लघुकथा आज के सामाजिक परिदृश्य में एक लोकप्रिय विधा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है । आज के अति व्यस्त जीवन में लम्बी कहानियाँ पढ़ने का न समय है , न धैर्य।
आज जितने दैनिक, साप्ताहिक , मासिक पत्र-पत्रिकाओं को देखिए, सभी में लघुकथा किसी न किसी कोने में बैठी मिल जाएगी । कारण स्पष्ट है-लघुकथा की लघुकाया(लघु कलेवर) इसका सबसे बड़ा आकर्षण है :थोड़ी-सी जगह घेरती है, थोड़ा-सा समय लेती है और पाठक केवल दो मिनट के अवकाश में पढ़कर न केवल परितृप्त हो लेता है, वरन् जीवन के किसी मृदु-कटु -कषाय सत्य से भी दो-चार हो जाता है, उसकी समस्या का समाधान भी हो सकता है ।
मैं लघुकथा विशेषज्ञ समीक्षक नहीं हूँ , किन्तु एक जिज्ञासु लघुकथा -पाठक अवश्य हूँ । जहाँ कहीं लघुकथा मिली, पढ़ने से स्वयं को नहीं रोक पाती हूँ । यह स्वीकार करने में मुझे हिचक नही (निराशा अवश्य है ) कि आजकल छप रही लघुकथाओं में ऐसी रचनाएँ बहुत सीमित मात्रा में हैं;जो पाठक को लघुकथा का वास्तविक आनन्द प्रदान कर सकें।
मुझे जिन लघुकथाकारों की रचनाएँ सोद्देश्य लगीं उनमें सतीशराज पुष्करणा , सुकेश साहनी, श्याम सुन्दर अग्रवाल , डॉ श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’,डॉ सतीश दुबे ,अशोक भाटिया , रामेश्वर काम्बोज ;हिमांशु’, सुभाष नीरव आदि प्रमुख हैं।इन्हीं में से मैं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की दो लघुकथाओं पर बात करना चाहूँगी ।
हिमांशु जी की लघुकथाओं में लघुकथा के सभी मानक तत्त्व विद्यमान रहते हैं । इनकी लघुकथाएँ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं । वे संक्षिप्त होती हैं, उनमें निरर्थक फैलाव नहीं होता ,पैनी और धारदार होती हैं, लघुकथा का उद्देश्य एवं चरम( क्लाईमेक्स) एकदम सुस्पष्ट होता है ; किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनकी लघुकथाओं में उद्देश्य कथन जैसी उबाऊ चीज़ कभी नहीं होती । ध्वनिकार के सिद्धान्तानुसार,उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे सिर्फ़ दो-चार ज़ोरदार प्रभावी शब्दों के द्वारा ‘ध्वनित’ कर देते हैं । लघुकथा समाप्त और शेष रह जाता है उसका कभी न भूलनेवाला स्वाद ! वैसे तो मुझे ऊँचाई ,अश्लीलता, मुखौटा , खुशबू ,तीसरी मौत ,गंगा स्नान, विजय जुलूस आदि लघुकथाएँ एक से बढ़कर एक लगी हैं । वर्त्तमान राजनैतिक ,सामाजिक ,भ्रष्ट व्यवस्था की पोल खोलती मनुष्यता के ह्रास की ये नग्न सच्चाइयाँ पाठक को एक तड़प से भर देती हैं । इनकी कई लघुकथाओं में ख़लील ज़िब्रान की लघुकथाओं की ‘लपक’ रह-रहकर कौंध मार जाती है !
इनकी एक लघुकथा है ‘नई सीख’।भेड़िया आदमी के छोटे बच्चे को गाँव से उठाकर बाहर निकलता है । दायित्व और कर्त्तव्यबोध से सम्प्न्न गाँव के चौकीदार कुत्ते, भौंक-भौंककर भेड़िए को रोकते हैं । भेड़िया पूछता है-‘तुम मुझे क्यों रोक रहे हो ?’ एक बुज़ुर्ग कुत्ता क्रोधित होकर कहता है-‘तुम्हारी धूर्तता की भी हद हो गई। सबके सामने बच्चे को उठाए ले जा रहे हो और ऊपर से पूछते हो क्यों रोक रहे हो?’
तब भेड़िया उत्तर देता है -‘बाबा, इस ज़माने में मेरी धूर्त्तता नहीं चल पाती, मुझे और अधिक धूर्त्तता सीखनी पड़ेगी ;इसीलिए आदमी के बच्चे को उठाए लिये जा रहा हूँ।’बस भेड़िए के इस मासूम उत्तर के साथ लघुकथा ख़त्म । यही कथा का चरम है।भेड़िया मनुष्य के बच्चे को अपना आहार बनाने नहीं वरन् धूर्त्तता का गुरुमन्त्र लेने के लिए ले जा रहा है । लघुकथा का ध्वन्यार्थ पाठक को तिलमिलाने के लिए काफ़ी है अनायास अज्ञेय की इन पंक्तियों से साक्षात् हो जाता है-‘साँप/तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगर में बसना भी /तुम्हें नहीं आया / एक बात पूछूँ ? / उत्तर दोगे ? फिर कैसे सीखा डसना ? / विष कहाँ पाया ?’
