मेरी पसंद की एक कहानी के बारे में मुझसे पूछा जाए तो मैं बेझिझक मुंशी प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ का नाम लूँगा। यह कहानी मैंने 7 साल की उम्र में पढ़ी थी। इसके बाद मैंने अनगिनत कहानियाँ पढ़ी हैं, लेकिन आज भी मेरी पसंद की पहली कहानी यही है। ऐसा भी नहीं है कि दो बैलों की कथा से अच्छी कहानियाँ मुझे पढ़ने को नहीं मिली। देश–विदेश की अनेकों कालजयी कहानियाँ पढ़ने को मिली लेकिन तीसरी कक्षा में पढ़ते हुए मुंशी प्रेमचंद की इस कहानी में मेरे बाल मन पर जो प्रभाव छोडा, उसी के कारण आज भी यह मेरी पहली पसंद बनी हुई है।
इसी तरह यदि मेरी पसंद की एक लघुकथा के बारे में पूछा जाए तो मुझे सोचना पड़ेगा। लघुकथाओं की ओर मेरा ध्यान बहुत बाद में गया। सन् 70–72 की बात है, मैं पॉकेट बुक्स में छह–सात उपन्यास लिख चुका था। उपन्यासकार वेद प्रकाश काम्बोज जी के कहने पर मैंने लघुकथाएँ पढ़ना शुरू किया। विदेशी लेखकों में खलील जिब्रान, काफ़्का, चेखव की छोटी रचनाओं को पढ़कर इस विधा का महत्व समझ में आया। सारिका के जरिए हिन्दी की लघुकथाएँ पढ़ने को मिलीं। मेरे प्रिय लघुकथा लेखकों की सूची बहुत लम्बी है। नामों का उल्लेख करना चाहूँ तो शायद न्याय नहीं हो पाएगा। मैंने ‘बींसवी सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ के माध्यम से अपनी पसंद की लघुकथाएँ पेपर बैक्स में पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है।
दो बैलों की कथा की तर्ज पर जिन लघुकथाओं ने समय–समय पर मुझे प्रभावित किया उनमें से दो का यहाँ अपनी पसंद के रूप में उल्लेख करना चाहूँगा। पहली–रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘धर्म–निरपेक्ष’। दूसरी–पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’। वर्षों पहले मैंने ये लघुकथाएँ पढ़ी थीं। तब तक दोनों लेखकों से मैं नहीं मिला था। इन रचनाओं का प्रभाव देर तक मेरे दिलों- दिमाग पर रहा था। यहाँ फिर स्पष्ट करना चाहूँगा कि इन लेखकों की इनसे अच्छी अनेक लघुकथाएँ बाद में पढ़ने को मिली पर तब मुझ पर पड़े प्रभाव के कारण आज भी यह ‘मेरी पसंद’ बनी हुई हैं।
‘धर्म–निरपेक्ष’ काम्बोज जी की साम्प्रदायिकता पर लिखी सशक्त लघुकथा है। देखा जाए तो विषय अति साधारण है। दंगों में इसी प्रकार की प्रतिक्रिया अकसर व्यक्त की जाती है। यहाँ लेखक का रचना -कौशल एवं लेखकीय दायित्व काबिले गौर है, जिसके कारण यह रचना महत्वपूर्ण हो जाती है। ‘आज से पहले उन्होंने एक दूसरे को देखा न था’ जैसे वाक्य दंगों की पृष्ठभूमि को बहुत बारीकी से रेखांकित करते हैं। साम्प्रदायिकता जैसे विषय पर जिस संतुलन की अपेक्षा लेखक से की जाती है ,वह यहाँ देखने को मिलती है। मानवेतर पात्र के रूप में कुत्ते का चयन वातावरण एवं कथ्य के अनुरूप है–कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और फिर ........लेखक पाठक के मन में स्वाभाविक रूप से ऐसे दंगाइयों एवं धर्मान्धता के विरुद्ध नफरत पैदा करने में सफल रहा है।
