रमेश बतरा, पृथ्वीराज अरोड़ा, शंकर पुणतांबेकर, सतीश राज पुष्करणा, श्यामसुन्दर अग्रवाल, डा0 दीप्ति, अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, शराफत अली खान, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, असगर वजाहत, विष्णु प्रभाकर, सतीश दुबे जैसे बहुत से लघुकथा लेखकों की रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। कहना न होगा कि लघुकथा की ओर मेरा रूझान भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं सुकेश साहनी, के कारण हुआ। अपनी पसंद की अनगिनत लघुकथाओं में से रामेश्वर काम्बोज की ‘सपने और सपने’ और सुकेश साहनी की ‘स्कूल’ मुझे ज़्यादा पसन्द हैं , जिसका प्रमुख कारण यह भी है कि इन रचनाकारों की रचना प्रक्रिया को नजदीक से देखने का अवसर मिला है एवं इन दोनों रचनाकारों के साथ लघुकथा की विकास यात्रा में शामिल रहा हूँ।
‘सपने और सपने’ रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु की बाल मनोविज्ञान पर केन्द्रित सशक्त लघुकथा है, जो बच्चों के सपनों की व्याख्या उनके परिवेश के साथ करती है। कहा तो यह जाता है कि बच्चों के सपने एक से होते है, किन्तु सपने और सपने लघुकथा इस मिथक को तोड़ती हैं कि बच्चों की मन: स्थितियों पर उनके परिवेश का अदृश्य प्रभाव इतना अधिक होता हैं कि उनके सपने भी उनसे मुक्त नहीं होते। बच्चों के सपनों के माध्यम से लघुकथा का वर्ग विभेद के दंश को बड़ी सहजता के साथ स्पष्ट कर देता है। तीन बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर खेलते समय वर्गभेद की दीवारों से पूर्णतया मुक्त हैं। लेखक ने बड़ी कुशलता से खेल में बच्चों के समान व्यवहार और मनोविज्ञान को स्पष्ट किया है खेल में हम की भावना प्रमुख होती है। लेख कइस भावना को कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होने देता है। लघुकथा का आरंभ ही एक सार्थक सन्देश देता है किन्तु सपनों की चर्चा शुरू होते ही सामाजिक स्तर, वर्ग भेद और जीवन संघर्ष सजीव हो उठता है इसे बच्चों का नैसर्गिक व्यवहार नहीं कहा जा सकता है अपितु उनका परिवेशगत व्यवहार है जो उन्हें उनकी परिस्थितियों ने दिया है। इस तरह संपंन, मध्यम और निम्नवर्ग के तीन बच्चे खेल के स्तर से अलग होते ही सपनों की दुनिया में अपने मूल में स्थापन्न हो जाते हैं। सामाजिक विभिन्नता के तीन चित्र पाठक के सामने उभरते हैं जो देश की आजादी के बाद भी जस के तस है।
आधुनिक भारत की निर्माण प्रक्रिया में बहुत कुछ बदला पर ये तीन स्थितियाँ नहीं बदल पाईं इस दुर्भाग्य कथा का प्रस्तुतीकरण इस लघुकथा का केन्द्रीय तत्त्व है। सेठ के बेटे का सपना ‘‘मैं सपने में बहुत दूर घूमने गया, पहाड़ों और नदियों को पार करके।’’ नारायण बाबू के बेटे का सपना ‘‘मैंने सपने में बहुत तेज स्कूटर चलाया सबको पीछे छोड़ दिया।’’ जोखू रिक्शे वाले के बेटे का सपना ‘‘मैंने सपने में खूब डटकर खाना खाया। कई रोटियां खाई नमक और प्याज के साथ पर.....’’ ‘मुझे अभी भी भूख लगी है’ क्रमश: उनके नहीं उनके परिवेश के बुने हुए सपने हैं पहला सपना विरासत में मिली सुविधा भोगी जीवन शैली को आगे बढ़ाता है दूसरा सपना मध्यम वर्गीय जिजीविषा को प्रस्तुत करता है सबको पीछे छोड़ देने की आकांक्षा में कहीं परिवेश की इच्छाएं अन्तर्निहित हैं। हम अपने बच्चों को कितना कुण्ठा ग्रस्त करते जा रहे है यह प्रश्न इस छोटे से संवाद में उभरता है। आगे बढ़ने के सपने देखना अच्छी बात है परन्तु लेखक ने कितनी कुशलता से ‘सबको पीछे छोड़ दिया’ वाक्यांश को संवाद में जोड़ने मात्र से बच्चों के ऊपर बड़ों की थोपी हुई बातों को पृष्ठभूमि में रख दिया है। बच्चों के टी0वी0 रियलिटी शो इसी कुण्ठा ग्रस्त मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। तीसरा सपना हमारी निम्नवर्गीय विपन्नता को रेखांकित करता है कि श्रमिक का बच्चा अपने सपने में भी सिर्फ़ रोटी, नमक, प्याज को ही देखता है। प्रकारान्तर में उसके लिए यह भी असंभव है। पूरी कचौड़ी के सपने पर आज भी जैसे निषेधाज्ञा ही लगी हुई है इस दुरवस्था के लिए लघुकथा हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है।‘‘ मुझे अभी तक भूख लगी है’’ संवाद से लघुकथा का समापन हृदय को उद्वेलित कर देता है।
सपने और सपने शीर्षक लघुकथा का बिंव विधान बहुत ही सफल है सारी कथा ही सपनों की विभिन्नता पर प्रकाश डालती हुई पूर्णता को प्राप्त करती है बाल मनोविज्ञान के अन्तर्गत में झाँकती इस लघुकथा की सबसे बड़ी विशेषता कथ्य की पूर्णता है। लघुकथा का शीर्षक सार्थक है काश इस लघुकथा को बच्चों के पाठ्यक्रम में लगाया जा सके।
