मैंने अब तक जिन लघुकथाओं का अध्ययन किया है, लिखी चाहे जिस भाषा में गई हो, मैंने उसे हिन्दी में ही पढ़ा है। कुछ लघुकथाओं का नाम और लघुकथा का शीर्षक याद नहीं है, हाँ, वो मोहक लघुकथाएँ याद है, उन चन्द लघुकथाओं ने न सिर्फ़ मेरे मर्म को छेड़ा है, बल्कि छुआ और झकझोरा भी है, जिसको मैं समय के साथ भुला नहीं सका।
एक भिखारी अपने होने वाले दामाद को दहेज में वह जमा–जमाया क्षेत्र सौंप देता है जहाँ वह वर्षों से भीख माँगता था। तुम यहाँ माँग, मैं कोई दूसरी जगह ढूँढ़ लूँगा।
एक भिखमंगा पूरे बाराती से भीख माँगकर जब चलने लगता है, तब दुल्हे से माँगने की सलाह पर वह भिखारी कहता है–‘‘बेरादरी को कम से कम बचाना होगा।’’
और तीसरी लघुकथा भी एक भिखारी की ही है। वह एक मंदिर के सामने बैठकर भीख माँगता है। उसे मुश्किल से दो–तीन रूपए ही मिलते हैं। शाम को घर की ओर चलता है। बूढ़ा है। थकहार कर एक मदिरालय के सामने बैठ जाता है। वहाँ भी रटी–रटाई भाषा मे भीख माँगता है। आधे घण्टे में तीस–चालिस रूपए। हर पीकर निकलने वाला व्यक्ति उसे कुछ पैसा देता जाता हैं वह भिखारी चलते–चलते सिफर् इतना कह पाता है–‘‘वाह खुदा, तुम भी खूब हो, रहते कहाँ का देते हो?’’
(शायद इसका शीर्षक–अब्दुला का खुदा)
इन तीनों लघुकथाओं के अलावा भी कई लघुकथाएँ सिर्फ़ शिल्प, कथानक से ही नहीं बल्कि भाव से झकझोरती है। इधर अपनी पसंद की दो लघुकथाओं की चर्चा करूँ तो–‘‘मन के साँप (डॉ. सतीश राज पुष्करणा) और ‘भूख’ (श्री अशोक भाटिया)। ये दोनों ही लघुकथाएँ मेरी पसंद की है।
‘‘मन के साँप’’ (डॉ. सतीश राज पुष्करणा) की लघुकथा के बनावट और बुनावट में काफी सतर्कता बर्ती गई है। कथानायक की पत्नी एक सप्ताह से मायके है। वासना से व्यथिक नायक की नजर वहीं–वहीं जाती है, जहाँ से उसकी वासना को हवा मिलती है। जैसे, आफिस के मिसेज सिन्हा पर, उसके साड़ी पहनने के ढंग पर, उसकी मनमोहक अदाएँ और हँस– हँस कर बात करने पर। वहाँ से मन को लौटाता है तो उसकी नजर नौकरानी के मांसल शरीर और गदरायी जवानी पर जाती है तो उसकी नजर नौकरानी को अपने कमरे में सुला भी लेता है। फिर मन को भटकने से रोकने के लिए आलमारी से पत्रिका निकालकर उलटने–पलटने लगता है। उसमें भी उसकी नजर सिने–तारिका के ‘ब्लो अप’ पर ही अटकती है। उसकी वासना लगातार प्रज्वलित हो रही है। वह पानी पीने के बहाने बिछावन से उतरता है। नौकरानी के करीब जाता है। नौकरानी के सांसों की गति भी नायक की वासना को हवा प्रदान करती है। नायक वहाँ भी खोते–खोते बच जाता हें लघुकथाकार के अन्दर के संस्कार ने इस लघुकथा को ऊँचाई प्रदान की है हॉलाकि मनोविज्ञान के लिए यह लघुकथा एक ललकार भी है। अनेक मोड़ ने इस लघुकथा को स्तरीयता प्रदान की है। नायक हर मोड़ पर अपनी मनोदशा के मुताबिक मतलब की चीज तलाश ही लेता है। यह रचनाकार के नीर–क्षीर विवेक को दर्शाता है। शिल्प, कथ्य, अन्त और शीर्षक सब कुछ सटीक और सार्थक।