हिमांशु जी की केवल आठ पंक्तियों की यह लघुकथा आज के मानव की धूर्त्तता का रक्त-रंजित इतिहास स्वयं में समेटकर एक कालातीत रचना की श्रेणी में आ गई है । अत्यन्त सुन्दर, सोद्देश्य , सफल लघुकथा है ।
इनकी दूसरी लघुकथा है-‘छोटे-बड़े सपने’ । इस कथा में तीन बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर खेल रहे हैं , साथ ही बीती रात में देखे गए अपने-अपने सपनों का वर्णन भी करते जा रहे हैं । सबसे पहले सेठ का बेटा(धनाढ्य वर्ग)बताता है कि रात उसने पहाड़ और नदियों को पार करके दूर-दूर घूमने का सपना देखा। तब बाबू का बेटा(मध्यम वर्ग) बताता है कि रात सपने मेंउसने बहुत तेज़ स्कूटर दौड़ाया और सबको पीछे छोड़ दिया । अब तीसरा बच्चा रिक्शेवाले का बेटा (सर्वहारा वर्ग) कहता है कि मेरे सपने के सामने तुम दोनों के सपने बेकार हैं । दोनों बच्चों के उसके सपने के विषय में में पूछने पर वह बेहद खुश होकर बताता है-
‘मैंने रात सपने में खूब डटकर खाना खाया --कई रोटियाँ खाईं नमक और प्याज़ के साथ , पर…।’
‘पर क्या ?’-दोनों ने टोका
‘मुझे भूख लगी है’-कहका वह रो पड़ा ।
यहीं लघुकथा का समापन हो जाता है । तीन अलग-अलग स्तरों के बालकों के अपने-अपने ‘आई क्यू’ और ‘विज़न’ हैं । धनिक वर्ग, मध्यम वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बच्चों के सपने भी कितने अलग होते हैं… हो सकते हैं ! अन्तिम शब्दों-‘रो पड़ा’ से लघुकथाकार उस निर्धन ,निरुपाय बच्चे की भूख और बेबसी को उजागर कर देता है। यही लघुकथाकार की सफलता है ।
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1-नई सीख
भेडि़या आदमी के एक छोटे बच्चे को उठाकर गाँव से बाहर निकला। कई कुत्ते भौंकते–भौंकते उसके पीछे दौड़ पड़े। अपने को चारों तरफ से घिरा हुआ देखकर भेडि़या बोला–‘‘तुम मुझे क्यों रोक रहे हो?’’
‘‘तुम्हारी धूर्त्तता की भी हद हो गई,’’ उनमें से बूढ़ा कुत्ता बोला–‘‘सबके सामने बच्चे को उठाए ले जा रहे हो और पूछते हो क्यों रोक रहे हो?’’
‘‘बाबा,इस ज़माने में मेरी धूर्त्तता नहीं चल पाती। मुझे और अधिक धूर्त्तता सीखनी पड़ेगी। इसलिए आदमी के बच्चे को उठाए ले जा रहा हूँ।’’ भेडि़ए ने उत्तर दिया।
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2-छोटे–बड़े सपने
तीनों बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर खेल रहे थे। सेठ गणेशीलाल का बेटा बोला–‘‘रात मुझे बहुत अच्छा सपना आया था।’’
‘‘हमको भी बताओ।’’ दोनों बच्चे जानने के लिए चहके।
‘‘उसने बताया–‘‘सपने में मैं बहुत दूर घूमने गया, पहाड़ों और नदियों को पार करके।’’
नारायण बाबू का बेटा बोला–‘‘मुझे और भी ज्यादा मज़ेदार सपना आया। मैंने सपने में बहुत तेज स्कूटर चलाया। सबको पीछे छोड़ दिया।’’
जोखू रिक्शेवाले के बेटे ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा–‘‘तुम दोनों के सपने बिल्कुल बेकार थे।’’
‘‘ऐसे ही बेकार कह रहे हो। पहले अपना सपना तो बताओ।’’ दोनों ने पूछा।
इस बात पर खुश होकर वह बोला–‘‘मैंने रात सपने में खूब डटकर खाना खाया। कई रोटियाँ,नमक और प्याज के साथ, पर....’’।
‘‘पर...पर क्या?’’ दोनों ने टोका।
‘‘मुझे भूख लगी है।’’ कहकर वह रो पड़ा।