सुकेश साहनी लघुकथा के सुपरिचित शीर्ष हस्ताक्षर हैं। उनकी लघुकथाएं जीवन के सुख–दुख की सार्थक व्याख्या करती है। इनकी रचनाओं के कथानक संवेदना और विश्वसनीयता के साथ उपस्थिति होते हैं। सामाजिक व्यवहार की विभिन्न भाव–भंगिमाएं उनकी रचनाओं में अस्तित्व ग्रहण करती है। ‘स्कूल’ नामक लघुकथा ऐसे ही रचना वैशिष्टय को प्रस्तुत करती है। इस लघुकथा में सुकेश साहनी का रचना कौशल देखते ही बनता है। लघुकथा का आरम्भ ही मन को आंदोलित कर देता है। माँ और स्टेशन मास्टर के संवाद से पाठक नेपथ्य में चला जाता है। सुकेश साहनी संवादों के माध्यम से कथ्य विकास करते हैं। सुकेश मानवीय संबंधों के अद्भुत चितेरे हैं। माँ का संबंध कितना बहुआयामी और आत्मीय होता है ,इसे लघुकथा से समझा जा सकता है। ‘स्कूल’ लघुकथा के बेटे को लेखक बहुत ही कुशलता से मदर्स बेबी के रूप में चित्रित करता है–‘‘मति मारी गई थी मेरी,’’ वह रुआँसी हो गई, ‘‘बच्चे के पिता नहीं हैं,मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्च चलाती हूँ। पिछले कई दिनों से जिद कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी भर चने लेकर घर से निकला है। बाबूजी वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती, मेरे पास ही सोता है। हे भगवान दो राते उसने कैसे काटी होगीं? इतनी ठंड में उसके पास गर्म कपड़े भी नहीं है।
रचना का समापन तीन दिन बाद लौटे पुत्र के इस संवाद से होता है– ‘‘माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था’’। माँ हैरान हो जाती है कि तीन दिनों उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया। ‘स्कूल’ लघुकथा के माध्यम से रचनाकार यह संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सफल रहा है कि यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। कथावस्तु का चुनाव, कथ्य का विकास, भाषा शैली का निरूपण और शब्द अनुशासन देखते ही बनता है।
सपने और सपने
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
तीनों बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर खेल रहे थे कि सेठ गणेशीलाल का बेटा बोला, ‘‘रात मुझे बहुत अच्छा सपना आया था।’’
‘‘हमको भी बताओ।’’ दोनों बच्चे जानने के लिए चहके।
उसने बताया, ‘‘मैं सपने में बहुत दूर घूमने गया; पहाड़ों और नदियों को पार करके।’’
नारायण बाबू का बेटा बोला, ‘‘मुझे और भी ज्यादा मजेदार सपना आया। मैंने सपने में बहुत तेज स्कूटर चलाया। सबको पीछे छोड़ दिया।’’
जोखू रिक्शेवाले के बेटे ने कहा, ‘‘तुम दोनों के सपने बिलकुल बेकार थे।’’
‘‘ऐसे ही बेकार कह रहे हो! पहले अपना सपना तो बताओ।’’ दोनों ने पूछा।
इस बात पर खुश हाकर वह बोला, ‘‘मैंने रात सपने में खूब डटकर खाना खाया। कई रोटियाँ खाईं, नमक और प्याज के साथ...पर....।’’
‘‘पर, पर क्या?’’ दोनों ने टोका।
‘‘मुझे अभी तक भूख लगी है।’’ कहकर वह रो पड़ा।
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स्कूल-
सुकेश साहनी
-“तुम्हें बताया न, गाड़ी छह घंटे लेट है,” स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा, “छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी----कल से नाक में दम कर रखा है तुमने !”
“बाबूजी, गुस्सा न हों,” वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली, “मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए तीन दिन हो गए हैं---उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला बाहर निकला है---”
“पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?” औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
“मति मारी गई थी मेरी,” वह रुआँसी हो गई, “---बच्चे के पिता नहीं हैं। मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी-भर चने लेकर घर से निकला है----”
“घबराओ मत---आ जाएगा ” उसने तसल्ली दी।
“बाबूजी, वह बहुत भोला है। उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती---मेरे पास ही तो सोता है। हे भगवान !---दो रातें उसने कैसे काटी होंगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी नहीं हैं---” वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर फिर अपने काम में लग गया था। वह बैचेनी से प्लेटफार्म पर घूमने लगी। इस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर सन्नाटा और अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी खुद से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके , आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा- तनी हुई गर्दन---बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें---कसे हुए जबड़े---होठों पर बारीक मुस्कान---
“माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था!” अपने बेटे की गम्भीर, चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था- इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
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