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मेरी पसंद - उमेश महादोषी
उमेश महादोषी


लघुकथा के एक पाठक होने के साथ कुछेक प्रमुख लघुकथाकारों के सम्पर्क में रहते हुए मुझे लघुकथा की रचना-प्रक्रिया को जानने-समझने का अवसर मिला है और लघुकथा को समझने का मेरा अपना एक दृष्टिकोंण भी विकसित हुआ है। शिल्प और विचार के संश्लेषण से युक्त लघुकथाएँ मेरा ध्यान खींचती हैं। लघुकथा की कथा को न तो सायास रोका जाये और न उसे हाथ से पकड़कर खींचा जाये। ‘बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जिन्हें लघुकथा में ही कहा जा सकता है’- इसी प्लेटफार्म पर एक विश्लेषण में अशोक भाटिया जी के इस कथन से बहुत पहले 1988-89 के करीब शामली में यही बात बलराम अग्रवाल जी से सुनता था। अक्सर लघुकथा और क्षणिका को आधार बनाकर विधागत अस्तित्व पर उनके साथ होने वाली चर्चा इस बात पर आधारित होती थी कि कोई भी विधा तभी स्वतन्त्र और समर्थ विधा की मान्यता हासिल कर सकती है, जब उसमें कही जाने वाली बात सामान्यतः उसी विधा में कही जा सके। मैं इस विचार से प्रभावित रहा हूँ । आज के समूचे लेखन की एक खास बात उसका यथार्थपरक होना है। यह यथार्थ दो तरह का होता है- एक वह जो विद्यमान है और दूसरा वह जो होना चाहिए या अपेक्षित है। विद्यमान यथार्थ हमें समस्याओं से रूबरू कराता है और अपेक्षित यथार्थ हमें समाधान की ओर ले जाता है। इस तरह एक यथार्थ से दूसरे यथार्थ तक का यह सफर साहित्य का स्थापित धर्म है। लघुकथा में भी इस धर्म का निर्वाह हो, तो वह मुझे कहीं अधिक अपील करती है। विद्यमान यथार्थ से पर्दा मात्र हटाकर भी कुछ लघुकथाएँ अन्याय और पीड़ा की गहन अनुभूति के कारण हमारी पाठकीय दृष्टि पर एक गहरी रेखा खींच जाती हैं, जो हमें अप्रत्यक्षतः ही सही उस यथार्थ के बारे में सोचने को विवश कर देती है, जो होना चाहिए।
आज लघुकथा काफी संख्या में लिखी जा रही है। अनेकों रचनाकार लघुकथा से जुड़ चुके हैं। कई शुरुआती कमजोरियां लघुकथा में आज भी बनी हुईं हैं (और वे हमेशा बनी रहेंगी। लघुकथा ही नहीं हर हर विधा के साथ ऐसा है।), इसके बावजूद काफी संख्या में ऐसी लघुकथाएँ पढ़ने को मिल रहीं हैं, जो किसी न किसी कारण से प्रभावित करती हैं। ‘लघुकथा में क्या लिखा जाना चाहिए’ यह बात काफी हद तक सुनील चौहान, आशीष कुमार आदि जैसे नये रचनाकार, जिनका लघुकथा-लेखन और अध्ययन भले अभी कम है, भी समझने लगे हैं। यह एक अच्छा संकेत है। लघुकथा की दिशा तय करने में जिन बहुत सारे लघुकथाकारों ने योगदान किया है, उनमें कई को पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला है, कई को पढ़ने का अवसर मुझे नहीं भी मिला होगा। जिन्हें पढ़ा है उनमें निसन्देह बलराम अग्रवाल मेरे सबसे पसन्दीदा लघुकथाकार रहे हैं, उनकी बहुसंख्यक लघुकथाएँ शिल्प और विचार दोनों के स्तर पर मुझे प्रभावित करती हैं। अशोक भाटिया, भगीरथ, पृथ्वीराज अरोड़ा, विक्रम सोनी, माधव नागदा, सुकेश साहनी, जगदीश कश्यप, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, प्रताप सिंह सोढ़ी, पारस दासोत, रामयतन यादव आदि की काफी लघुकथाएँ शिल्प और विचार दोनों के स्तर प्रभावित करती हैं। कथ्य के स्तर पर डॉ0 शंकर पुणताम्बेकर व संतोष सुपेकर की कई लघुकथाओं ने भी मेरे मन पर अपना प्रभाव छोड़ा है। अन्य लघुकथाकारों में भी बहुत से