पहले मैं लघुकथाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देता था–उन्हें मैं ‘दोयम दर्ज़े का साहित्य’ मानता था, या कहूँ साहित्य मानता ही न था–बोध कथा, नीति कथा, अखबारी रिपोर्टिंग,हास्य–व्यंग्य चुटकुले की श्रेणी में उन्हें रखता था। सोचता था इनके रचनाकार ‘दोयम श्रेणी के रचनाकार’ होते हैं या रचनाकार होते ही नहीं। उनकी दृष्टि सीमित होती है, क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता और सीमित दृष्टि वाले रचनाकार ही इस क्षेत्र में जाने–अनजाने प्रवेश पा लेते हैं और इस विधा का इस्तेमाल अपनी स्वल्प सर्जनात्मक ऊर्जा के प्रवाह–प्रकटन के लिए गाहे–बगाहे करते हैं। रचनाकार द्वारा इस विधा का चुनाव ही यह घोषित कर देता है। कि रचनाकार अपनी सामर्थ्य से पूर्ण परिचित है, उसके पास सृजनात्मक ऊर्जा या दृष्टि का अभाव है–वह काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, ललित निबंध जैसे उत्तम कोटि के साहित्य की संरचना करने में असमर्थ है इसीलिए वह निराश हताश पराजित–पराभूत मन से सर्वाधिक सुगम विधा लघुकथा को चुनता है। लघुकथा का रचनाकार वह श्रद्धा, सम्मान, वह पद–प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाता जो कवि, नाटककार उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार सामान्यत: समाज में, साहित्य में, सभी जनों के बीच प्राप्त कर लेता है।
पत्र–पत्रिकाओं में मैं लघुकथाओं को अंतिम स्थिति में ही पढ़ता था। जब सब कुछ खतम हो जाता और पढ़ने को और कुछ नहीं रहता तब आधे–अधूरे मन से, बल्कि मजबूरी से विवश हो लघुकथाओं को पढ़ना शुरू करता था। उनमें कभी–कभी कुछ चमत्कृत कर देने वाली किसी–किसी की लघुकथाएँ भी होती थीं। ज्यादातर लघुकथाएँ हास्य–व्यंग्य या चुटकुले की कोटि की होती या अखबारी खबर या रिपोटिंग की कोटि की–जो जुगनू की क्षणिक रुग्ण रोशनी की तरह विस्मृति के अंधँकूप में सदा के लिए लुप्त हो जातीं। ज्यादातर लघुकथाएँ मनमानस पर कोई स्थायी भाव या टिकाऊ प्रभाव पैदा ही न कर पातीं और सहज ही विस्मृत हो जातीं। हाँ, उन्हीं में कुछ ऐसी भी लघुकथाएँ मिलतीं जिनसे अंतर उद्भासित हो उठता, चेतना झंकृत हो उठती, अंतरात्मा व्यथित–आंदोलित हो जाती और सच्ची सृजनात्कता के जीवन्त सहवास की रसोपलब्धि हो जाती। तब सोचता कि लघुकथा एक सशक्त सृंजनात्मक विधा हो सकती है–श्रेष्ठ रचनाकार के हाथों में पड़ या सृजनात्मकता के समुत्कर्ष–संप्रवाह में प्रवाहित हो लघुकथा श्रेष्ठ सृजनात्मकता की संवाहिका बन सकती है। लघुकथाओं की यदि एक ओर कटु कठोर, रुक्ष शुष्क सीमा रेखाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी मृदुल मधुर मोहन मनहर संभावनाएँ भी हैं–वे भी कविता, कहानी, ललित निबंध के निकट आ सकती हैं– उनमें भी काव्य की भाव–सघनता, आनुभूतिक तीव्रता, कहानी का सरस सार सूत्रात्मक प्रवाह, ललित निबंध का सम्मोहन व लालिल्य ऊर्जा व चैतन्य का समुत्कर्ष आ सकता है। कुछ लघुकथाओं से गुज़रते हुए मुझे अहसास हुआ, आभास मिला कि लघुकथाओं में अपार संभावनाएँ छिपी है जिसका सम्यक् शोधन–संधान, दोहन–मंथन सशक्त, प्राणवान व अनुभव सिद्ध सृजनाकार ही कर पाएगा।
