गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
मेरी पसंद - सुरेश शर्मा

सुरेश शर्मा
बच्चों का मन कोरे कागज जैसा होता है। उस पर जो इबारत लिखी जाती है, वह स्थायी रूप ग्रहण कर लेती है। इसलिए बालकों के सामने बड़े लोगों का व्यवहार, बातचीत, आचरण ऐसा होना चाहिए कि उनके कोमल मन पर कोई गलत संदेश ा न जाने पाए
वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘‘विष-बीज’’ यही शिक्षा देती है। इस लघुकथा में पिता अपने बच्चे के साथ खरीददारी करने एक दूकान पर जाता है। गर्मी के दिन हैं। बच्चे को प्यास लगती है। दूकान पर रखे मटके को देख कर उसकी प्यास बढ़ जाती है। वह पानी की जिद करता है। पिता पहले इशारे से मना करता है। नहीं मानने पर एक तरफ ले जाकर कहता है-‘‘यह मुसलमान की दूकान है ।’’ बस, यही भूल पिता से हो जाती है। उसे महसूस होता है कि ‘मुलायम जमीन पर बबूल और थूहर बोने का पाप मुझसे हो गया है।’’
इस प्रकार ‘‘विष-बीज’’ लघुकथा बालमनोवैज्ञानिक होने के साथ ही साम्प्रदायिक भावना के खिलाफ होने से मुझे पसन्द है।
लघुकथा विधा को समर्पित लघुकथाकारों में डा0 कमल चोपड़ा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हिन्दी में कहावत है-‘‘नेकी कर कुएँ में डाल।’’ लगभग इसी आशय को स्पष्ट करती डा0 कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘‘खू-खाता’’ कन्या के गरीब पिता के दुख-सुख को व्यक्त करती है। डा0 कमल चोपड़ा का दर्द देखें-‘‘लड़की का बाप होना, ऊपर से गरीब होना, कितनी बड़ी लानत है।’’ बेटी की शादी नजदीक है। खर्च का इन्तजाम नहीं हो पा रहा। तभी माँ मर गई। उनकी एक आँख में आँसू हैं, दूसरी में खुशी की चमक है। क्योंकि अब शादी की तारीख बढ़ जाएगी और रुपयों का इन्तजाम करने के लिए समय मिल जाएगा। लेकिन शादी की तारीख आगे बढ़ने की बजाय लड़के का पिता कहता है-‘‘ शादी उसी तारीख पर होगी। मैं सात-आठ आदमियों की बारात लेकर आऊँगा और सादे तरीके से हम लड़की ब्याह कर ले जाएँगे।’’ बेटी का बाप सोचता है-‘‘माँ ने मर कर कितनी बड़ी परेशानी से बचा लिया है।’’
इस प्रकार यह लघुकथा ‘‘खू-खाता’’ जहाँ एक ओर बेटी के गरीब बाप की त्रासदी को दर्शाती है, वहीं दूसरी ओर लड़के के पिता द्वारा ऐसे लड़के के पिता के मुँह पर तमाचा भी जमाती है जो रि’तों की मधुरता, स्नेह,मान-सम्मान को ठोकर मार कर दहेज को महत्त्व देते हैं। इसीलिए यह मेरी पसन्द की लघुकथा है।

विष-बीज
सूर्यकांत नागर

डोनेशन और झूठा बर्थ-सर्टिफिकेट देने के बाद नन्हें संदीप को स्कूल में दाखिला मिल गया। अगले दिन डेªस और बस्ता दिलाने के लिए मैं उसे बाजार ले गया। दुकान के कुछ ग्राहक पहले से मौजूद थे और दुकानदार उनसे उलझा हुआ था। गर्मी कुछ अधिक ही थी। दुकान का पंखा मरी-मरी हवा फेंक रहा था। कुछ देर बाद संदीप ने कहा, ‘‘पापा, बहुत प्यास लगी है। पानी पिलवा दीजिए न।’’ खरीददारी करते समय दुकानदार से पानी माँगकर पिलवाने का पिछला अनुभव साथ था। मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
‘‘पापा, सचमुच बहुत प्यास लगी है।’’ दुकान के कोने में पड़े साफ-साफ मटके और ग्लास को देखते हुए उसने फिर जिद की।
मैंने फिर अनसुना कर दिया उसने माँग दुहराई तो सावधानी से इधर-उधर देखते हुए मैं अपना मुँह के पास ले गया और धीमें से कहा, ‘‘जैसे मैं कोई रहस्य और महत्त्व की बात बता रहा हूँ, ‘‘यह मुसलमान की दुकान है।’’
मैंने सोचा था, सुनकर वह चौंकेगा और धर्म भ्रष्ट होने जैसी किसी बात का ख्याल कर अपना विचार त्याग देगा। मगर मैंने देखा, उसका चेहरा सपाट था। मेरी बात का उस पर कोई असर नहीं हुआ था। एक क्षण रुककर उसने पूछा, ‘‘पापा, यह मुसलमान क्या होता है?’’
मैं बगलें झाँकने लगा। भय था कि दुकानदार ने यह सुन न लिया हो। मुझे चुप देख संदीप ने फिर पूछा, ‘‘मुसलमान की दुकान का पानी पीने से क्या होता है पापा?’’
मैंने बेटे के मुँह पर हाथ धर लिया और खींचकर जल्दी से बाहर ले आया। लग रहा था, मुलायम जमीन पर बबूल और थूहर बो दिए जाने का पाप मुझसे हो गया है।