रचनाकारों की पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिली कई लघुकथाएँ किसी एक या दूसरे कारण से मुझे पसन्द आई हैं। मैं यहां जिन दो लघुकथाओं को अपनी पसन्द में इस स्तम्भ की सीमाओं के दृष्टिगत प्राथमिकता दे रहा हूँ उनमें से एक है बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘कन्धे पर बेताल’ एवं दूसरी है पारस दासोत की लघुकथा ‘कुआँ और कुआँ’। ये दोनों उन उत्कृष्ट लघुकथाओं में से हैं, जिन्होंने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है।
‘कन्धे पर बेताल’, शिल्प और विचार दोनों ही स्तर पर एक उत्कृष्ट लघुकथा है। इसकी तकनीक जिस तरह कथा को जटिलताओं से निकालकर सामान्य स्तर पर लेकर आती है, वह बेहद प्रभावशाली है। मजदूर के लुटने की छोटी सी कथा, फिर उस पर विक्रम और बेताल का सवाल-जवाब। बेताल विक्रम के जवाब से संतुष्ट तो होता है, पर उसके कन्धे से अपेक्षानुरूप विदा नहीं होता। वह विक्रम की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करता है। कोई और रचनाकार होता तो शायद विक्रम के जवाब के प्रति बेताल की संतुष्टि के साथ ही लघुकथा को पूर्ण विराम दे देता। बलराम अग्रवाल जी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने विक्रम की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करने के लिये आगे तक जाना जरूरी समझा। दरअसल आज का विक्रम कोई राजा नहीं, अपितु राजा के कृत्यों पर नजर रखने वाला आम आदमी के बीच का ही वह शख्स है, जो आम आदमी के पक्ष में खड़ा और आम आदमी के हक-हकूक की लड़ाई को येन-केन जिन्दा रखना चाहता है, उसके मनोबल को बनाये रखना चाहता है। आज का राजा तो अपनी ताकत को बनाये रखने के लिए धूर्त योगी (लुटेरे) से मिला हुआ है। राजा और धूर्त योगी दोनों ही साजिशन आज के विक्रम को अपने से दूर समस्याओं के बेताल के साथ उलझाये रखना चाहते हैं और किसी भी स्थिति में यदि वह शव (समस्याओं का अवशेष) लेकर (जो समस्याओं के बेताल को भगाकर या समाप्त करके ही सम्भव है) उन तक पहुँच भी जाता है, तो वे दोनों उसे खत्म करके और शव को यज्ञ कुण्ड में भस्म करके सारे लोक की आंखों में धूल झोंककर उस पर शासन करेंगे ही (आज लोक में जो समस्याओं के अवशेषों को खत्म करता है, असल को खत्म करने का श्रेय भी तो उसी को दिया जाता है)। शव के अन्दर समाया बेताल भी जानता है कि राजा और धूर्त योगी की संयुक्त ताकत को खत्म करना इतना आसान नहीं है, इसलिए वह उपयुक्त अवसर आने तक विक्रम की भूमिका को आम आदमी (रूपलाल) को संघर्ष में बनाये रखने के लिए जरूरी समर्थन और रणनीतिक उत्साह बनाये रखने तक सीमित रखना चाहता है। इसीलिए वह उसके कन्धे से जरा देर के लिए भी नहीं उतरता। आम आदमी (रूपलाल) को विक्रम का समर्थन उसकी वर्तमान स्थिति से ही निकलकर आता है इसलिए यह बाद वाला हिस्सा लघुकथा की रचना का जरूरी हिस्सा है। इसके बिना लघुकथा पूर्ण नहीं होती। लघुकथा का यहां तक आना जरूरी है।