‘‘कथा नहीं’’ में पृथ्वी राज अरोड़ा ने असंवाद के चलते टूटते सयुक्त परिवारों की मनोदशा एवं विवशता को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इस लघुकथा को पढ़कर मुझे किसी मुकम्मल कृति को पढ़ने का सुख मिला था और अपने आस–पास इनसे मिलते–जुलते कई पात्र मेरी आँखों के सामने घूम गए थे। ‘वह पेशाब करके फिर बातचीत में शामिल हो गया’ जैसे वाक्य हमें पात्रों की बीमारी के बारे में बताते चलते हैं। संवादों के माध्यम से कथ्य–विकास किया गया है। रचना का अंत कुछ को अति नाटकीय लग सकता है, पर यही समापन बिंदु इस लघुकथा की ताकत भी है।बहन ,भाई से रोते हुए कहती है, ‘‘दीपक,तुम्हें माँ–बाप पर जरा भी तरस नहीं आता।’’ दीपक का चेहरा बुझते–जलते लट्टू की तरह होने लगा। दुख और आक्रोश से वह कॉंपने लगा। अगले ही क्षण उसने नकली दाँतों का सैट मेज पर रख दिया और सिसकता हुआ गुसलखाने की ओर बढ़ गया।
समापन बिंदु जहाँ पुत्र की मानसिक स्थिति को रेखांकित करता है ;वहीं छीजते पर्यावरण में मिलावट भरे खान पान के साथ जीने को अभिशप्त असमय वृद्ध होते युवाओं के दर्द को बहुत मार्मिक ढंग से पेश करता है।
1-धर्म–निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।
प्हले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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2-कथा नहीं
पृथ्वीराज अरोड़ा
वह पेशाब करके फिर बातचीत में शामिल हो गया।
दीदी ने कहा, ‘‘पिताजी को बार–बार पेशाब आने की बीमारी है, इनका इलाज क्यों नहीं करवाया?’’
उसने स्थिति को समझा। फिर सहजभाव में बोला, ‘‘मैं अलग मकान में रहता हूँ, मुझे क्या मालूम इन्हें क्या बीमारी है?’’
माँ बीच में बोली, ‘‘ तो क्या ढिंढोरा पिटवाते ?’’
उसने माँ की बात को नज़र अन्दाज करते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, अगर यह बताना नहीं चाहते थे ,तो खुद ही इलाज करवा लेते।’’ थोड़ा रुककर आगे कहा, ‘‘इन्होंने बहुत रुपये सूद पर दे रखे हैं ।पैसों की कोई–कमी नहीं इन्हें।’’
पिता चिढ़े–से बोले,‘‘जवान बेटे के होते इस उमर में डॉक्टर के पीछे–पीछे दौड़ता ?’’
अचानक हुए हमले को तल्खी में न झेलकर उसने गहरा व्यंग्य किया,‘‘आप सुबह–शाम मीलों घूमते हैं, मुझसे अधिक स्वस्थ हैं, फिर डॉक्टर के पास क्यों नहीं जा सकते थे?’’
दीदी ने चौककर देखा। आने वाली विस्फोटक स्थिति पर नियंत्रण करने की गरज से बीच में ही दखल दिया, ‘‘आखिर माँ–बाप भी अपनी संतान से कुछ उम्मीद करते ही हैं।’’
वह अपनी स्थिति को सोचकर दु:खी होकर बोला, ‘‘तुम नहीं जानती कि मेरा हाथ कितना तंग है। ठीक से खाने–पहनने लायक भी नहीं कमा पाता। तुम्हारी शादी के बाद तुम्हें एक बार भी नहीं बुला पाया।’’ आँखो के गिर्द आए पानी को छुपाने के लिए उसने खिड़की से बाहर देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा,।‘‘सूद का लालच न करके मुझे कुछ बना देते ,तो मैं इनकी सेवा के लायक न बन जाता!’’
पिताजी ने रुआँसे होकर बताया, ‘‘मेरे दो दाँत खराब हो गए थे, उन्हें निकलवाकर, नए दाँत लगवाये है, देखो !’’ उन्होने दाँत बाहर निकाल दिये।
माँ बार–बार रोने लगी, ‘‘क्या करते हो? तुम्हारा सारा जबड़ा भी बाहर निकल आये तो किसी को क्या? दाँत न रहने पर आदमी ठीक से खा नहीं पाता ?’’
दीदी भी रोने लगी, ‘‘दीपक, तुम्हें माँ–बाप पर जरा भी तरस नहीं आता।’’
दीपक का चेहरा बुझते–जलते लट्टू की तरह होने लगा। दु:ख और आक्रोश मे वह काँपने लगा। अगले ही क्षण उसने नकली दाँतो का सैट मेज पर रख दिया और सिसकता हुआ गुसलखाने की ओर बढ़ गया....।
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