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मेरी पसंद - जीतेन्द्र ‘जीतू’
जीतेन्द्र ‘जीतू’

लघुकथा के आधुनिक काल में लघुकथा के लेखन में जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं व स्वागत योग्य हैं । ये बदलाव सोच के संदर्भ में भी हैं और परिपक्वता के संदर्भ में भी। लघुकथा के विषय भी बदलाव के संकेत दे रहे हैं तथा ट्रीटमेंट भी आला दर्जे के हो गये हैं । जिस समय लघुकथा को विधा के तौर पर स्वीकृत कराने के लिए विचार/संघर्ष/मंथन चल रहा था तब भी शीर्ष लघुकथाकार अपने–अपने संघर्ष, अपने–अपने स्तरों से अपने–अपने शहरों में बैठे कर रहे थे और स्वीकृति के प्रयत्नों के साथ–साथ रचनात्मक कोशिश भी जारी रखे हुए थे । तत्कालीन लेखन को खंगालने से ज्ञात होता है कि य एक सामूहिक प्रयास था जिसके फलस्वरूप यह एक बेहतरीन विधा के तौर पर स्वीकृत हुई और स्वीकृत ही नहीं हुई, बाकायदा चर्चित भी हुई ।
इस बेहतरीन विधा को चर्चा में लाने का श्रेय अनेक तत्कालीन/समकालीन लघुकथाओं को जाता है । यदि फेहरिस्त बनाई जाये तो बहुत लम्बी बैठेगी । लघुकथा ही नहीं, किसी भी रचना के मामले में सबकी पसंद में भिन्नता होती है । लेकिन इस बात से सभी सहमत होंगे कि सशक्त रचना अच्छी ही होती है और सभी को पसंद होती है ।
रमेश बतरा की ‘नागरिक’ सुकेश साहनी की ‘कम्प्यूटर’, बलराम की ‘बहू का सवाल’, कमल चोपड़ा की ऊंचाइयां, महेश दर्पण की ‘कोठा संवाद’, सुभाष नीरव की ‘बीमार’ श्याम सुंदर दीप्ति की ‘हद’, सतीश राज पुष्करणा की ‘मन के सांप’, संजीव की ‘दुविधाग्रस्त’ कुलदीप जैन की ‘शोषण मुक्ति’, विष्णु प्रभाकर की ‘फर्क’, राजेन्द्र यादव की ‘अपने पार’, सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई’, रामयतन प्रसाद यादव की ‘मां’, डा.सतीश दुबे की ‘नॉन लिविंग थिंग’, भगवती प्रसाद द्विवेदी की ‘विस्थापित’, मालती बसंत की ‘दीवाली’, चैतन्य त्रिवेदी की ‘खुलता बंद घर’, पूरन मुदगल की ‘पहला झूठ’, राम कुमार घोटड़ की ‘पैंट की सिलाई’, विद्यालाल की ‘सहोदर’, चित्रा मुद्गल की ‘पहचान’, शकुन्तला किरण की ‘सुहाग व्रत’ वे रचनाएं हैं जो निसंदेह सबकी पसंद हो सकती हैं । और हैं भी । इनके अतिरिक्त अश्विनी कुमार आलेाक, शिव अवतार पाल, सुमित बाजपेई, अनिता रश्मि, श्याम सुंदर अग्रवाल, असगर वजाहत, जसबीर चावला, अशोक भाटिया, विष्णु नागर, विक्रम सोनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, राजेन्द्र साहिल आदि वरिष्ठ और नये रचनाकारों की अनेक लघुकथाओं को मैं व्यक्तिगत रूप से कभी भी उपेक्षित नहीं कर सकता । मैं जानता हूं कि अनेक नये और प्रतिष्ठित नाम मुझसे छूटे जा रहे हैं लेकिन न तो मेरी और न ही किसी अन्य की इस प्रकार की कोई सूची अन्तिम हो सकती है और न वह सर्वमान्य होगी । मैं तो इन लघुकथाओं में से अपनी पसंद की दो लघुकथाओं की चर्चा करना चाहूंगा जो वैचारिक धरातल पर मुझे अंदर तक झकझोरती हैं । ये लघुकथाएँ हैं– कसौटी (सुकेश साहनी) और ‘मैं वही भगीरथ हूँ ‘ (शरद जोशी) ।
सुकेश साहनी की लघुकथा ‘कसौटी’ लघुकथा की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है । शिल्प की दृष्टि से यह एक बेजोड़ रचना है । इसका तात्विक सौन्दर्य बोध उच्च कोटि का है । लघुकथा के पात्र सारी मानुष जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं । इसका कथानक वर्तमान समाज को प्रतिबिम्बित करता है । देशकाल वर्तमान परिवेश के अनुकूल है । लघुकथा की शैली संवादात्मक, विवरणात्मक हैं । उद्देश्य उच्च स्तर का है और आज के ग्लोबलाइजेशन के दौर को अपनी दानवी छवि के साथ अभिव्यक्त करता है । लघुकथा क्या है तकनीकी, संयमी और मौजूदा काल की प्रचलित हिंगलिश भाषा, जो पात्रों के सर्वथा अनुकूल है, की बेहतरीन प्रस्तुति है ।
जहां तक ‘मैं वही भगीरथ हूँ ’ का प्रश्न है, इसके रचयिता शरद जोशी व्यंग्य के तिलमिला देने वाले कथानकों के लिए सुविख्यात हैं । मेरे इस प्रिय लेखक की यह रचना व्यंग्य की सभी हदों को तोड़ते हुए एक ऐसे अंत पर जाकर समाप्त होती है जिसके पार कुछ नहीं है । अंत ही अंत है । ऐसा अंत, जहां पर भ्रष्टाचार जैसे महाअसुर की दानवी आवाजें/चीखें ही सुनाई देती हैं, और कुछ नहीं । संक्षिप्त सा कथानक लिए लिए मात्र दो पात्रों को साथ लेकर चलती यह लघुकथा संवादात्मक षैली में है और अंत होते–होते पाठक की बौद्धिक चेतना में मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न करने के उद्देश्य के साथ समाप्त होती है । समाज का राजनैतिक और सामाजिक धरातल लघुकथा की मूल संवेदना है । दोनों ही लघुकथाओं में समाज पर बेहतरीन कटाक्ष किया गया है ।