विचार के स्तर पर इस लघुकथा में कई चीजें एक साथ संश्लिष्ट रूप में रखी गईं हैं। विद्यमान यथार्थ यानी आम आदमी (आर्थिक रूप से निम्न एवं निम्न मध्यम वर्ग का व्यक्ति) की समस्या को मजदूर की लूट की घटना के रूप में दिखाया गया है। उसके निर्णय को समाधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। और इस समाधान की तार्किकता सिद्ध की गई है विक्रम के जवाब (समर्थन) के रूप में, जो पूरी तरह जमीनी हकीकत पर आधारित है और एक सामान्यीकृत स्थापना के रूप में सामने आता है। अक्सर हमारे समाज में संघर्ष से इतर हर निर्णय को पलायन मान लिया जाता है। पर ऐसा होता नहीं है। चारों ओर से लुटेरों से घिरा आज का आम आदमी लुटता जरूर है, पर लुटते समय वह सारी परिस्थितियों पर गौर करता है। वह अपनी ताकत और लुटेरों की ताकत का आंकलन भी करता है। इसके बावजूद लुटते समय उसके मन में आक्रोश और उबाल होता है, वह मन मसोसकर प्रतिरोध से भागता है। प्रतिरोध न कर पाने की अपनी अक्षमता पर कई बार वह दीवार पर घूंसे भी मारता है और सोचता है मौका मिलने दो इस लुटेरे को भी देखूँगा एक दिन! और उस ‘एक दिन’ के लिए ही वह जिन्दा रहना चाहता है, उसका जिन्दा रहना जरूरी हो जाता है। इसे पलायन नहीं कहा जा सकता। यहां संघर्ष न करना एक विवशता है, जिसे संघर्ष की सततता का एक रणनीतिक हिस्सा माना जाना चाहिए। पर अक्सर इसे या तो समर्थन मिलता नहीं है या अनेकों किन्तु-परन्तुओं के साथ मिलता है। अपने से बड़ी और क्रूर ताकतों से बिना पर्याप्त ताकत का संग्रहण किये गये संघर्ष समाज (विशेषतः बुद्धिजीवियों) के बीच वाहवाही तो दिला सकते हैं पर उनके परिणाम प्रायः तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचते। संघर्ष कभी भी मात्र संघर्ष के लिए नहीं, एक तार्किक परिणति के लिये होना चाहिए। आज का आम आदमी संघर्ष के लिए सोचता है, तो यह उसकी निडरता है, ताकत का आंकलन करता है तो यह उसकी बुद्धिमत्ता है। जब वह त्वरित संघर्ष को टालकर अपना शोषण/लूट को विवशतावश स्वीकार कर लेता है, तो यह उसका रणनीतिक निर्णय है, और अन्ततः सही अवसर पर उपयुक्त ताकत के साथ वार करता है तो यह उसका सही संघर्ष होता है, जिसकी तार्किक परिणति सामने आती ही है। यह बात अलग है कि कभी यह परिणति पूर्णता तक पहुँच पाती है और कभी नहीं। पर तब संघर्ष अपने सही रूप में दिखाई जरूर देता है।
एक बात और। इस लघुकथा में बेताल समस्याओं का प्रतीक है तो विक्रम समस्याओं के समाधान का मार्गदर्शक और समर्थक। इस भूमिका को हमारे समाज में सकारात्मक सोच के लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि निभा रहे हैं। कोई राजा (नेता आदि) इस भूमिका को निभाने की स्थिति में रह नहीं गया है, वे सब तो बेताल पचीसी के धूर्त योगी यानी लुटेरे से मिले हुए हैं। यदि हम सब थोड़ा सा गौर से देखें तो इस लघुकथा को कई-कई बार जीते हुए पायेंगे अपने आपको।
पारस दासोत की लघुकथा ‘कुआँ और कुआँ’ में भी लघुकथा के वे तत्व मौजूद हैं, जो मेरी पसन्द को उसके नजदीक तक ले जाते हैं। इस लघुकथा में विचार के स्तर पर विद्यमान यथार्थ (समस्या) से अपेक्षित यथार्थ (समाधान) तक की यात्रा भी तय की गई है और शिल्प के स्तर पर भी लघुकथा परिपक्व नजर आती है। लघुकथा की कथा स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ती है और उसकी रचना सुगठित व अर्थ की दृष्टि से गहराई लिए हुए है।
जातिवाद और बदले की भावना के भयंकर दुष्परिणाम आज पूरे समाज को झेलने पड़ रहे हैं। कुछ समस्यायें गम्भीर तो होती हैं पर उन्हें समाज चाहे तो जातिवाद और साम्प्रदायिकता का चश्मा उतारकर भी देख सकता है। तब शायद हम उन समस्याओं का हल कहीं ज्यादा तर्कसंगत व सार्थक ढंग से और स्थाई रूप में ढूँढ़ सकें। लेकिन सामान्यतः ऐसा होता नहीं है। कुछ हठधर्मिताओं के कारण समस्यायें न सिर्फ और अधिक गम्भीर रूप धारण कर लेती हैं, बल्कि एक समस्या से दूसरी समस्या पैदा होने लग जाती है। उसके बाद नासमझियों और वैमनस्यताओं का जो दौर शुरू होता है, उसका अन्त होना मुश्किल हो जाता है।
