गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
मेरी पसंद - गम्भीर सिंह पालनी
गम्भीर सिंह पालनी

हिन्दी की जो लघुकथाएँ मुझे प्रिय हैं, उनमें से दो लघुकथाओं पर यहाँ मैं चर्चा करूँगा। एक है सुकेश साहनी की ‘तोते’ और दूसरी है श्याम सुंदर अग्रवाल की ‘माँ का कमरा’।
ये दोनों लघुकथाएँ स्वातंयोत्तर भारतीय समाज में उपजी नई परिस्थितियों की पृष्ठभूमि लिए हुए हैं। साम्प्रदायिकता प्राय: सिर उठाने लगती है तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों के फलस्वरूप परिवार नामक संस्था न सिफर्ि बिखरी है बल्कि उसके मूल्यों का विघटन भी हुआ है। ‘तोते’ में जहाँ इस बात का कलात्मक ढंग से चित्रण किया गया है कि हमारे भीतर सोया हुआ साम्प्रदायिकता का सर्प किस प्रकार निद्रा से जागकर सिर उठाने लगता है वहाँ ‘माँ का कमरा’ में विघटन की त्रासद के शिकार पारिवारिक मूल्यों को लेखक ने अपनी कलम की स्याही से सींचा है ताकि उनकी रक्षा हो सके।
‘तोते’-तोते के प्रतीक के माध्यम से लेखक ने उन लोगों पर कटाक्ष किया है जिनका अपना कोई विवेक नहीं होता और वे रटने वाले तोते की तरफ वही बोलते हैं जो उन्हें सिखाया गया होता है।
ऐसे व्यक्ति किसी भी सम्प्रदाय में हो सकते हैं। ये लोग समाज का ही नहीं अपितु अपना भी नुकसान करते हैं और उनके कर्म की परिणति कुछ भी हो सकती है।
श्रचना के अंत में लेखक ने पाठक को सचेत करने की कोशिश की है कि किस प्रकार आम आदमी भी स्वयं के भीतर ‘तोते’ वाला भाव पैदा होता हुआ महसूस करने लगता है जो कि खतरे की घण्टी है। परोक्ष रूप में लेखक ‘तोतों’ पर व्यंग्य करता है। और उनके कारण उत्पन्न होने वाली प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्षति को रोकने के लिए सजग रहने हेतु प्रेरित करता है।
‘माँ का कमरा’-श्याम सुंदर अग्रवाल की यह रचना उन पारिवारिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहने और रक्षा करने की प्रेरणा देती है जिनका समाज में क्षरण होता चला गया है। समाज के कटु यथार्थ की फोटोग्राफी करता हुआ लेखक रचना को कला की ऊँचाई तक ले गया है।
उपेक्षित किए जा रहे बुजुर्गों पर बहुत कुछ लिखा गया है। यहाँ तक कि अपने बूढ़े माता–पिता तक का तिरस्कार किए जाने के उदाहरण बहुतायत से मिलते हैं और कुछ लोग तो उन्हें ‘ओल्ड–एज–होम’ में पहुँचाकर आने के बाद उनकी खोज–खबर तक नहीं लेते। ऐसे प्रकरण प्राय: रचनााओं में देखने को मिलते रहते हैं लेकिन ‘ माँ का कमरा’ एक ऐसे दृष्टांत पर आधारित है जो साहित्य के मापदण्डों ‘साहित्यं....शिवेतरक्षतये, कान्तासम्मत व्यवहारविदे’ पर खरी उतरती है। शिव से इतर के क्षरणऔर कान्ता सम्मत व्यवहार की प्रेरणा देने वाली ऐसी लघुकथाएँ दुर्लभ होती हैं। हिंदी का सौभाग्य है कि ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं।
1-तोते-- सुकेश साहनी
भंडारे का समय था। मंदिर में बहुत लोग इकट्ठे थे। तभी कहीं से तोता उड़ता हुआ आया और मंदिर की दीवार पर बैठकर बोला,”अल्लाह-हो-अकबर---अल्लाह-हो-अकबर---”
ऐसा लगा जैसे यहाँ भूचाल आ गया हो। लोग उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे। साधु-संतों ने अपने त्रिशूल तान लिये । यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, शहर में भगदड़ मच गई, दुकानें बंद होने लगीं, देखते ही देखते शहर की सड़कों पर वीरानी-सी छा गई।
उधर मंदिर-समर्थकों ने आव देखा न ताव, जय श्री राम बोलने वाले तोते को जवाबी हमले के लिए छोड़ दिया।
शहर आज रात-भर बन्दूक की गोलियों से गनगनाता रहा। बीच-बीच में अल्लाह-हो-अकबर और जय श्री राम के उद्घोष सुनाई दे जाते थे।
सुबह शहर के विभिन्न धर्मस्थलों के आस-पास तोतों के शव बिखरे पड़े थे। किसी की पीठ में छुरा घोंपा गया था और किसी को गोली मारी गई थी ।जिला प्रशासन के हाथ-पैर फूले हुए थे। तोतों के शवों को देखकर यह बता पाना मु्श्किल था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान, जबकि हर तरफ से एक ही सवाल दागा जा रहा था-कितने हिन्दू मरे, कितने मुसलमान” जिलाधिकारी ने युद्ध-स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया जिससे यह पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है ;परंतु तोतों की हिन्दू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई ।
हर कहीं अटकलों का बाज़ार गर्म था। किसी का कहना था कि तोते पड़ोसी दुश्मन देश के एजेंट थे, देश में अस्थिरता फैलाने के लिए भेजे गए थे। कुछ लोगों को हमदर्दी तोतों के साथ थी, उनके अनुसार तोतों को ‘टूल’ बनाया गया था। कुछ का मानना था कि तोते तंत्र-मंत्र,गंडा-ताबीज से सिद्ध ऐय्यार थे, यानी जितने मुँह उतनी बातें।
प्रिय पाठक पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं घर से बाहर निकलता हूँ, गली मुहल्ले के कुछ बच्चे मुझे “तोता!---तोता!1”---कहकर चिढ़ाने लगते हैं, जबकि मैं आप-हम जैसा ही एक नागरिक हूँ ।

-00-

2-माँ का कमरा - श्याम सुन्दर अग्रवाल

छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियाँ भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डाँटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!”
“हाँ माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।
-00-

 

 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above