लघुकथा पूर्णत: बौद्धिक लेखन है, जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया जाता है। लघुकथाओं में जीवन के किसी गूढ़ अन्तर्वर्तीय सत्य ,संदेश, विचार, या अनुभूति को छोटी–सी साधारण प्रतीत होने वाली कथा में स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत किया जाता है। लघुकथाओं में जीवन के अमर संदेशों को प्रकट करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि लघुकथा लिखने में अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा चाहे अतिरिक्त कुशलता की हो, अतिरिक्त कौशलपूर्ण शिल्प गढ़ सकने की हो, या अतिरिक्त संवेदनशीलता की हो। यह आवश्यक नहीं कि लघुकथाओं में जीवन के अन्तर्विरोधों, विसंगतियों और कुरूपताओं का ही चित्रण हो ; बल्कि जीवन में ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ की अवधारणा हमारे समक्ष आए–उसका भी चित्रण आवश्यक है–(ऐसी लघुकथाएँ मुझे सदैव प्रभावित करती रही हैं, यही मेरी पसंद भी है।) यही अवधारणा कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि विधाओं में भी आती है। लघुकथा इन विधाओं से केवल आकार में छोटी होती है।
हिन्दी लघुकथा की यात्रा माधवराव सप्रे की लघुकथा–‘‘एक टोकरी भर मिट्टी’’ से प्रारंभ होती है। इस यात्रा में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर,’ रावी, विष्णु प्रभाकर, राजेन्द्र यादव, असगर वज़ाहत, संजीव, चित्रा मुद्गल, बलराम, मनीष राय, उदय प्रकाश, जगदीश कश्यप, सुकेश साहनी, रूपसिंह चंदेल, शशांक, सूर्यकांत नागर, राजकुमार गौतम, महेश दर्पण, रमेश बत्तरा, भगीरथ, कुलदीप जैन, डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी, सतीशराज पुष्करणा, अशोक भाटिया, एन.उन्नी, कमलेश भारतीय, कमल चोपड़ा, सतीश राठी, विक्रम सोनी, जसवीर चावला, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ बलराम अग्रवाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, श्याम सुंदर अग्रवाल, शंकर पुणतांबेकर, सुभाष नीरव, मालचंद्र तिवाड़ी, रघुनंदन त्रिवेदी, के साथ–साथ सैकड़ों लघुकथाकार– सहयात्री बने, जिन्होंने अपनी रचनात्मकता और लेखकीय गंभीरता से लघुकथाएँ लिखीं ।ऐसी लघुकथाएँ ही मेरी पसंद हैं।
लघुकथा की इस यात्रा में सारिका, मिनीयुग, लघुआघात, दिशा, प्रयास, क्षितिज, वर्तमान जनगाथा, शुभ तारिका, वीणा, हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाबिंब, कथाक्रम आदि सैकड़ों पत्रिकाएं लघुकथा की यात्रा में सहयात्री बनीं। सैकड़ों एकल एवं संपादित संकलनों ने भी अपनी –अपनी भागीदारी से लघुकथा को आसमान–सी ऊँचाई प्रदान की।
मेरी पसंद की लघुकथा वह हैं, जो मनुष्य की प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों बदल दे, क्योंकि मेरा मानना है कि अच्छी लघुकथाएँ बेहतर दुनिया और बेहतर मूल्यों को तलाश करती हैं। ये मेरा अपना दृष्टिकोण एवं मेरी रुचि हैं। ये आवश्यक नहीं कि वह दृष्टिकोण और रुचि सबसे मेल खाए। ऐसी लघुकथाएँ एक, दो, तीन या चार ही नहीं वरन् कई–कई हो सकती हैं, जो मेरी पसंद बनती हैं और इन लघुकथाओं में लघुकथा विधा की शक्ति और ऊर्जा देखी जा सकती है–फर्क (विष्णु प्रभाकर), हनीमून (राजेन्द्र यादव), वजह (सुरेश उनियाल), आग के बारे में एक कहानी (शशांक), खेल (कमल चोपड़ा), आदमी और आदमी (महेश दर्पण), बोहनी (चित्रा मुद्गल), पुल बोलते हैं?