लघुकथा – कसौटी: सुकेश साहनी
खुशी के मारे उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। साइबर कैफे से बाहर आते ही उसने घर का नम्बर मिलाया।
‘‘पापा!...’’ उससे बोला नहीं गया।
‘‘हमारी बेटी ने किला फतेह कर लिया! है न?’’
‘‘हाँ, पापा!’’ वह चहकी, ‘‘मैंने मुख्य परीक्षा पास कर ली है। मेरिट में दूसरे नम्बर पर हूँ !’’
‘‘शाबाश! मुझे पता था... हमारी बेटी है ही लाखों में एक!’’
‘‘पापा, पंद्रह मिनट के ब्रेक के बाद एक माइनर पर्सनॉलिटी टेस्ट और होना है। उसके फौरन बाद हमें अपाइंटमेंट लेटर दे दिए जाएंगे। मम्मी को फोन देना...’’
‘‘इस टेस्ट में भी हमारी बेटी अव्वल रहेगी। तुम्हारी मम्मी सब्जी लेने गई है। आते ही बात कराता हूँ। आल द बेस्ट, बेटा!’’
उसकी आँखें भर आईं। पापा की छोटी–सी नौकरी थी, लेकिन उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर अपनी दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवाई थी। मम्मी–पापा की आँखों में तैरते सपनों को हकीकत में बदलने का अवसर आ गया था। बहुराष्ट्रीय कम्पनी में एग्ज़ीक्यूटिव आफिसर के लिए उसने आवेदन किया था। आज आनलाइन परीक्षा उसने मेरिट में पोजीशन के साथ पास कर ली थी।
दूसरे टेस्ट का समय हो रहा था। उसने कैफे में प्रवेश किया। कम्प्यूटर में रजिस्ट्रेशन नम्बर फीड करते ही जो पेज खुला, उसमें सबसे ऊपर नीले रंग में लिखा था–‘‘वेलकम–मिस सुनन्दा!’’ नीचे प्रश्न दिए हुए थे, जिनके आगे अंकित ‘यस’ अथवा ‘नो’ को उसे ‘टिक’ करना था...
विवाहित हैं? इससे पहले कहीं नौकरी की है? बॉस के साथ एक सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही हैं? बॉस के मित्रों को ‘ड्रिंक’ सर्व किया है? एक से अधिक मेल फ़्रेंड्स के साथ डेटिंग पर गई हैं? किसी सीनियर फ़्रेंड के साथ अपना बैडरूम शेअर किया है? पब्लिक प्लेस में अपने फ़्रेंड को ‘किस’ किया है? नेट स‍र्फ़िंग करती हैं? पार्न साइट्स देखती हैं? चैटिंग करती हैं? एडल्ट हॉट रूम्स में जाती हैं? साइबर फ़्रेंडस के साथ अपनी सीक्रेट फाइल्स शेअर करती हैं? चैटिंग के दौरान किसी फ़्रेंड के कहने पर खुद को वेब कैमरे के सामने एक्सपोज़ किया है?.....
सवालों के जवाब देते हुए उसके कान गर्म हो गए और चेहरा तमतमाने लगा। कैसे ऊटपटांग और वाहियात सवाल पूछ रहे हैं? अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया–बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, विश्व के सभी देशों की सभ्यता एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर क्वेश्चन फ़्रेम किए गए होंगे।
सभी प्रश्नों के जवाब ‘टिक’ कर उसने पेज को रिजल्ट के लिए ‘सबमिट’ कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद स्क्रीन पर रिजल्ट देखकर उसके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। सारी खुशी काफूर हो गई। ऐसा कैसे हो सकता है? पिछले पेज पर जाकर उसने सभी जवाब चेक किए, फिर ‘सबमिट’ किया। स्क्रीन पर लाल रंग में चमक रहे बड़े–बड़े शब्द उसे मुँह चिढ़ा रहे थे– ‘सॉरी सुनन्दा! यू हैव नॉट क्वालिफाइड। यू आर नाइंटी फाइव परसेंट प्युअर (pure)। वी रिक्वाअर एटलीस्ट फोर्टी परसेंट नॉटी (naughty )।’

