मैं अपनी पसंद की बहुत- सी लघुकथाओं में से दो की चर्चा करना चाहूँगा। पहली हैं चाँद मुंगेरी की ‘ठाकुर–हँसुआ–भात’ तथा दूसरीहै जनकराज पारीक की ‘हरियल तोता’। ये लघुकथाएँ ढाई दशक पूर्व मैंने ‘पहचान’ लघुकथा संग्रह में संकलित की थीं। उस समय मुझे लगभग पाँच सौ लघुकथाएँ एकमुश्त पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था। उनमें से अधिकतर लघुकथाएँ निस्सन्देह श्रेष्ठ थीं। इसके पश्चात भी मेरी नज़रों से ऐसी कई लघुकथाएँ गुज़रीं जो अपने समय और समाज की सच्ची आवाज थीं। परन्तु 25 वर्ष पश्चात भी उक्त दोनों लघुकथाओं की मन पर छाप रह जाना मेरे तईं इनके कालजयी होनेका प्रमाण है।
‘पहचान’ का सम्पादन भी मैंने एक जि़द के तहत किया था। कई तत्कालीन नामचीन साहित्यकार लघुकथा लेखन को दोयम दर्जे का रचनाकर्म मानते थे। उनका कहना था कि लघुकथा चुटकुलेबाजी का ही परिष्कृत रूप है। अपने सहयात्री लघुकथाकारों के माध्यम से मैं यह बताना चाहता था कि लघुकथा विधा उतनी ही सक्षम है जितनी कि कोई अन्य विधा।
चाँद मुंगेरी की लघुकथा ‘ठाकुर–हँसुआ भात’ दारिद्र्यजन्य बेबसी का दारुण आख्यान है, जो पाठक को भीतर तक झकझोर देता है। कहानी संवादों के सहारे आगे बढ़ती है। संवादों का टटकापन तो अपनी जगह है ही, उनके भीतर छिपा अर्थ गाम्भीर्य जागरूक पाठक को चकित कर देता है। लघुकथा का आरम्भ होता है बच्चे द्वारा माँ से भात माँगे जाने से। जवाब में माँ कहती है, ‘‘थोड़ा बखत और रुक बबुआ। बाप गेल हौ मडुआ पिसाबे खातिर.......हुनका औवते ही तोहका रोटी बना देवौ ऽ।“‘ अर्थात घर में भात तो दूर ढंग का अनाज भी नहीं है। माँ के जवाब पर बच्चा तुनक कर कहता है, ‘‘अम्मा, आज दू दिन बाद तू हमका खिलैयेवेड़ भी तो रोटी–यू भी मडुआ की? अब जाकर हमें पता चलता है कि बच्चे ने दो दिन से कुछ नहीं खाया है। बच्चे ने नहीं खाया तो माँ–बाप ने कौन सा खाया होगा ? ये दिन इस परिवार के लिए कितने यातना पूर्ण रहे होंगे। बच्चे को भूखा देखा माँ–बाप को किस वेदना से गुजरना पडा होगा। यह सब लेखक अपनी ओर से बखान नहीं करता। पाठकों की कल्पना पर छोड देता हैं। यह कौशल ही कलात्मक संयम कहलाता है जो किसी भी लघुकथा को यादगार बना देता है। और आगे बढें।बच्चा जब जिद पर उतर आता है तो माँ खीज कर कहती है, ‘अरे, करमजला, अब ही साल भर पहने जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हूनका मरण–भोज में भात खाया कि नहीं.......बोलब’ ‘यानी परिवार को भात कब नसीब हुआ। साल भर पहले। और माँ ऐसे कह रही है मानो कल की बात हो। इस पर बच्चा पूछता है कि दूसरा ठाकुर कब मरेगा ? अब देखिए कहानी का अन्त। माँ को सुन कर बबुआ की पकड हँसुआ पर सख्त हो जाती है। अब उसके समक्ष होता है सिर्फ़ ठाकुर– हँसुआ ......भात।
चाँद मुंगेरी की यह लघुकथा कला और यथार्थ के सन्तुलन का बेजोड़ उदाहरण है। संवाद अगर आंचलिक न होते तो इस लघुकथा की मारकता आधी रह जाती। तब शायद यह रचना उल्लेखनीय भी न रहती यहाँ हर संवाद में आंचलिक शब्द मोती की तरह पिरोए गए है। जिनकी आब सीधे पाठकों के दिल में उतर जाती है।
‘हरियल तोता’ के लेखक जनकराज पारीक मूलत कहानीकार हैं। उन्होंने राजस्थानी और हिन्दी में बहुत प्यारी कहानियाँ लिखी हैं। प्यारी और कसी हुई। यदा–कदा लघुकथाएँ भी लिख लेते हैं। उनकी‘हरियल तोता’ लघुकथा में वैसी ही कसावट है, जैसी कि उनकी कहानियों में होती है। लड़का हवेली के दरवाजे पर बैठा जलेबी खा रहा है। एक भिखारिन जैसी लड़की उसके दोने को ललचाई नजरों से देखती है। लड़की के हाथ में कपड़े से बुना हरे रंग का तोता है। लड़का मचल जाता है। कि मैं हरियल तोता लूँगा। लड़की को जलेबी का प्रलोभन दिया जाता है। लड़की जलेबी तो खाना