हिंदी साहित्य की जिस कथात्मक रचना–विधा को लघुकथा की संज्ञा मिली है, वह उद्भिज की तरह धरती फोड़कर नहीं निकल आई है। कथा परंपरा के पृष्ठों ने ही इसे उद्भावना दी है, जिसे समय के दबाव ने अपने अनुरूप विषय–वेष्टित किया है, रूपाकार को कसा है, शिल्प को तराशा है, क्षिप्रता दी है, व्यंजकता और बेधकता दी है। अपनी नव्यता के कारण यह विधा अल्प काल में ही जन–समादृत हुई है। पिछले तीस साल में इस का उत्तरोत्तर विकास हुआ है और कथ्य के विषय में विविधता आई है।
इस विधा की लोकप्रियता को देखते हुए इसके रचनाकारों में बेशुमार वृद्धि हुई। इसका सुफल और कुफल दोनों मिला। लघुकथा की विधात्मकता की कच्ची समझ के कारण जो लेखकीय और संपादकीय दोनों तल पर चल रही थी–बहुलांश में कमजोर रचनाएँ भी आईं। कुछ प्रतिष्ठित कहानीकारों ने भी अपनी कलम इस ओर आजमाई। इसकी जो शास्त्रीय मानकता बनी, उस के दायरे में बेहतर और कमतर दोनों तरह की रचनाएँ आईं।
पिछले बीस सालों में लघुकथा की पुस्तकें अच्छी संख्या में आई हैं। एकल संग्रह के रूप में और चुनी लघुकथाओं के संकलन के रूप में भी। कुछ प्रतिबद्ध रचनाकार लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन कर बेहतर लघुकथा की खोज में जुटे हैं। इसमें कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सहयोग सराहनीय रहा है।
उपलब्ध पत्र–पत्रिकाओं और पुस्तकों में छपी लघुकथाओं को मैं अवश्य पढ़ लेता हूँ। रचनाकार अपनी समझ के अनुसार बेहतर विषयों को बेहतर तरीके से शिल्पित करने का प्रयास जरूर करता है। लेकिन रचना की परख का पाठकीय और समीक्षकीय क्राइटेरिया व्यक्ति के भावबोध की बौद्धिक क्षमता के अनुसार भिन्न होना अनिवार्य है। इसकी संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं लेखक ने ही कोई लचर विषय उठाया हो अथवा प्रस्तुति–कौशल ही दोषपूर्ण हो और लघुकथा मुकम्मल नहीं हो पाई हो। अत: रचना को लेकर लेखक और पाठक के बीच दृष्टि–भेद का भी अलग स्थान होता है। रचना का सामाजिक दायित्व तो है ही। अगर रचना पाठक को प्रभावित नहीं कर सकी, अपने में बाँध नहीं सकी, तो उसकी उपयोगिता भी संदिग्ध रह जाती है।
मैं इधर प्रकाशित दो अच्छी लघुकथाओं पर बात करूँगा। कमल चोपड़ा द्वारा संपादित ‘संरचना–2’ में रामकुमार आत्रेय की एक लघुकथा छपी है–‘बिना शीशे का चश्मा’। बहुत सीधी सरल और प्राणवंत भाषा में वातावरण को चित्रात्मक रूप दिया गया है। कथा में यथार्थ और फैंटेसी अंर्तग्रंथित है। लघुकथा का आरंभ ही व्यंग्यात्मक वातावरण से शुरू होता है। गाँधी जयंती के अवसर पर गाँधी जी की मूर्ति की खोज कबाड़खाने में की जाती है। मूर्ति तो मिल जाती है, लेकिन उसका चश्मा नहीं मिलता। चश्मे को लेकर गाँधी जी की मूर्ति और उस छोटे लड़के के कथोपकथन में समाज का एक दूसरा पटल भी उद्घाटित होता है। परिवार में वृद्धों की छोटी–छोटी आवश्यकताएँ भी किस तरह उपेक्षित रह जाती हैं, इस ओर सहज ही उँगली उठ जाती है। उपेक्षित रह जाने के कारण वृद्ध के चश्में के टूटे शीशे बदले नहीं जाते । फलत: बूढ़ा धीरे–धीरे अंधा हो जाता है। लेकिन वह बिना शीशे के उस चश्मे को लगाए रहता है। इस हास्यात्मक स्थिति के मूल में यह है कि लोगों में भ्रम बना रहे कि बूढ़ा देख रहा है। गाँधी जी की मूर्ति उस बच्चे से उसके दादा वाले बिना शीशे का वह चश्मा माँग लाने को कहती है। गाँधी जयंती के नाम पर होने वाले औपचारिक आयोजन, जो अब मात्र मौकरी बनकर रह गए हैं, इस कथ्य को विस्फुटनप मूर्ति के इस कथन के साथ होता है–‘‘अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखंडपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊँगा।’’
