‘साहित्य सृजन’ एवं ‘समीक्षा–लेखन’ दो अलग–अलग सप्रकार की चीजें हैं। एक को संवेदनाओं का साधारणीकरण होता है, दूसरी में सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण होता है। श्री जगदीश कश्यप लघुकथा लेखक भी हैं और विद्वान समीक्षक भी। यही कारण है कि उनकी लघुकथाओं में सतर्क आलोचक और भावुक पाठक–दोनों बैठे हैं। कश्यप ने लघुकथा के फॉर्म पर भी बहुत कुछ लिखा है।
‘जानवर भी रोते हैं’ लघुकथा में भारत के सिर पर पनौती की तरह बैठे आतंकवाद के दुष्परिणामों एवं मनोवैज्ञानिक आयामों को वाणी मिली है। मनुष्य तो ठीक, पशु भी इस अमानवीय दुष्कृत्य के भोग बने हैं। लघुकथा के क्षेत्र के अत्र में गुमसुम भैंस का यह सोचना कि ‘काश कोई उसका रोना भी देख पाए,’ हमें मूक पशु की यह हृदयोक्ति भीतर तक भिगो जाती है।
इस लघुकथा की कहानी पूरी बड़ी कहानी का प्लॉट रखती है। जगदीश कश्यप कथानक के इस विस्फोट से परिचित हैं, अत: छोटी कथा में भी पूरी कहानी के देशकाल को समेटते है। कुलवन्त कौर, उसका बीमार पति, पुत्र तेजिन्दर, पुत्रवधू, दो बच्चे बन्तो भैंस और उसका कटड़ा –इतने सारे पात्र और खेत पर काम करने वाले पसुरवैयों के सामने आतंवादियों द्वारा दनादन गोलियों की बौछार करने से लाशों का बिछ जाना, तेजिन्दर का इस घटना से विक्षिप्त हो जाना और सरकार के आश्वासन के बाद भी नौकरी का न मिलना, कितना कुछ है एक लघुकथा में। बन्तो और कुलवन्त में पड़ोसन होने के सारे झगड़े–फसाद , मान मनोवक्त, सिर फुटौवल बरकरार हैं पर आतंकवादियों ने दो दुखी परिवारों को जैसे मिला दिया है। बन्तो कुलवन्त के घर आती है और कटड़े के मर जाने के दुख में बेचैन और स्तनों में उतर आए दुख से विचलित भैंस को थामती है, उसके स्तनों पर पानी छिटकती है और दूध की धार काढ़ती है। वह भैंस को सहलाती है तो कुलवंत को लगता है, जैसे उसे सहला रही है। कुलवन्त कौर बन्तो को पीठ पर सिर रखकर रोती है। कुलवन्त अपने परिवार के खत्म होने का दुख सह रही है तो भैंस भी प्राणी है। उसका कटड़ा भी आतंकवादियों ने मार दिया है, पर उसके रोने को कौन देखे?
पात्रों का चरित्र जैसे उनसे लिपटा रही है! बन्तों का एवं सरदारनी का हृदय–परिवर्तन तथा भैंस का यह सोचना कि ‘कोई उसका रोना भी देखे’, इस लघुकथा के मुख्य घटक हैं, जो कहानी के मध्य एवं अन्त बनते हैं। पंजाबी परिवार का सामान्य वातावरण एवं सीमान्त का डर इस लघुकथा को बांधे हुए है। मानवीय मनोविज्ञान एवं पशु मनोविज्ञान जैसे दोनों एक हो गए हैं। बच्चों के लिए माँ का बिलखना सत्य है, फिर चाहे वह स्त्री हो या भैंस।
भैंस का यह प्रश्न कि ‘चलो, तुम लोगों से सिर फिरों ने जो भी बदला लिया हो , पर मैंने आतंकवादियों का क्या बिगाड़ा था, जो मेरे कटड़े को मार गिराया?’ पूरी कहानी का यह प्रश्न है? काश यह कहानी आतंकवादी पढ़े?