चाहती है, मगर तोता नहीं खोना चाहती। इस पर लड़के का पिता एक मासूम–सा लगने वाला षडयंत्र रचता है। इस षडयंत्र के तहत लड़की जलेबी की जूठन के एवज में अपना हरियल तोता हार जाती है। लेखक ने यहाँ जबर्दस्त कन्ट्रास्ट रचा है। एक तरफ हवेली है। महाजनी लालच, धूर्तता, काइयाँपन और सामन्ती मानसिकता की प्रतीक। दूसरीतरफ हरियल तोता हैं भारत के आम गरीबजन की खुशियों, सपनों और अरमानों का प्रतीक। हवेली येन–केन–प्रकारेण हरियल तोते को हड़पना चाहती है। यहाँ विचारधारा शिल्प में इस तरह गुम्फित है कि आरोपित नहीं लगती।
उक्त दोनों लघुकथाएँ आज के सन्दर्भ में और भी प्रासंगिक हो उठी हैं। ‘ठाकुर–हँसुआ भात’ की आदिवासी बबुआ पच्चीस वर्ष पश्चात गबरू जवान हो चुका है। अब उसके हाथ में हँसुआ नहीं हथियार है। और जो उस वक्त ठाकुर था वह आज ठेकेदार है। जंगल का दावेदार। हरियल तोता आज के प्रसंग में किसानों के हरे–भरे खेत हैं ,जिसे औ़द्योगीकरण और प्रगति के नामपर हवेली वाले’ नाना प्रकार के प्रलोभन देकर हथिया लेना चाहते हैं; बल्कि हथिया रहे हैं। क्या लघुकथाकार एक कवि की तरह भविष्यद्रष्टा नहीं होता? ये दोनों लघुकथाएँ इस सवाल का सटीक जवाब है।
ठाकुर-हंसुआ-भात
चाँद मुंगेरी
-अम्मा !भूख लगी है हमका भात देय दो अम्मा.
-थोडा वखत और रुक बबुआ.बाप गेल हौs माडुआ पिसाबे खातिर मिल...हूनका औवते ही तोहका रोटी बना दे वौs
माँ के आश्वसन भरे शब्द भी बबुआ को आश्वस्त न कर सके...वह तुनक कर बोला-रोटी!मडुआ की ? अम्मा आज दू दिन के बाद तू हमका खिलेयवेड़ भी तो रोटी-यू भी मडुआ की ?
-तब तोहका और का चाहीं खीरे पुडी ?
माँ खीज कर बोली . माँ के क्रोध को पचाकर बबुआ ने खुशामदी स्वर में कहा-अम्मा हमको भात दे दो अम्मा.बहुत जी चाहे भात खावेs ला .
-अरे करमजला अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण-भोज में भात खाया fक नहीं ....बोल ?
-हाँ! खाया रहा.!. लेकिन अम्मा का ई दूसरा ठाकुर नहीं मरेगा ?
-मरेगा कैसे? बड़का को चोर मारा रहा...हिनका कौन..मारेगा ?
माँ के प्रश्न को सुन बबुआ की पकड़ हंसुआ पर सख्त हो गई...अब उसके समक्ष था सिर्फ-
ठाकुर ...हंसुआ....भात.
ठाकुर ...हंसुआ....भात.
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हरियल तोता
जनकराज परीक
लड़का अपनी हवेली के दरवाजे पर बैठा मौज से जलेबी खा रहा था और भिखारिन- सी दिखने वाली लड़की एकटक उसके दोने पर दृष्टि गड़ाये थी.लड़की के हाथ मे कपड़े से बना तोता देख कर लड़का सह्सा मचल उठा,‘मै हरियल तोता लूंगा,मै हरियल तोत लूंगा.’आवाज सुनकर लड़के के पिता आए.पूछ-ताछ करने पर पता चला कि लड़की जलेबी तो लेना चाहती हैं पर बदले मे अपना तोता नही देना चाहती.कुछ सोच कर लड़के के पिता बोले,‘देखो भाई,जलेबी खाने के लिये तो केवल दांत, मुंह और पेट काफ़ी है लेकिन तोता रखने के लिए भीगी हुई दाल चाहिए,हरी मिर्चें चाहिए. तुम में से जो एक मुट्ठी दाल और पांच सात हरी मिर्चें बाजार से ला सके वह तोता ले ले.जो न ला सके वह जलेबी खा ले.’
‘लेकिन मेरे पास दाल और मिर्च के लिये पैसे नहीं हैं.’लडकी दीन स्वर मे बोली.
‘पैसे इस के पास भी नहीं है.’पिता ने लड़के की ओर इशारा करते हुए कहा,‘दोनों उधार लेकर आओ.’
प्रस्ताव पर सहमति प्रकट कर दोनों बाजार की ओर चल दिए ।लड़की के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उधार के नाम पर उसे तो किसी ने दुकान के चबूतरे पर पाँव भी नहीं रखने दिया और लड़के लिये गोदाम के दरवाजे खुल गये.
लिहाजा शर्त के अनुसार दोने में बची हुई जलेबी की जूठन के बदले वह अपना हरियल तोता हार कर निरापद भाव से अपने टापरे की ओर चल पड़ी.
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