दूसरी लघुकथा ‘भूख’ (श्री अशोक भाटिया) है। भूख की ज्वाला पर अनेक कथाएँ लिखी गई है–धन की भूख, वासना की भूख, इज्जत–प्रतिष्ठा की भूख पेट की भूख इत्यादि। इन भूखों में पेट की भूख असहनीय होता है। पेट का भूख निकृष्ट पाप करा सकता है। श्री भाटिया की लघुकथा ‘भूख’ न सिर्फ़ मर्मस्पर्शी ही नहीं है बल्कि भीतर तक झकझोरती है, सच में अपमान, उपेक्षा, तिरस्कार सहने का आदी व्यक्ति अपनत्व, सम्मान और प्रेम के एक हल्क्र झोंक्र से भी आर्द्र हो जाता है, उसकी आँखें भर आती है। एक भिखारी रेलगाडी में भीख माँग रहा है। उसे तीन दाता मिलते हैं, एक अठन्नी देकर चौवन्नी लौटाने को कहता है दूसरा दो रुपए का नोट देकर एक रुपया लौटाने को कहता है तथा तीसरा अपने साथ खाना खाने को कहता है और बैठाकर खाना खिलाता है । भिखारी दो कौर खाकर भर हृदय और नम आँख लिए आशीषता हुआ उठ जाता है। ‘‘बस, बाबा इतने से भूख मिट गई?’’ यात्री पूछता है। भिखारी भर्राए स्वर में कहता है–‘‘बाबू सच कहूँ, सारी भूख मिट गई। आज तक किसी ने मुझे इतना नहीं दिया।’’ इन दोनों लघुकथाओं ने मुझे मोहा है। ये मेरी पसंद की लघुकथाएँ है।
मन के साँप
डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
आज रात खाना खाने के बाद उसका मन कैसा–कैसा होने लगा। वह मन–ही–मन बड़बडाया, ‘‘ये पत्नी भी अजीब है, मायके गई तो....आज एक सप्ताह होने को आया। उसे इतना भी ध्यान नहीं कि पति की रातें कैसे कटती होंगी। वह आकर अपने बिछावन पर लेट गया। नींद तो जैसे उसकी आँखों से उड़ चुकी थी। आज टी0वी0 देखने को भी मन नहीं हो रहा था। उसे ध्यान आया कि आज ऑॅफिस में मिसेज सिन्हा कितनी खूबसूरत लग रही थी। कितनी सुन्दर साड़ी बाँध रखी थी। साड़ी बाँधने को अंदाज भी गजब का था। क्या हँस–हँस कर बातें कर रही थी। इस स्मरण से उसे और भी बेचैन–सा कर दिया। उसे अपनी पत्नी पर क्रोध आने लगा, ‘‘यह भी कोई तरीका है। शादी के बाद औरत को अपने घर का ध्यान होना चाहिए।’’
वह जैसे–जैसे सोने का प्रयास करता, नींद वैसे–वैसे उसकी आँखों से दूर भागती जाती। इतने में उसकी दृष्टि सामने आलमारी पर जा टिकी, जहाँ उसकी पत्नी की साड़ी लापरवाही से लटकी हुई थी। उसे लगा जैसे उसकी पत्नी खड़ी मुस्करा रही है। वह उठा और अलगनी से उस साड़ी को उठा लाया और उसे सीने से लगा लिया। फिर एकाएक उसे चूम लिया। उसे लगा जैसे वह साड़ी नहीं, उसकी पत्नी है। उसने साड़ी को बहुत प्रेम से सरियाया और तह लगाकर अपने तकिए की बगल में रख लिया।
‘‘मालिक! और कोई काम हो तो बता दीजिए फिर सोने मैं जाऊँगी।’’ अपनी युवा नौकरानी के स्वर से वह चौंक उठा। उसने चोर–दृष्टि से उसके यौवन को पहली बार भरपूर दृष्टि से देखा, तो वह दंग रह गया। आज वह उसे बहुत सुन्दर लग रही थी। उसे देखकर फिर न जाने उसका मन कैसा–कैसा होने लगा। अभी वह कामुक हो रहा था कि नौकरानी ने पुन: पूछा, ‘‘मालिक!बता दीजिए ना!’’