तो अब जब डॉ0 सतीशराज पुष्करणा के चलते लघुकथाओं के सिद्धांत व प्रयोग में ,उसकी सर्जना–समीक्षण में रुचि गहरी होती गई है तो लघुकथाओं के प्रति मेरी आद्य आशाहीन उदासीनता आसवती–प्रकाशवती अभिरुचि में तब्दील होती जा रही है।
लघुकथाओं के मूल्यांकन–क्रम में कुछ लघुकथाओं का रसास्वादन
अपने इस प्रारम्भिक प्राक्कथन के बाद अब मैं आज की कुछ लघुकथाओं का अवलोकन–आस्वादन–मूल्यांकन करना चाहूँगा। मैं कोई पेशेवर समीक्षक–आलोचक नहीं, कोई सिद्ध सर्जक भी नहीं, कोई अधिकारिक सूत्रदाता या कोई सर्व–संप्रभुता संपन्न, सिद्धांतदाता भी नहीं। मैं तो केवल एक जिज्ञासु बौद्धिक हूँ, सत्य का संधाता, साहित्य–रस–रसिक–रसज्ञ, जीवन–रस खोजी मर्मज्ञ। जहाँ–जहाँ जीवन पाता हूँ, जीवन की ऊष्मा, जीवन का ओज, जीवन की ऊर्जा, जीवन का तप तेज, जीवन का सृजन सौंदर्य, जीवन का मोहन माधुर्य, यानी जहाँ जिधर जीवन के बहु आलोक वैभव के दर्शन होते हैं, वहाँ उधर ही सम्मोहित आकर्षित हो दौड़ पड़ता हूँ, इसलिए साहित्य और सर्जना, संगीत और साधना,शोधन और संधान मुझे प्रिय हैं, उन में मेरा मन रमता है, आनन्दित–आह्लादित होता है।
जहाँ जीवन है, जहाँ जीवन का अमित वैभव–प्रवाह है, वहीं साहित्य है, सर्जना है, संगीत है, सृष्टि है–साहित्य का महत्त्व भी उसी अनुपात से है जिस अनुपात से वहाँ जीवन तरंगित, स्पंदित, लहरायित, तरंगायित, सृजनोद्यत,प्रवहमान है। मैं साहित्य को सर्जना की दृष्टि से, जीवन को सृष्टि के रूप में देखता हूँ। यदि इस दृष्टि से साहित्य सर्जना खरी उतर गई तो निश्चय ही वह स्वागतयोग्य है, अभिनंदनीय है अन्यथा केवल शब्दों के जोड़–तोड़ या भाषा की बनावट से साहित्य का स्वर्गिक सुमन नहीं खिलता, सर्जना का अमृत मधु तैयार नहीं होता।
मैं इन लघुकथाओं को सर्जना की दृष्टि से देखूँगा–रचना की दृष्टि से स्वादित मूल्यांकित करूँगा।
खोया हुआ आदमी
रमेश बतरा
आंतरिक उद्भासन के क्षणों में हम ऐसा महसूस करने लगते हैं–कि बा सृष्टि से हमारा गहरा जुड़ाव है, अभिन्न नाता है। इस सृष्टि में किसी का दु:ख–दैन्य मेरा दु:ख–दैन्य बन जाता है, किसी का हर्ष–उल्लास मेरा हर्ष–उल्लास और इसी तरह किसी का मरण, मेरा मरण। हर जनम में मैं ही जनमता रहा हूँ और हर मरण में मैं ही मरता हूँ–यहाँ मेरे सिवाय किसी दूसरे का अस्तित्व ही कहाँ है? ‘अहंब्रह्मस्मि’, ‘सोहमस्मि’ आदि आर्ष अनुभूतियों की सारसत्ता इस रचना में समाहित हो गई है। वस्तुत: यह रचना सामान्य पाठक की समझ के परे की चीज हो जाती है और यदि पाठक गहरे में जाकर इसकी सच्चाई को समझ ले, इसकी दृष्टि को आत्मसात कर ले, इसकी रोशनी से रोशन हो जाए, इसकी आलोकदीप्ति से दीप्ति भास्वर हो जाए तब तो उसे जीवन में एक प्रकाश मिल गया, एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई। समीक्ष्य लघुकथाओं में यह रचना सर्वाधिक सूक्ष्म व गहन–गूढ़ है। आर्ष अनुभूतियों को वाणी देती हुई यह रचना औपनिषदिक आख्यान की कोटि में आ जाती है जिसका चिरन्तन महत्त्व है, जिसकी शाश्वत वस्तु व ऐसी रचना के लिए बतरा जी को मेरी हार्दिक बधाई। मेरे ख्याल से यह सर्वश्रेष्ठ रचना है।
वापसी
सुकेश साहनी