‘जानवर भी रोते हैं’ शीर्षक पूरी लघुकथा का भी लघुाम सार है। लघुकथा का प्रारंभ थोड़ा शिथिल है, पर अन्त चरम परिणति पर ही है। यह एक सशक्त लघुकथा है।
अभिमन्यु अनत त्रिओले (मारिशस) के लब्धप्रतिष्ठ साहित्याकार है। मूलरूप से वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार एवं समीक्षक–संपादक है, पर ‘लघुकथा’ उनकी अवान्तर विधा के रूप में इस लघुकथा के माध्यम से पाठकों तक पहुँचती है।
अभिमन्यु ने मारिशस में रहकर विदेशी संस्कृति की सारी क्षतियों को अपनी आँखों से देखा है। भारतीय जीवन में भाषा, धर्म, जाति या वर्ग को लेकर जो भेदभाव व्याप्त हैं, लगभग वैसा ही भेदभाव पश्चिमी देशों में–विशेषकर इग्लैंड में रंगभेद को लेकर है। गोरी चमड़ी वालों अंग्रेज और काली चमड़ी वाले अंग्रेज–जैसे एक दूसरे की खाल उधेड़ने में लगे हैं। सभी प्रकार की भौतिक सुविधाओं एवं बौद्धिक उपलब्धियों के बावजूद मन तो वही मध्य कालीन है। ‘पाठ’ लघुकथा में जैसे एक माँ अपने बेेटे को रंगभेद का पाठ पढ़ा रही है, और बेटा जैसे सच्ची मित्रता के सौहार्द का पाठ अपनी कक्षा में अपने काले रंग के दोस्त के साथ बैठ कर पढ़ रहा है।
इस लघुकथा में तीन पात्र है– माँ, बेटा हेनरी और हेनरी का मित्र विलियम। कहानी दो भागों में चलती है। बेटा स्कूल से आकर माँ से कहता है कि वह अपने मित्र को घर पर खाने के लिए बुलाना चाहता है। माँ खुश होती है क्यों उसकी संस्कृति ने समान स्तर के लोगों को आपसी मेलजोल रखने की बात सिखाई है। माँ मित्र का नाम ‘विलियम’ है–यह सुनकर भी खुश होती, पर जब वह बेटे को दूध देने के लिए कमरे में आती है तो पूछ बैठती है–‘बेटा, क्या रंग है, विलियम का?’ वह अपने बेटे को सफेद चमड़ी वाले गोरे अंग्रेज से ही मेलजोल रखने की बात कहती है। बेटा पूछता है, ‘रंग का प्रश्न जरूरी है क्या माँ?’ तो माँ कहती है, हाँ जरूरी है, तभी तो पूछ रही है।’
एक सामन्तीय मानसिकता–जो स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को निम्न मानने की परम्परा को आगे बढ़ाती है, एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी की नीति पूरे समाज को ग्रस लेती है।
लघुकथा की चरम परिणति में हेनरी जैसे आठ वर्षीय भोले बालक के मुँह से एक वाक्य निकलवाकर लेखक ने एक परम सत्य विश्व के सामने रखा है कि सच्ची मित्रता में रंग दिखाई नहीं देता।’ वहाँ तो हृदय के निच्छल–निश्चल प्रेम ही सब रंगों के ऊपर सवार हो जाता है।
श्री अभिमन्यु अनत ने भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों और ‘ब्लैक इण्डियन’ जैसे नाम में छिपे घृणा और उपेक्षा को अपने जीवन में जिया है; अपने साथियों,अपने परिजनों पर होने वाले रंगभेद को आक्रमण को महसूस किया है, इसीलिए वे इंग्लैंड के अंग्रेज परिवार के माध्यम से रंग भेद के विष को पाठकों के सामने रख सके हैं और बालक हेनरी के माध्यम से प्रेम के शाश्वत अमृत से हमें परिचित करा सके हैं। लघुकथा बड़ी ही मार्मिक है।
जानवर भी रोते हैं
जगदीश कश्यप
चोर निगाहों से बन्तो ने देखा कि सरदारनी बार–बार उसकी ओर देख रही थी। उसने चाहा कि वह पूछ ले कि कोई तकलीफ़ तो नहीं। लेकिन फिर सोचा-- कहीं सरदारनी पहले की तरह फिर से न बिफ़र पड़े-– "नी बन्तो, मैं हाँ जी...तू की खाके मेरे सामणे बोलेगी...।" चाहती तो बन्तो भी उसे ख़री–ख़री सुना देती पर औरतों ने समझाया कि लड़ाका कुलवन्त कौर के मुँह लगना तो अपना चैन खोना है।
