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मेरी पसंद - सुरेश यादव
सुरेश यादव

समकालीन लघुकथा अपने महत्त्व को इसलिए प्राप्त कर सकी है ; क्योंकि महत्त्वपूर्ण कथाकारों ने जो सशक्त लघुकथाएँ पाठकों के सामने रखीं ,उनमें समसामयिक सवाल शाश्वत प्रश्नों के साथ उभर कर सामने आए हैं। ‘लघु’ रूप होना जहाँ लघुकथा की शक्ति है, उसकी चुनौती भी वास्तव में यही है। एक चुनौती शिल्प के स्तर पर भी है जहाँ बड़ी संख्या में आलोचक और रचनाकार दोनों ही कहानी और लघुकथा के बीच फर्क नहीं कर पा रहे हैं। आकार छोटा होने मात्र से कोई भी कहानी लघुकथा नहीं हो सकती है। लघुकथा अपनी संवेदना को पूरी कथा के साथ कहानी से अलग शिल्प में जहाँ–जहाँ कह पाने में सक्षम हुई है, लघुकथा की पहचान रेखांकित हुई है। कई रचनाकारों ने, लघुकथा को चुटकुले में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो कइयों ने अतिरेक से उसे भर दिया। सच तो यह है कि किसी भी लेखक को यह अधिकार नहीं है कि जो बुराई वास्तव में है ,उसे और बड़ा करके मीडिया वाला काम करे। उसे तो अपने लेखकीय दायित्व का निर्वहन करना है और अपने शिल्प का कौशल भी दिखाना है। कहानी से अलग पहचान भी देनी है और कथा को साथ लेकर चलना है। कम से कम शब्दों में बात कहनी है और बात अधूरी न रहे यह भी ध्यान रखना है। इस समय मेरे मन मस्तिष्क में कुछ लघुकथाएँ कौंध रहीं हैं उनका नाम लेना चाहूँगा– फर्क (विष्णु प्रभाकर), जात (हरि शंकर परसाई), वीरता (असगर वजाहत), अपनी ही मूर्ति (राजेन्द्र यादव), चौथा बंदर (शरद जोषी), महत्वाकांक्षा (खलील जिब्रान), संतू (श्यामसुंदर अग्रवाल), कबूतरी (राम कुमार आत्रेय), कसौटी (सुकेश साहनी), कपों की कहानी (अशोक भाटिया) जहर की जड़े (बलराम अग्रवाल), बहू का सवाल (बलराम) खू–खाता (कमल चोपड़ा), भूकंप (करमजीत सिंह नडाला), ऊँचाई (रामेश्वर काम्बोज हिमांशु), खाते बोलते हैं (अशोक वर्मा‍), बीमार (सुभाष ‘नीरव’)।
यहाँ मैंने उन्हीं लघुकथाओं का जिक्र किया है जिन्हें मैं लघुकथा के पैमाने पर सही माना है। जो लघुकथाएँ कहानी की संरचना से अलग नहीं हो सकीं और विवरण के विस्तार को नहीं छोड़ सकीं; मैं उन्हें लघुकथाएँ नहीं मानता हूँ।
यहाँ मैं दो लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूँगा– सुभाष ‘नीरव’ की ‘बीमार’ और बलराम की ‘बहू का सवाल‘। बीमार लघुकथा में बाल मानसिकता का गहरा मनोवैज्ञानिक रूप सामने आया है। छोटी बच्ची जब ‘ए फार ,एपल’ पढ़ते हुए एपल यानी सेब खाने की चाह पाल लेती है तो फिर बीमार पड़ने का बेसब्री से इंतजार भी उसे सहज लगता है। यहाँ लघुकथा अपने मर्म की ऊँचाई पर इसलिए पहुँचती है कि अभावग्रस्त जीवन और विवशताओं का संघर्ष बहुत कम शब्दों में गहराई से व्यक्त हुआ है। रचना कौशल यह कि लघुकथाकार न विस्तार के लालच में पड़ा और न लघुकथा के सामर्थ्य और उसकी सीमाओं को भूला। लघुकथा प्रभाव के उत्कर्ष पर इसलिए भी पहुँची है कि गरीबी की लड़ाई बाल मनोभावों से टकराकर एक परिवार के संघर्ष को कितनी सफलता के साथ रेखांकित कर जाती है।
दूसरी लघुकथा ‘बहू का सवाल‘ बलराम की है जो एक झटके के साथ नारी चेतना और उसकी शक्ति को ऐसा हथियार उपलब्ध करा देती है कि वह अपनी दासता से मुक्त होने की स्थिति में पहुँच जाती है। यहाँ लघुकथाकार का कौशल यह कि सही वक्त पर सही चोट कर संवेदनात्मक ऊँचाई देने में सफल होता है जब बहू उल्टा सवाल कर परिवार की बोलती बंद कर देती है और इस प्रकार नारी संघर्ष की मजबूत नींव रखती है।यहाँ इन दोनों ही लघुकथाओं में बड़ी–बड़ी कहानियाँ समाई हुई हैं और कहीं से भी लघुकथा का कलेवर विचलित नहीं हुआ है। दोनों ही लघुकथाओं में रचनाकारों ने विस्तार के मोह का संवरण किया है, लघुकथा की सामर्थ्य को समझा है और अपने समय तथा परिस्थितियों के बीच उठे सवालों के साथ रचना को जुझारू रूप में प्रस्तुत किया है। मानवीय बोध लिए ये लघुकथाएँ श्रेष्ठ लघुकथाओं की पंक्ति में आती हैं।
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बहू का सवाल
बलराम