खू-खाता
डा0 कमल चोपड़ा

तारीख पक्की करते समय सोचा था कि अभी दो ढाई महीने कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं से इन्तजाम हो जाएगा....पर क्या पता था क इसके उसके पाँव चाटने पर भी अगला पसीजता ही नहीं और अपनी मजबूरी पहले आगे रख देता है। अब वो भद्द उड़ेगी कि....दुनिया देखेगी सिर्फ आठ दिन रह गए हैं और इधर पैसों का कोई इन्तजाम नहीं है...।
लड़की का बाप होना और ऊपर से गरीब होना, कितनी बड़ी लानत है।
शिवचरणजी परेशान थे कि बाकी सब तैयारियाँ हो चुकी हैं। दो-तीन सौ आदमियों की रोटी के इन्तजाम के लिए कहीं से उधार मिल जाता तो बेटी राजी-खुशी विदा हो जाती...। उनकी भूख-प्यास-नींद सब उड़ चुकी थीं और सिर्फ चिंता यह थी कि क्या किया जाए? क्या होगा?
उसी दिन अचानक शाम को शिवचरणजी की माँ मर गई। ‘‘भगवान क्या परीक्षा ले रहे हो? बेटी की शादी के ऐन वक्त पर माँ की मृत्यु...। माँ ने भी अभी मर कर रंग में भंग डालना था। पाँच-सात सौ रुपए का और अनिवार्य खर्चा.....।’’
लड़के वालों, को भी इस हादसे का पता चला, तो लड़के पिता भी शव-यात्रा में शरीक होने आएँ। सभी को रोता-बिलखता देख वे भी थोड़ा भावुक हो उठे।
शिवचरणजी रोते-रोते अचानक थोड़ा अन्दर-ही-अन्दर मुस्कुराए कि चलो माँ के मरने का अच्छा बहाना है, अब शादी की तारीख आगे डाली जा सकती है और तब कि कुछ-न-कुछ इन्तजाम हो ही जाएगा....।
समधी जी लौटने लगे तो बोले, ‘‘भाई शिवचरणजी!......ऊपर वाला जो करता है, उसका रहस्य हम क्या समझेंगे?’’
इसमें क्या समझना? रंग में भंग तो डाल दिया भगवान ने....अब बेटी की शादी कैसे कर पाऊँगा! करूँगा भी तो लोग क्या कहेंगे। अब तो आगे की कोई तारीख गिनवानी पड़ेगी।
‘नहीं भाई शिवचरण ! जो होना था, वो नुकसान तो पूरा क्या होगा? अब ये है कि शादी उसी तारीख पर होगी....मैं सिर्फ सात-आठ आदमियों की बारात ले कर आऊँगा और सादे तरीके से हम लड़की ब्याह कर ले जाएँगे.....’’
और सभी कुछ इतनी आसानी से निबट जाएगा, शिवचरण ने सपने में भी नहीं सोचा था।
माँ ने स्वयं मर कर कितनी बड़ी परेशानी से बचा लिया। शिवचरण “माँ.....माँ........’’ कर के रो रहे थे।
‘‘माँ.....माँ.....। तुम्हारा कर्ज.....मूल-ब्याज सब डूब ही जाना होता है, तो.....जानते हुए भी कोई माँ मरते दम तक और कर्ज देना बंद क्यों नहीं करती......?’’

 

 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above