आयोजन की समाप्ति के बाद वह लड़का जब अपने दादा के चश्में को मूर्ति से उतारना चाहता है, तो चश्मा उतरता नहीं। अब वह मूर्ति का स्थायी हिस्सा बन चुका था। यह आज के राजनीतिज्ञों की मानसिकता पर करारी चोट हैं। कलात्मक अभिव्यंजना के कारण यह द्विमुखी लघुकथा सार्थक बन पड़ी है। वातावरण की तैयारी, शिल्प कौशल और भाषा विन्यास ने लघुकथा को मुकम्मल बना दिया है।
दूसरी लघुकथा है कुमार शर्मा ‘अनिल’ की। शीर्षक है ‘मुजरिम’। ‘कथादेश’ पत्रिका द्वारा आयोजित भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में इस कथा को प्रथम स्थान प्राप्त है। ‘अयं निज: परोवेत्ति’ की प्रवृत्त्यात्मक दुर्बलता के कारण मनुष्य अपने न्याय विवेक के प्रति दृढ़ नहीं रह पाता। किं कर्तव्य के द्वंद्व के बावजूद वह स्व के प्रति आसक्त रहता ही है। कथ्य का आधार विषय यही है, जिसके अनुसार कथा का फॉर्म और फ़्रेम तैयार किया गया है, जिसका सेटायरिक अंत किया गया है।
सरदार सुरजीत सिंह एरिस्टोक्रेटिक मानसिकता के रिटायर्ड मेजर हैं और हाजी अहमद मामूली खानसामा है। मेजर के मन में देसी के प्रति हिकारत का भाव भरा है। दो वर्गो की मानसिकता को चित्रित करने के लिए मेजर की विदेशी नस्ल की कुतिया सिल्विया और हाजी अहमद के देसी नस्ल के कुत्ते शेरू की कथा बुनी गई है। कुतिया का ऋतुकाल है। लेकिन मेजर देसी नस्ल के शेरू को सिल्विया के पास फटकने नहीं देते। वह शेरू को हड़काए रहते हैं। लाख रोक–टोक और वर्जना के बावजूद एक रात शेरू मेजर के कमरे में ही सिल्विया के साथ नद्ध हो जाता है। कुछ हरकत सुनकर मेजर जग जाते हैं और शेरू और सिल्विया को आपत्तिजनक स्थिति में देखकर क्रोधाभिभूत हो राइफल उठा लेते हैं। खतरे का आभास पाकर शेरू वहाँ से भाग निकलता है। देसी नस्ल के उस कुत्ते शेरू के इस दुस्साहसिक जुर्म से मेजर के अहंकार को चोट पहुँचती है। राइफल लिए शेरू की खोज में वह हाजी अहमद के सर्वेट क्वाटर में पहुँचते हैं। शेरू वहाँ नहीं है। पास–पड़ोस के कुछ लोग वहाँ पहुँच जाते हैं। शायद शेरू गैरेज में जा छिपा है। लेखक रचना–कौशल से पाठक की जिज्ञासा और कौतूहल को गैरेज की ओर केंद्रित कर देता है। मेजर ट्रिगर पर उँगली दिए गैरेज के बाहर खड़े हैं कि वह शेरू निकले कि वह ट्रिगर दबा दें। शटर उठाया जाता है। लघुकथा के कथ्य का स्फोट कथन से नहीं, दृश्य से होता है। वहाँ शेरू नहीं मेजर साहब का लड़का शेरी और खानसामे हाजी अहमद की बीस वर्षीय बेटी शायना अस्त–व्यस्त हाल में खड़े हैं।
ट्रिगर पर रखी मेजर की उँगली शिथिल पड़ जाती है। क्योंकि मुजरिम बदल गया है। ऐरिस्टोक्रैटिक मानसिकता पर यह सैटायर सटीक है। कथा–संयोजन, प्रस्तुति–शिल्प और कथ्य का विषय समीचीन है। प्रसारित कथनीयता के कारण स्ट्रक्चर का आकार–विस्तार हुआ है, लेकिन भाषिकता का रिद्मम और रम्यता बनी रहती है। इस अच्छी लघुकथा के लिए लेखक साधुवाद का हकदार है।
ध्यातव्य है कि कुतियों का ऋतुकाल बसंत नहीं, वर्षांत होता है।
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1-रामकुमार आत्रेय
बिन शीशों का चश्मा
उस दिन गाँधी जयन्ती थी। स्कूल में धूमधाम से मनाई जानी थी। गाँधी जी की मूर्ति की जरूरत पड़ी तो उसे स्कूल के कबाड़खाने में ढूँढा गया। ढूँढ़नेवाला एक अबोध बच्चा था। उसके अध्यापक ने उसे ऐसा करने को कहा था। मूर्ति वहीं एक कोने में पड़ी मिल गई। प्लास्टिक की थी। पर उसका चश्मा गायब था। बच्चे ने बहुत ढूँढ़ा पर नहीं मिला। कबाड़ के ढेर में मिलता भी तो कैसे मिलता।
बच्चा मूर्ति को झाड़–पोंछकर बाहर ले जाने लगा तो अचानक वह बोल पड़ी–‘बेटा, जरा रुको।’
बच्चा रुक गया। बोला–‘कहिए बापू, क्या कहना है?’