एक लड़की के साथ बलात्कार होता है, तो बलात्कार होना ही बेहद वीभत्स घटना और भयंकर व अक्षम्य अपराध है। होना यह चाहिए कि इस अपराध को हम भयंकर व अक्षम्य मानकर अपराधी को सजा दिलायें, पीड़िता के साथ यदि कोई न्याय (जो बेहद मुश्किल बल्कि असम्भव होता है) हो सकता है तो करायें और ऐसी घटनाओं को रोकने के तर्कसंगत व सार्थक उपाय करें। लेकिन जब हम इसे किसी सवर्ण या हरिजन या किसी दूसरे धर्म की लड़की के साथ बलात्कार की घटना का रूप दे देते हैं, तो एक के बाद एक कई अन्य समस्यायें विभिन्न घटनाओं के रूप में जन्म लेने लग जाती हैं और मूल घटना पर्दे के पीछे सरक जाती है। आपस में मारकाट/खूनखराबा होता है, और हमारे पारस्परिक रिश्ते छिन्न-भिन्न होने लग जाते हैं। कई बार ऐसे घटनाचक्रों का दुष्परिणाम यह भी होता है कि एक के बाद दूसरी कई और लड़कियों/महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं। हम समाधान की खोज भी करते हैं, तो उस मूल बिन्दु तक पहुँच ही नहीं पाते ;जहाँ से समस्या का समाधान हो सकता है। जबकि किसी भी बीमारी को उसके मूल कारण पर आधात किए बिना खत्म नहीं किया जा सकता। यदि पेड़ के शरीर (तने, शाखों आदि) में बीमारी जड़ों से फैली है तो उसके एक भाग विशेष का इलाज करने से न तो वह भाग ही पूरी तरह ठीक हो पायेगा और न ही पूरा पेड़। ‘कुआँ और कुआँ’ लघुकथा में इसी तथ्य का बेहद प्रभावशाली ढंग से उपयोग किया गया है।
एक हरिजन लड़की के साथ हुए बलात्कार के कारण लम्बी लड़ाई में दो हरिजनों की हत्या करके उनकी लाशें हरिजनों के कुएँ में डाल दी गई और उसका पानी लाल हो गया। कुछ दिनों बाद महाजनों के कुएँ का पानी भी लाल पाये जाने पर पड़ताल की जाती है तो उसका कोई कारण पता नहीं चल पाता और महाजन अपने कुएँ की सफाई करने की बात करते हैं। इस पर वहीं खड़ा एक मास्टर सुझाता है यदि सफाई करनी ही है तो पहले हरिजनों के कुएँ की करो। कारण साफ है दोनों कुएँ अलग-अलग नहीं, एक ही स्रोत के दो निर्गम हैं। यदि एक कुएँ का पानी खराब होगा तो दूसरे का स्वतः ही हो जायेगा। एक का पानी साफ करना है तो दूसरे का भी साफ करना ही होगा। यहाँ कुएँ समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व तो करते हैं पर उनका मूल स्रोत, उनकी सामाजिक विरासत (जो उनकी पारस्परिक निर्भरता में स्पष्ट झलकती है) सांझी है; उसे टुकड़ों में बाँट पाना सम्भव नहीं है। शरीर के विभिन्न अंग जैसे रक्त नलिकाओं के माध्यम से हृदय के साथ संबद्ध होते हैं वैसी ही संबद्वता यहां भी है। इसे समझाने का उत्कृष्ट प्रयास इस लघुकथा में हुआ है। यदि इस बात को हमारे समाज के सभी लोग समझ लें तो सामाजिक समरसता की एक नई धारा प्रस्फुटित हो सकती है। बलात्कार किसी भी वर्ग के किसी भी व्यक्ति ने किसी भी वर्ग की लड़की के साथ किया हो, सभी वर्गों के लोग उसका प्रतिकार/प्रतिरोध सामूहिक होकर करें और पीड़ित परिवार के साथ खड़े दिखाई दें। इसमें वर्ग-भेद के दंश को शामिल न होने दें। और यदि किसी तरह ऐसा हो ही गया है तो समाधन उसी तरह किया जाये जैसे इस लघुकथा में सुझाया गया है। हरिजन कुएँ की ओर बढ़ते मास्टर के कदम इस लघुकथा को श्रेष्ठ लघुकथाओं की श्रेणी में शामिल कर देते हैं।