(कैलाश जायसवाल), धुएँ का ताजमहल(जगदीश कश्यप), आग(असगर वजा़हत), चौराहे का दीया(कमलेश भारतीय), कथा नहीं(पृथ्वीराज अरोड़ा), बहू का सवाल(बलराम), पिता,पति और पत्नी(भगीरथ), ऊँचाई(रामेश्वर काम्बोज‘हिमांशु’), आइसबर्ग(सुकेश साहनी), कमरा(सुभाष नीरव), अतिथि(सतीश दुबे), खेल(कमल चोपड़ा), आग्रह(सतीश राठी), रिश्ते(अशोक भाटिया), शहर और आदमी(बलराम अग्रवाल), जूते और कालीन(चैतन्य त्रिवेदी), प्रदूषण(सूर्यकांत नागर), बलि(मुकेश वर्मा), नई बेताल कथा(संजीव), दूसरा सच(रूप देवगुण), स्मृतियों में पिता(रघुनंदन त्रिवेदी)आदि कई–कई ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो जीवन के विभिन्न रंगों की परतें हमारे समक्ष खोलती हैं। ऐसी ही लघुकथाओं में से केवल दो श्रेष्ठ लघुकथाओं को चुनना मेरे कठिन कार्य है, फिर भी मैं चैतन्य त्रिवेदी की -‘जूते और कालीन’तथा शशांक की ‘आग के बारे में एक कहानी’ चुनूँगा।
चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा ‘जूते और कालीन’ में समाज के कमजोर तबके तथा कालीन बुनने वालों का जीवन–संघर्ष, दु:ख, हसरतें, दिखाई देती हैं; किन्तु समाज के अभिजात्य वर्ग को ऐसे लोगों का जीवन–संघर्ष, दु:ख, हसरतें दिखाई नहीं देतीं। संवेदनात्मक स्तर पर ये लोग कमजोर हैं। ये लोग कालीन की कद्र करना नहीं जानते और उसे अपने जूतों तले रौंदने में एक गर्व महसूस करते हैं। मेरी दृष्टि में यह श्रेष्ठ लघुकथा है, जो शिल्प, शैली के लिहाज से हमारे मन–मस्तिष्क को हिला कर रख देती है।
नपे तुले शब्दों के माध्यम से, सटीक भाषा और संवाद के माध्यम से, एक सम्पूर्ण कथा के माध्यम से शशांक ने अपनी लघुकथा ‘आग के बारे में एक कहानी’ में व्यक्त किया है। अब यह आग कैसी है, किसकी है? देश की, समाज की, पेट की? कितनी ब़खूबी से शशांक ने यह लघुकथा लिखी है! अद्भुत, अविस्मरणीय!
1-जूते और कालीन
–चैतन्य त्रिवेदी
‘‘जब भी वे कालीन देखतें तो कोफ़्त से भर जाते हैं। कालीन बुने जाने उन कसैले दिनों की याद में कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं।’’
‘‘क्यों भला , हमने उनका क्या बिगाड़ा है?’’
‘‘यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमबोसी के लिए बिछाया है , उसके रेशे–रेशे में पल–पल के कई अफसोस भी बुने हुए हैं , जिसे आप नहीं जानते।’’
‘‘हमने दाम चुका दिए।उसके बाद हम जो करें कालीन का।’’ उन्होंने कहा।
‘‘नहीं श्रीमान् दाम चीजों के हो सकते हैं , लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती हैं। उनके लिए हुनर भी लगता है। धैर्य लगता है। परिश्रम लगता है। दाम चुकाने बाद भी उसकी कद्र करनी होती है , हर रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर होती है।’’
‘‘आप कहना क्या चाहते है।?’’
‘‘आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशे–रेशे में नन्ही लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है। स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श , जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए। इसके कसीदे देखिए श्रीमान् , ये सुंदर–सलोने कसीदे , जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में ले चलने का मन बना देते हैं , उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाई रात–रात, मन मारा जिनके लिए। उन्हें क्या मिला मजूरी में, सिर्फ़ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गए।’’?