‘‘तुम ऐसा करो ,तुम कहाँ उधर दूसरे कमरे में सोने जाओगी; यहीं इसी कमरे में सो जाओ। न जाने कोई काम याद ही आ जाए। जरूरत पड़ने पर तुम्हें जगा दूँगा। हा! पीने के लिए पानी का जग और गिलास जरूर रख लेना। फिलहाल तो कोई काम याद नहीं आ रहा है।’’
‘‘जी अच्छा!’’
आज नींद उसकी आँखों से दूर थी। कभी पत्नी का ख्याल, कभी मिसेज सिन्हा का ध्यान, कभी नौकरानी के यौवन का नशा। उसने अपनी को बहलाने के विचार से कोई पत्रिका सामने अलमारी से निकाली। उसका पढ़ने में मन तो नहीं लगा। बस यों ही उलटने–पलटने लगा। पत्रिका के मध्य में उसे किसी सिने–तारिका ब्लो–अप,’’ नजर आया। उसकी दृष्टि रुक गई। उसे लगा वो सिने–तारिका हरकत करने लगी है। वह उसे देखता रहा। उसे लगा, वह मुस्करा रही है। वह भी मुस्कराने लगा। उसने उसे ब्लो–अप का स्पर्श किया तो फिर जमीन पर आ गया उसने पत्रिका बन्द करके एक तरफ रख दी। वह पानी पीने के विचार से उठा। उसने देखा, उसकी नौकरानी उसकी नीयत से बेखबर गहरी नींद में सोई हुई है। उसकी आती–जाती साँसों से उसका हिलता बदन उसे बहुत भला लगने लगा। उसका मासूम चेहरा, उसे लगा कि वह उसे चूम ले, किन्तु किसी अज्ञात भय से वह पीछे हट गया वह सोचने लगा कि वह समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति है। कार्यालय में भी उसको आदर की दृष्टि से देखा जाता है। बाहरी आडम्बरों ने उसके मन को दबाया, किन्तु फिर भी मन था कि उसी ओर बढ़ा, किन्तु एकाएक उसकी पत्नी की आकृति उभरती दिखाई दी। अब उसकी पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट के स्थान पर घृणा के भाव थे। वह सिहर गया। पुन: अपने पलंग पर लौट आया। नौकरानी को आवाज दी और पानी का गिलास देने को कहा।
उसने पानी पीकर कहा, ‘‘देखो! अब मुझे कोई काम नहीं है। तुम वहीं बगल के कमरे में जाकर सो जाओ! देखो! अन्दर से कमरा जरूर बन्द कर लेना।’’
यह कहकर वह बाथरूम की ओर बढ़ गया बाथरूम में लटका पत्नी का गाऊन उसे ऐसा लगा, जैसे पत्नी मुस्करा रही है और अर्द्धरात्रि में वह स्नान करने लगा।
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भूख
अशोक भाटिया
रेलगाड़ी में एक आदमी भीख माँग रहा था, एक बाबू ने आस–पास देखते हुए उसकी तरफ एक अठन्नी बढ़ाकर कहा–‘‘बाबा, चवन्नी वापस कर दो....’’
आस–पास के यात्री सोचने लगे–‘‘कितना अमीर और महान है.....’’
दुआएँ देता हुआ भिखारी आगे बढ़ गया.....कुछ आगे एक भारी –भरकम सेठ ने उसे दो रुपए का नोट देकर कहा–‘‘लो बाबा, एक रूपया वापस कर दो....’’
रटी हुई दुआए देता, भिखारी आगे बढ़ा, वहाँ एक आदमी खाना खाने लगा था, उसने कहा–‘‘बाबा मेरे पास रोटी है, तुम्हें भूख लगी होगी, आओ, बैठकर खा लो.....’’
सुनकर भिखारी ठिठक गया, पहली बार किसी ने ऐसा कहा था लोगों ने सुना, तो सोचने लगे–‘‘बेवकूफ! खरदिमाग! ठस भिखारी को पास बिठाएगा....गंदे कपड़े मैला सिर......।’’
उस आदमी ने भिखारी को अपने पास बिठा लिया, भिखारी की आँखें भींग गई थी, संकोच में उसने दो कौर खाए और उठ गया....
‘‘बस बाबा, इतने में ही भूख मिट गई....?’’
भिखारी भर्राए स्वर में बोला–‘‘बाबू, सच कहूँ, सारी भूख मिट गई है, आज तक मुझे किसी ने इतना नहीं दिया....’’
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