बच्चे के लिए वह मूर्ति, मूर्ति नहीं, बापू गाँधी ही थे।
‘बेटा मेरा चश्मा नहीं है। ऐसे में मैं कैसे देख पाऊँगा? वैसे भी मैं चश्मे के बिना मैं लोगों को किसी जोकर जैसा नजर आऊँगा। मेरा अपमान न कराओ बेटा। पहले कोई चश्मा ले आओ कहीं से।’ मूर्ति का स्वर अनुरोध भरा था।
‘ठीक है, बापू जी। मैं अपने दादा जी का चश्मा ले आता हूँ। लेकिन बापू, उस चश्मे में शीशे नहीं हैं। दादा जी के हाथों से छूटकर एक दिन पत्थर पर गिर गया था। शीशे टूट गए थे। तब से वे उसी बिन शीशे वाले चश्में को लगाए रहते हैं।’ बच्चे ने बापू की मूर्ति को बताया।
मूर्ति हँसने लगी। उसकी हँसी किसी बच्चे जैसे निर्मल थी। कहने लगी–‘फिर तुम्हारे दादा जी उस चश्मे से देखते कैसे होंगे?’
‘देखेंगे कैसे, वे तो अन्धे हैं!’
‘अन्धे हैं? तो फिर उन्हें चश्मा लगाने की क्या जरूरत है?’ आश्चर्य–चकित मूर्ति के मुँह से निकला।
‘अन्धे होने से पहले ही दादाजी चश्मा लगाया करते थे। बाद में अन्धा होने पर भी उन्होंने चश्मा नहीं उतारा। जब हमने इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि चोर–लुटेरों को यह बात थोड़े ही मालूम है कि वे अन्धे हैं। घरवाले दिन में खेत में काम करने चले जाते हैं तो वे दरवाजे के पास चारपाई पर बैठें रहते हैं। लोग समझते हैं कि वे देख रहे हैं। इसलिए घर में कोई नहीं घुसता है। हम लोगों ने यह बात किसी को बताई भी नहीं है। चश्में को हाथ लगाकर यह तो कोई देखने से रहा कि वहाँ शीशे हैं कि नहीं।’ बच्चे ने सबकुछ सच–सच बता दिया।
इस पर मूर्ति ने तुरन्त कहा–‘बेटा, बस, मुझे तो उसी चश्मे की जरूरत है। आज के लिए माँग लाओ उसे अपने दादा जी से। अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखण्डपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊँगा!’
कहने की जरूरत नहीं कि बच्चे ने अपने घर से उस चश्मे को लाकर मूर्ति को पहना दिया। आश्चर्य तो इस बात का था कि समारोह की समाप्ति के पश्चात जब उस बच्चे ने उस चश्मे को घर ले जाने के लिए उतारना चाहा तो वह उतरा ही नहीं। अब वह मूर्ति का स्थाई हिस्सा बन चुका था!