सुकेश साहनी की लघुकथा ‘वापसी’ एक बहुत सुन्दर,बहुत उत्कृष्ट रचना है। सृजनात्मक का समस्त सुषमा–सौरभ इस सर्जना में समाहित है, समाविष्ट है। ‘वापसी’ शीर्षक भी बड़ा सटीक है, बड़ा उपयुक्त–ईमानदारी की वापसी (Good Sence), चरित्र–सिद्धान्त–आदर्शों की वापसी, विवेक–वैभव की वापसी।
एक अभियंता की अतीत ईमानदारी से उसकी वर्तमान बेईमानी की तुलना की गई है–उसके दोनों रूपों–भावों की पुष्टि की गई है–इससे उत्पन्न जो अंतर्मथन, उद्वेलन, आत्म–ग्लानि है वह बड़ी सुंदरता से, साहित्यिकता से, मर्मस्पर्शता से प्रस्तुत किया गया है। आदर्श और यथार्थ के केन्द्र को, सदाचार और भ्रष्टाचार के अन्तर्द्वन्द्व को बड़ी खूबी से, बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा गया है। वर्तमान के स्खलन या पतन में अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण विवेक के उदय का, चैतन्य के विस्फोट का कारण बनता है। अतीत की विरुदावली पथभ्रष्ट मानव को पुन: मार्ग पर लाने का उपक्रम करती है–पटरी से गिरी गाड़ी फिर पटरी पर आ जाती है और वांछित दिशा में सर्व–शक्ति से दौड़ने लगती है। कभी–कभी जीवन की कोई साधारण घटना या अनुभव ही जीवन में ऐतिहासिक मोड़ Turning pointया सिद्ध होता है। जीवन का रूपान्तरण–भावान्तरण–कायाकल्प हो जाता है– Ressurrection जीवन पुन: उज्जीवित हो उठता है अपने संपूर्ण भाव–वैभव के साथ। आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन, चमत्कारित तब्दीलियाँ उपस्थित हो जाती है।
ईमानदारी के प्रत्यावर्तन की यह कहानी, सदाचरण की वापसी की यह कथा, आदर्शों के पुनरागमन व पुनर्स्थापन का यह आख्यान घोर नैराश्यांधकार में सहसा सूर्योदय की संभावना का संधान कर लेती है जिससे जीवन का दैन्य–नैराश्य, जीवन की दिग्भ्रांति और मूल्यभ्रष्टता और आशा और विश्वास आस्था व मूल्यबोध में परिवर्तित हो जाती है। यह रचना सर्वतोभावेन तृप्तिकर है, तुष्टिदायिनी है। रचना के महत् उद्देश्य की सत्पूर्ति करती यह रचना, सृजनात्मकता के स्वच्छ सौरभ–सुवास से संग्रथित यह सर्जना वस्तुत: उत्कृष्ट पदाधिकारिणी है। निश्चय ही यह प्रथम कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है ।
खोया हुआ आदमी
रमेश बतरा
वह अपनी धुन में मस्त चला जा रहा था। सहसा सड़क के बीचोंबीच भीड़ को देखकर, यह जानने की उत्सुकता होते हुए भी कि वहाँ क्या हो रहा है, वह उसे नजरअंदाज करके निकल गया।
‘‘भाई साहब...भाई साहब...! वह अभी कोई दस–बारह कदम ही आगे गया था कि भीड़ में से एक आदमी उसे पुकारने लगा।
‘‘क्या है?’’ पीछे घूमकर उसने वहीं से पूछा।
‘‘इधर आइए, यहाँ आपके मित्र की हत्या हो गई है।’’
वह परेशान–सा वापस लौट पड़ा....और याद करने लगा कि उसे पुकारनेवाला आदमी कौन है, जो उसे और उसके मित्र दोनों को जानता है। दिमाग पर काफी जोर देने के बाद भी वह केवल यही तय कर पाया कि वह उसका परिचित तो है, लेकिन यह याद नहीं आ रहा कि वह कौन है और उसकी उससे पहली, पिछली या कोई भेंट कब और किस सिलसिले में हुई थी।
भयभीत–सा वह भीड़ के पास पहुँचा तो भीड़ ने उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। वह कुछ कदम दूर से ही सामने पड़े शव को देखने लगा और मिनट–भर बाद उसे पहचानकर हँस पड़ा, ‘‘यह तो मेरा शत्रु है।’’
‘‘जरा ध्यान से देखिए।’’
‘‘शत्रु ही है!’’