लघुकथा – मैं वही भगीरथ हूँ: शरद जोशी
मेरे मोहल्ले के एक ठेकेदार महोदय अपनी माता को गंगा स्नान कराने हरिद्वार ले गए। गंगा के सामने एक धर्मशाला में ठहरे। शाम सोचा, किनारे तक टहल आएँ। वे आए और गंगा किनारे खड़े हो गए।
तभी उन्होंने देखा कि दिव्य पुरुष वहीं खड़ा एकटक गंगा को निहार रहा है। ठेकेदार महोदय उस दिव्य व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए। पास गए और पूछने लगे, ‘आपका शुभ नाम?’
‘‘मेरा नाम भगीरथ है।’’ उस दिव्य पुरुष ने कहा।
‘‘मेरे स्टाफ में ही चार भट भगीरथ है। जरा अपना विस्तार के परिचय दीजिए।’’
‘‘मैं भगीरथ हूँ, जो वर्षों पूर्व इस गंगा को यहाँ लाया था। उसे लाने के बाद ही मेरे पुरखे तर सके।
‘‘वाहवा, कितना बड़ा प्रोजेक्ट रहा होगा। अगर ऐसा प्रोजेक्ट मिल जाए तो पुरखे क्या, पीढि़याँ तर जाएँ।’’

 

 
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