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कुमार शर्मा ‘अनिल’
मुजरिम
सरदार सुरजीत सिंह सेना से रिटायर्ड मेजर हैं। लम्बा कद भरा–पूरा शरीर। चंडीगढ़ के पॉश सेक्टर में उनकी कनाल की शानदार कोठी है। पिछले वर्ष ही उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी और परिवार के नाम पर अब सिर्फ़ एक बेटा ही है जिसे प्यार से वे ‘शैरी’ पुकारते हैं।
अभी कुछ माह पूर्व उनके परिवार में एक और सदस्य की बढ़ोतरी हो गई थी। उन्होंने अल्सेशियन नस्ल की एक कुतिया खरीदी थी और प्यार से उसका नाम रखा था–‘सिल्विया’। इस ‘सिल्विया’ नाम के पीछे भी एक राज था जो सिर्फ़ वही जानते थे। जब वे अविवाहित थे तब सन् 1961 में आपरेशन गोवा के दौरान स्पेनिश मूल की एक गोवानी लड़की सिल्विया पर आशक्त हो गए थे। वहाँ से लौटे तो उसे ढेरों वादे करके आए परन्तु शैरी की माँ तेज कौर की तेजी के आगे कुछ ऐसे बहे कि कभी पीछे लौटने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। उस गौ वानी लड़की सिल्विया के देह की खुशबू अब भी उनकी साँसों में बसी हुई थी।
साथ वाली कोठरी जस्टिस अकरम खान की थी जो उनके अमेरिका बस जाने से खाली पड़ी थी। कोठी की देखभाल उन्होंने अपने बुजुर्ग खानसामा हाजी अहमद अली को सौंप रखी थी जो वहीं सर्वेन्ट क्वार्टर में अपनी बीस वर्षीय बेटी शायना के साथ रहते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के कट्टर सुन्नी मुसलमान हाजी अहमद अली के पास देसी नस्ल का एक कुत्ता शेरू था, जिसे वे बेहद प्यार करते थे। पिछले कुछ दिनों में मेजर साहब महसूस कर रहे थे कि शेरू उनकी सिल्विया को बड़ी ललचाई निगाह से देख रहा है। एक दो–बार उसने कम्पाउन्ड लाँघकर सिल्विया से मिलने की कोशिश भी की थी। मेजर साहब कई बार हाजी अहमद को इस बात के लिए डॉट चुके थे कि वह शेरू को बाँधकर रखें। हाजी अहमद मेजर साहब का गुस्सा जानते थे। वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते थे कि शेरू उनकी कोठी में न जा पाए परन्तु शेरू तो जैसे सावन का अन्धा था, हमेशा तरकीबें लड़ाया करता था। अब तो वह मेजर साहब से भी नहीं डरता था।
बसन्त का आगमन हो चुका था। गुलमोहर के पेड़ फूलों से लदे खड़े थे। सिल्विया भी अब बेचैन रहने लगी थी। सुबह जब वे उसे लेकर वॉक पर निकलते तो शेरू भी पीछे–पीछे हो लेता। दोनों के बीच चलने वाली आँख मिचौनी की वे भी समझते थे। उन्होंने कई बार शैरी को कहा भी था कि वह सिल्विया को मेजर चोपड़ा के ‘बॉक्सर’ से मिला लाए। वे नहीं चाहते थे कि सिल्विया की कोख से देसी बच्चे पैदा हों। कुत्ते की नस्ल बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। परन्तु शैरी था कि अपनी हीरो होंडा पर दिन भर लड़कियों के कॉलेज के चक्कर लगाया करता। उसे अपने से ही फुरसत नहीं थी तो सिल्विया की क्या चिन्ता होती।
सिल्विया की बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही थी। उधर शेरू भी उनके कम्पाउन्ड में घुसकर सिल्विया की एक नजर पाने के लिए बेचैन रहता। मेजर साहब को देख, वह आँखें चुराकर घृणा से मुँह फिरा उनके ही लॉन के किसी पौधे पर अपनी टाँग उठाकर तनाव ढीला कर कम्पाउन्ड की बाउण्डरी पर बैठ जाता–घात लगाकर। उसके पत्थर इरादे देखकर मेजर साहब अब पूरे दिन सिल्विया की चौकसी करते। पकी हुई फसल पर से किसान जिस तरह पक्षियों को उड़ाया करते हैं ; उसी तरह वे दिन भर शेरू को भगाया करते, फिर हाजी अहमद अली पर आकर अपना गुस्सा निकालते। उस दिन शेरू की भी जमकर पिटाई होती और उसे खाना भी नहीं मिलता;परन्तु अगले दिन शेरू मार्निग वॉक पर फिर सिल्विया के पीछे होता।