‘‘शत्रु कौन?’’
‘‘कौन हो सकता है!’’ वह दुविधा में पड़ गया.....फिर मेरा तो कोई शत्रु नहीं!
‘‘आप जरा गौर से पहचानिए।’’
इस बार वह शब के नजदीक चला गया और उसे घूरते–घूरते हैरान रह गया ..यह तो वही आदमी था, जिसने पुकारा था।
उसने भीड़ में चारों ओर देखा, वह आदमी कहीं नहीं था। वह घबरा गया और घबराहट में ऐनक उतारकर फिर से शव पर झुक गया।
‘‘पहचाना?’’ किसी ने पूछा।
‘‘हूँ,’’ वह बड़बड़ाया, ‘‘पहचान लिया।’’
‘‘कौन है?’’
‘‘अंधे हो क्या....दिखाई नहीं देता?’’ उसे गुस्सा आ गया और चिल्लाते–चिल्लाते सहसा रुआंसा होकर दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया, ‘‘यह मैं हूँ....मैं ही तो हूँ...मुझे पहचानो!’’
वापसी
सुकेश साहनी
यह मात्र संयोग ही था कि आज अभियन्ता द्वारा उस पुल के मरम्मत कार्य का निरीक्षण किया जा रहा था जो बीस साल पहले खुद उसी ने अपनी देखरेख में बनवाया था। पुल पर कदम रखते ही अतीत की स्मृतियाँ उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठीं। उसे याद आया कि कैसे उन दिनों वह ईमानदारी से काम करने के लिए अपने उच्चाधिकारियों से भिड़ जाता था। निर्माण कार्यो में वह जरा भी घपला नहीं होने देता था। लेकिन अब.......उस पर उदासी छाने लगी। पुल पर समीप के गाँव के बहुत से निर्धन बच्चे इकट्ठे थे। उसकी नजर एक दस वर्षीय बालक पर पड़ी, जो टकटकी लगाए उसे ही देख रहा था।
‘‘क्या देख रहे हो?’’ अभियन्ता को वह बालक कुछ पहचाना–सा लगा।
‘‘ये पुल तुमई ने बनायो है न! मैऊँ तुम्हारी तरह बनिवो चाहतू!’’ अभियन्ता को कौतूहल से निहारते हुए बालक ने कहा।
‘‘अगर मेरे जैसा बनना है तो खूब पढ़ो, लिखो।’’ कहते–कहते वो गम्भीर हो गया। उसे उस बालक की आँखों में अपने बेटे की झलक दिखाई दी।
‘‘मैं जरूर पढि़बे जाऊँगो, तुमारी तरह जरूर बनूँगो।’’ इतना कहकर बालक तेजी से गांव की तरफ दौड़ पड़ा।
अभियन्ता की नजरें पगडण्डी पर दौड़ते जा रहे बालक का तब तक पीछा करती रहीं जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गया। कल्पनालोक में वह बालकों की एक बड़ी भीड़ को अपने सम्मुख देखने लगा। उस भीड़ में सबसे आगे उसका अपना बेटा खड़ा हुआ था। वे सब उसकी ओर देखते हुए चिल्ला रहे थे–‘‘तुमारी तरह जरूर बनेंगे।’’ लाख कोशिशों के बाद भी वह उस भीड़ से अपने बेटे को अलग नहीं कर पा रहा था। अब तक के जीवन में पहली बार उसे आत्मग्लानि हुई। क्या उसकी आत्मा संतुष्ट है? क्या वह अपने आप पर गर्व कर सकता है? क्या वह गाँव के उस भोले बालक के लिए वास्तव में आदर्श व्यक्ति है, जो ठीक उसके जैसा बनना चाहता है? उसने बहुत ठंडी साँस ली और बड़ी हसरत भरी नजरों से मजबूत पुल को देखा। एकाएक उसे खुद अपने आप से बेहद नफरत होने लगी। गुस्से से उसकी मुट्ठियाँ भिंच गई। वह लम्बे–लम्बे डग भरता हुआ उस स्थान पर पहुँच गया ;जहाँ ठेकेदार रेंलिग की चिनाई कर रहा था। उसने अपने जूते की ठोकर से अधबनी रेलिंग को गिरा दिया।
‘‘काम स्पेसिफिकेशन’’ के हिसाब से होगा!’’ उसने चिल्लाकर कहा। ठेकेदार, मिस्त्री, मजदूर सब भौचक्के उसे देखे जा रहे थे।