"तुसी वाज (आवाज़) दिती मैनूं?" --बन्तो ने छत से खड़े होकर पुकारा। आँगन में खड़ी भैंस बार–बार बिदक रही थी। कुलवन्त ने इस अन्दाज़ से सिर हिलाया कि उसने कोई मदद नहीं मांगी है। फिर भी बन्तो ज़ोर से बोली–- "ठैर बीजी मैं आनियाँ...।"
उस समय कुलवन्त खेतों में थी । पुरबिए भैसों के साथ खर–पतवार साफ कर रहे थे। इधर सिरफिरों ने उसके बीमार पति, पुत्रवधू और उसके दोनों बच्चों को गोलियों से भून डाला था। पुत्र तेजिन्दर इस हत्याकाण्ड से पगलाया हुआ फिरता है। सरकार ने नौकरी देने की बात कही, पर कुछ नहीं हुआ।
बन्तो ने भैंस को सहलाया तो कुलवन्त को लगा कि उसकी पीठ सहलाई जा रही है। गाँव से झगड़ा करके वह सुखी नहीं रह सकी, यह अन्दाज़ा उसे अब हो रहा था। सिरफिरों की गोलियों से भैंस का कटड़ा भी मारा जा चुका था, जिस कारण भैंस कूदने लगी थी। बन्तो ने बाल्टी के पानी के छींटे भैंस के थन में मारे और धार काढ़ने लगी। कुलवन्त ने देखा–भैंस उसकी ओर इस अन्दाज़ से देखती हुई जुगाली–सी कर रही थी, मानों कह रही हो–- "बन्तो का भी सारा परिवार गोलियों का शिकार हो गया। चलो तुम लोगों से सिरफिरों ने जो भी बदला लिया हो पर मैंने आतंकवादियों का क्या बिगाड़ा था जो मेरे कटड़े को मार गिराया।"
भैंस ने देखा कुलवन्त कौर बन्तो के नजदीक बैठ गई और उसकी पीठ से सिर टिकाकर रोने लगी। "काश! कोई उसका भी रोना देख पाए" --गुमसुम भैंस ने सोचा।
-0-
पाठ
अभिमन्यु अनत
कटाई के मौसम में काम कुछ सवेरे समाप्त हो जाता है। घर पर की दोनों बकरियों के लिस घास जुटाते हुए मुझे कुछ देर हो गयी थी। धूप अब भी हड्डियों के भीतर तक चुभ रही थी और पगडंडी बहुत अधिक लम्बी प्रतीत हो रही थी।
रास्ते के दोनों ओर के गन्ने काटे जा रहे थे। सिर पर घास का बोझ लिये मैं जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। दूसरे दिन हमारा स्वतंत्रता दिवस था। गाँव की ओर से सांस्कृतिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। पाठशाला के छात्र मेरी प्रतीक्षा कर रहें होंगे।
मैंने अपनी रफ्तार तेज की।
निकोले साहब की कोठी से होकर बस्ती में पहुँचना था। ईख के खेतों के बीच में निकोले साहब के तरबूज के लहलहाते खेत थे।
मैं मोड़ पर पहुँचा ही था कि निकोले साहब का दामाद बरगद की आड़ से निकलकर मेरे सामने आ गया। उसकी तनी हुई बंदूक को देखकर मुझे हैरानी हुई। मैं कुछ पूछता कि इससे पहले उसने कड़ककर कहा।
‘‘तो आज तुम पकड़े गए। नीचे गिराओ अपने बोझ को।’’
मेरी हैरानी और भी बढ़ गई, मैंने धीरे से पूछा, ‘‘क्या बात है साहब ?’’ अपने लाल हो चले गोरे चेहरे से पसीने को पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘बोझ नीचे फेंको और साथ चलो।’’
‘‘पर कहाँ और क्यों ?’’ साहस के साथ मैंने पूछा।
‘‘तीन दिन से तुम रोज तरबूज चुराते आ रहे हो।’’
‘‘साहब, मेरे सिर पर घास है, तरबूज नहीं।’’
‘‘मैं सामने नहीं आता तो अब तक तुम्हारी घास के भीतर तरबूज पहुँच ही जाते।’’
‘‘आपको गलतफहमी हुई है। मैं अपने गाँव की बैठक का प्रधान हूँ।’’
‘‘बंद करो! बडे़ साहब के सामने अपनी सफाई पेश कर देना।’’
‘‘लेकिन साहब मैंने तरबूज नहीं चुराया। आप चोर पहचानने में भूल कर रहे हैं।’’
‘‘सरदार ने चोर का जो हुलिया बताया है, वह तुमसे एकदम मिलता है।’’
तर्क करके अपने आपको को बचाना कठिन था, इसलिए मैं बंदूक की नली के आगे-आगे चल पड़ा।
हुलिया एकदम मिलने का मतलब था--रंग।
-0-