कन्धे पर बेताल
बलराम अग्रवा

गारा-मजदूरी करके थोड़ी-बहुत कमाई के बाद शाम को रूपलाल घर की ओर लौट रहा था। अपनी ही धुन में मस्त। बीड़ी सुट्याता हुआ।
रास्ते में, एक झाड़ी के पीछे से कूदकर एक लुटेरा अचानक उसके सामने आ खड़ा हुआ। रूपलाल अचकचा गया। लुटेरे ने उसको सँभलने का मौका नहीं दिया। छुरा चमकाकर गुर्राया_“जान प्यारी है तो जो कुछ पास में है, निकालकर जमीन पर रख दे, चुपचाप।“
चेतावनी सुनकर रूपलाल ने एक नजर लुटेरे के चेहरे पर डाली, दूसरी उसके छुरे पर और अण्टी से निकालकर उस दिन की सारी कमाई जमीन पर रख दी।
“अब भाग यहाँ से,” लुटेरा दहाड़ा, ”पीछे मुड़कर देखा तो जान से मार डालूँगा।“
रूपलाल पीछे पलटा और दौड़ पड़ा।
“विक्रम!” यह कहानी सुनाने के बाद उसके कंधे पर लदे बेताल ने उससे पूछा, ”सवाल यह है कि एक मेहनतकश होते हुए भी रूपलाल ने इतनी आसानी से अपनी कमाई को क्यों लुट जाने दिया? संघर्ष क्यों नहीं किया? डरकर भाग क्यों गया?”
“बेताल!” विक्रम ने बोलना शुरू किया, “रूपलाल का लुटेरे के चेहरे और छुरे पर नजर डालना उसकी निडरता और बुद्धिमत्त्ता दोनों की ओर इशारा करता है। ऐसा करके वह कई बातें एक साथ सोच जाता है। पहली यह कि हर हाथापाई को संघर्ष नहीं कहा जा सकता। जोश के जुनून में ग़ैर-हथियार आदमी का किसी हथियारबंद आदमी से उलझ जाना उसकी मूर्खता भी सिद्ध हो सकता है। दूसरी यह कि भाग जाना हमेशा ही पलायन नहीं कहलाता। संघर्ष में बने रहने के लिए कभी-कभी आदमी का जिंदा रहना ज्यादा जरूरी होता है।“
“बिल्कुल ठीक।“ बेताल बोला, “उचित और अनुचित का विवेक ही मजदूर की असली ताकत होता है।...अब, अगली समस्या-कथा सुनो_”
“अब बस करो यार! मेरा मौन टूट गया...” विक्रम बोला, “...अब कंधे पर से खिसको और अपने पेड़ पर उलटे जा लटको, जाओ।”
“किस जमाने की बात कर रहे हो विक्रम।“ बेताल बोला, “तुम अब आम आदमी हो गये हो, राजा नहीं रहे। इस जमाने में समस्याओं का बेताल तुम्हारे कंधे से कभी उतरेगा नहीं, लदा रहेगा हमेशा। तो सुनो_”
“उफ!” विक्रम के मुँह से निकला और कंधे पर लदे बेताल समेत थका-हारा-सा वह वहीं बैठ गया।

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कुआँ और कुआँ
पारस दासोत

हरिजन लड़की के साथ हुए... बलात्कार के कारण... लम्बी चली आ रही लड़ाई का परिणाम यह हुआ...कि दो हरिजनों की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गयी। गुस्सा....खून बहाने से भी शान्त न हुआ। और दोनों लाशें, गाँव के हरिजन कुएँ में डाल दी गयीं...कुएँ का पानी लाल हो गया।
परिणाम यह हुआ...कि कुछ ही दिनों बाद...महाजनी कुएँ का पानी भी लाल हो गया।
पूरे गाँव में दहशत छा गयी...।
गोताखोरों को कुएँ में उतारा गया।
परन्तु...
मेढक...कछुओं...के सिवा कुछ भी हाथ न लगा।
‘करें...तो क्या करे...?’ चारों तरफ से आवाज आने लगी।
भीड़ के पास खड़ा मास्टर...सब-कुछ सुनता रहा।
एक साहूकार ने कहा, ‘हमें अपने कुएँ का पानी उलीचकर....उसे पूरी तरह....साफ करना चाहिए।’
यह सब देख-सुनकर....
मास्टर बोला-
‘अगर इस कुएँ को साफ करना ही है.... तो चलो मेरे साथ....।’
और...
उसने अपने कदम...हरिजन कुएँ की तरफ बढ़ा दिये। 

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