उस दिन तो हद ही हो गई। मेजर साहब ने सोचा था, कल वे खुद उसे मेजर चोपड़ा के बाक्सर से मिलाकर लाएँगे। रात सिल्विया को उन्होंने अपने बैडरूम में ही बाँध लिया था। जवान बेटी की भी वे इस तरह रखवाली नहीं करते। ‘परन्तु सिल्विया नासमझ है बेचारी अपना भला बुरा नहीं सोच सकती’–वे सोचते।
सुबह के लगभग चार बजे होंगे जब अचानक कुछ अजीब सी आवाजों से उनकी नींद टूट गई। देखा तो शुरू उनके ही बेडरूम में सिल्विया के साथ आपत्तिजनक हालत में था। मेजर साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा–‘सिल्विया के होने वाले बच्चे देसी नस्ल के’। उन्होंने दीवाल पर टँगी रायफल उठाई। खतरा भाँपकर शेरू भी नौ–दो ग्यारह हो गया। मेजर साहब दनदनाते हुए उसके पीछे दौड़ें उन्नीस सौ बासठ के चाइना वार में जितनी नफरत उन्हें चीनी सिपाहियों से नहीं हुई होगी उससे कहीं अधिक नफरत उन्हें शेरू से हो गई। शेरू कम्पाउन्ड फाँदकर अकरम साहब की कोठी में जा छुपा। गुस्से में आकर मेजर साहब ने एक जोरदार लात हाजी अली अहमद के सर्वेन्ट क्वार्टर के दरवाजे पर लगाई–ओये कित्थे है तेरा ओ देसी कुत्ता....किन्नी वार केहा ऐ ओनू बन्न के रक्खेया कर.....अज नई छड़ना–उन्होंने रायफल लोड कर ली। हाजी अहमद अली एक बार तो काँप उठे। उनकी आँखों के सामने शेरू का तड़पता हुआ शरीर नाच उठा। उन्होंने मेजर साहब के पैर पकड़ लिए–उसे मारना मत साहब, हम आज ही उसे कहीं दूर छोड़ आएँगे...अब कभी वह आपको दिखाई नहीं देगा–वह गिड़गिड़ाने लगे। लेकिन मेजर साहब पर तो जैसे भूत सवार था। उन्होंने रायफल का कुंदा उनके सिर पर दे मारा, खून की एक धारा बह निकली। वह फिर भी गिड़गिड़ाते रहे–उसे मारना मत साहब, माफ कर दो उसे...उसे मारना मत साहब.....
तब तक दो चार लोग और भी कोठियों से निकल आए थे। सभी मेजर साहब की हाँ में हाँ मिला रहे थे। आखिर एक देसी कुत्ते की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि मेजर साहब की सिल्विया की नस्ल खराब करे। शेरू की खोज में वह भी मेजर साहब के साथ जुट गए। तभी उन्हें । ख़्याल आया कि शेरू कहीं गैराज में न जा छिपा हो। गैराज वैसे भी खाली पड़ा रहता था। उन्होंने दो लोगों को डंडा लेकर गैराज के अन्दर जाने को कहा और स्वयं निशाना लेकर बाहर पोजीशन सम्भाल ली। डरते–डरते जब उन लोगों ने गैराज के गिरे हुए शटर को ऊपर उठाया तो...
मेजर साहब किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए। अस्त–व्यस्त हालत में उनका बेटा शैरी और हाजी अहमद की बेटी शयाना सिर झुकाए खड़े थे। मेजर साहब की रायफल का निशाना अब भी उसी ओर था। उनकी हाथों की उँगलियाँ काँपने लगीं। उनकी आत्मा उन्हें कहीं भीतर से कचोट रही थी–चला गोली....मुजरिम बदल गया तो क्या हुआ.....जुर्म तो वही है....जुर्म तो वही है।
एकाएक मेजर साहब की रायफल पर पकड़ ढीली पड़ गई। भारी कदमों से वे लौट पड़े। सर्वेन्ट क्वार्टर के बाहर हाजी अहमद अली बेहोशी की हालत में बड़बड़ा रहे थे–‘उसे मारना मत साहब.....माफ कर दो उसे’। पास ही अपराधी बना शेरू मूक खड़ा था। मेजर साहब ने एक दृष्टि शेरू पर डाली फिर हाजी अहमद अली के बूढ़े शरीर को बाँहों में उठा अस्पताल ले जाने के लिए कार की तरफ ले चले।
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