विजयदान देथा
एक थोरी (जाति विशेष) स्वभाव से ही बड़ा दुष्ट, तुच्छ व हीन प्रकृति का था। सीधे मुँह तो किसी से बात ही नहीं करता था। एक दफा वह खेत बो रहा था। एक राहगीर ने उससे पूछा–‘‘थोरी, क्या बो रहा है?’’ लेकिन उसने तो अपनी लत के मुताबिक वैसा ही रूखा जवाब दिया–‘‘क्यों, क्या मतलब है तुम्हें? जाओ, नहीं बताता।’’ राहगीर ने, तो भी विनम्रता के साथ कहा–‘‘कोई बात नहीं। उगेगा तब देख लूँगा!’ थोरी ने आत्म–तुष्टि के भाव से कहा, ‘‘पाबू (एक देवता विशेष) करे एक दाना भी नहीं उगे, फिर देखेगा क्या?’’