रम्मू काका काफी देर से घर लौटे तो काकी ने जरा तेज आवाज से पूछा, ‘कहाँ चलेगे रहब, तुमका घर कैरिक तनकब चिन्ता–फिकिर नाई रहति हय।’ तो कोट की जेब से हाथ निकालते हुए रम्मू काका ने विलंब का कारण बताया, ‘जरा ज्योतिशीजी के घर लग चलेगे रहन, बहु के बारे मा पूछयं का रहय।‘
रम्मू काका का जवाब सुनकर काकी का चेहरा खिल उठा, सूरज निकल आने पर खिल गये सूरजमुखी के फूल की तरह। तब आशा भरे स्वर में काकी ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, ‘का बताओं हईनिं ?‘
चारपाई पर बैठते हुर रम्मू काका ने कंपुआइन भाभी को भी अपने पास बुला लिया और बड़े धीरज से समझाते हुए उनहें बताया, ‘शादी के बाद आठ साल लग तुम्हरी कोखि पर शनीचर देवता क्यार असरू रहो, ज्योतिशीजी बतावत रहयं, हवन–पूजन कराया कयअव उई शनीचर देउता का शांत करि द्याहयं, तुम्हंयं तब आठ संतानन क्यार जोगु हय। अगले मंगल का हवन–पूजन होई। हम ज्योतिशीजी ते कहि आये हन।‘ रम्मू काका एक ही साँस में सारी बात कह गये।
कंपुआइन भाभी और भइया चार दिन की छुट्टी पर कानपुर से गाँव आये थे ओर सोमवार को उन्हें कानपुर पहुँच जाना था। रम्मू काका की बात काटते हुए कंपुआइन भाभी ने कहा, ‘हमने बड़े–बड़े डाक्टरों से चेकप करवाया है और मैं कभी भी माँ नहीं बन सकूँगी।‘

कंपुआइन भाभी का जवाब सुनकर रम्मू काका सकते में आ गये और अपेक्षाकृत तेज आवाज में बोले, ‘तब फिरि हमें साल बबुआ केरि दूसरि शादी करि देवे। अबहिन ओखेरि उमर हये का हय।’
रम्मू काका की यह बात सुनते ही कंपुआइन भाभी को क्रोध आ गया तो उन्होंने सच्ची बात उगल दी, ‘कमी मेरी कोख में नहीं, आपके बबुआ के शरीर में है। मैं माँ बन सकती हूँ, पर वे बाप नहीं बन सकते। और अब, यह जानने के बाद आप क्या मुझे दूसरी शादी करने की अनुमति दे सकते हैं ?’
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बीमार
सुभाष नीरव

“चलो, पढ़ो।”
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल... आ से आम...” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?”
“यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !”
“पापा, हम भी अनाल खायेंगे...” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।“
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए।
“बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...”
“पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...”
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”
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