‘‘कुछ पैसे और ले लो यार , लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है!’’ वे बोले।
‘‘बात पैसों की नहीं है। उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों ने क्या–क्या नहीं बिछा दिया, उस पर पैर तो रख लें , लेकिन जूते नहीं रखें श्रीमान्!’’
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2-आग के बारे में एक कहानी
–शशांक
साँझ होते न होते माँ ने कहा, “बेटा, पड़ोस से आग ले आओ । चूल्हा जलाया जाए।”
मैं पड़ोस के घर में चला गया । दरवाजे खुले थे । मैं भद्भद् करते अंदर पहुँचा । चारों तरफ खामोश गहरा उजाला बिखरा हुआ था । मैं चकित होता चौके में घुसा । वहाँ भी कोई नहीं था । मैं लौटने ही वाला था कि दीवार पर हिलता हुआ धब्बा देखा । निकट गया तो पाया, अरे ! यह तो इस घर का नौकर है । मैंने उससे पूछा, तुम्हारा नाम क्या है ?
उसने हँसकर कहा, नौकर । उसकी हँसी इस कदर लिबलिबी थी कि जान ही गया, आग अब यहाँ नहीं होगी । फिर भी पूछने लगा, इस घर में आग है ?
उसने कहा, वे लोग मोटर में जल प्रपात गए हैं ।
मैंने फिर कहा, तो आग नहीं है ?
उसने कहा, उस कोठरी में कोयला और लकड़ियाँ पड़ी हैं ।
मैंने पूछा, और तुम्हारे पास है ?
अरे कहाँ ! हो तो मुझे भी देना, बीड़ी सुलगाना है । मेरी दियासलाई वे लोग ले गये हैं अपने साथ ।
आग के इंतजार में तुम मार दिए जाओगे। मैं लगभग गाते हुए बाहर आया । कतार के सभी घरों में घुस–घुसकर पूछा । सभी ने कहा, आग अब तो नहीं है । शायद बुझ गई होगी । वे चारपाइयों से उठे नहीं । एक ने तो यहाँ तक कह दिया कि आग को अब ढूँढना क्या ? आज तो ऐसी–ऐसी आग बन गई हैं कि उन्हें मजे से खीसें में धरे–धरे घूमो ।
ऐन सड़क पर आते ही एक खूबसूरत नौजवान दिखा - गबरू । मैं डर गया, मैं गबदू था । रोबदार लोगों से डर जाना तो आम बात है । डरते हुए फुसफुसाया, साहब, आपके पास आग होगी क्या ? साहब कहते हुए शर्म आ रही थी, मगर क्या करें, आदत ही ऐसी बन गई है । उसने कहा, “है तो सही मगर इस घड़ी में”- उसने घड़ी दिखलाई । खूब चमकदार और बड़ी । पहले उसने कहा, ओमेगा है। फिर जमुहाई ली । कहा, इसमे आग और पानी के खाने हैं, परंतु निकाल नहीं सकता । खोलने पर गड्डमड्ड हो जाएगा और आग बुझ जाएगी।
“मैंने पूछा, तो ऐसी आग का क्या करते हो ?”
“आग होना जरूरी है । और पानी भी । मैं आग और पानी का बारी–बारी या एक साथ उपयोग करता हूँ।”
वह चला गया । मैं थका–सा घर आकर चूल्हे के पास बैठ गया ।
माँ ने पूछा, आग नहीं मिली ?
नहीं !
आग ?
शायद किसी के पास नहीं है या कोई देना नहीं चाहता ।
माँ ने कहा, “बाप रे ! सुनते थे, आग तो बहुत है ।”
“माँ, आग क्या अब नहीं होगी ?”
माँ ने कुछ कहा नहीं । झुकी–झुकी चूल्हे की राख के नरम रोंए हटाने लगी ।
धीरे–धीरे । फिर छोटी–सी हलकी लाल रंग की चिंगारी दिखाई पड़ी । राख के बीच लेटी हुई ।
मैंने सोचा, उनके यहाँ भी आग जरूर होगी । मुझे लगा, माँ शायद धीमे–धीमे हँस रही है या सुलग रही है ।
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