लघुकथा मेरी निगाह में बिहारी के दोहों जैसी है "देखत में छोटे लगें घाव करें गंभीर ".छोटी सी घटना को प्रतीकात्मक रूप में या सीधे सीधे कुछ इस ढंग से कहा जाता है कि पढने के बाद मानस पटल पर उसके शब्द और भाव बहुत देर तक अंकित रहते हैं .लघुकथा शायद हमेशा ही एक सन्देश देती हुई होती है ..इसके अन्त में कुछ ऐसी बातें होती हैं जो सोचने पर विवश करती हैं .थोड़े पात्र और उनके आसपास घूमती घटनाएँ एक ऐसा चक्रव्यूह रचती हैं कि पाठक उसमे से निकल कर भी लिप्त रहता है बहुत सी लघुकथाएँ हैं जो मेरे अंतर्मन को भिगोती हैं उनमे से कुछ हैं . सुकेश साहनी की ''स्कूल-१', चादर , प्रतिमाएँ ,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की 'सपने और सपने ', सुभाष नीरव की ''धूप'', ,डॉ शुभ्रा श्रीवास्तव की ''टूटे बटन '', रावेन्द्रकुमार रवि की ''लेकिन इस बार ''असगर वजाहत की ''आग '',प्राण शर्मा की ''हिप्पोक्रेट '',कमला निखुर्पा की ''जल संरक्षण '',शरद जोशी की ''मै वही भगीरथ हूँ '',डॉ0 श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की''रिश्ता', रमेश बत्तरा की ''लड़ाई'' ,श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘माँ का कमरा ‘इत्यादि ।
लघुकथा के महासागर से दो मोती चुनना मोतियों के साथ न्याय नहीं है। इस असंभव से कार्य को निर्णायक स्थिति में पहुँचना ही था ;अतः इस संदर्भ में श्री अखिल रायजादा की लघुकथा "पहला संगीत" और रमेश बतरा की लघुकथा ''लड़ाई'' बात करना चाहती हूँ।
1- लघुकथा "पहला संगीत" मानवीय भावों की गहन तीखी अभिव्यक्ति है। इसमें मूल कथा को को अभी थोड़ी देर के लिए छोड़ते हैं। लघुकथाकार ने लघुकथा के प्रारंभ में ट्रेन का जो वर्णन किया है ;वह पाठकों के सामने दृश्य उत्पन्न करने में पूरी तरह सक्षम है। यात्रियों की इस भीड़ में मैं भी अपना नया खरीदा गिटार टाँगे खडा था। इस हालत में स्वयं और नए गिटार को सँभालने में बड़ी परेशानी हो रही थी। सौभाग्यवश दो स्टेशनों के बाद बैठने की जगह मिली। इस हालत को आम आदमी प्रतिदिन अनुभव करता है।
अखिल ने जो फेरीवालों का जिक्र किया है ;वह भी बहुत रोचक है।
यह लघुकथा बहुत ही मार्मिक है तथा व्यक्ति की मनः स्थिति को भी दर्शाती है कि किस तरह भीख माँगते उन बच्चो को देखकर ताना कसते हैं और व्यंग्य बाण चलाते हैं।
–‘‘यह देखिए भावी भिखारी। पता नहीं इनके माँ–बाप पैदा क्यों करते हैं?’’
–‘‘अरे परसो जिस भिखारिन की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी ये उसी के बच्चे है!
यहाँ भी लोगों में संवेदना नहीं जागी. अखिल ने सही चित्रण किया है कि लोग जब बोलने पर आते हैं तो परिस्थितियाँ नहीं देखते हैं ।लेखक ने एक जगह कहा है कि फटी स्कूल ड्रेस इसका मतलब यह कि वह भिखारन शायद बच्ची को स्कूल भेजती होगी ;पर अब उसके मरने के बाद यह लड़की अपने भाई को लेकर भीख माँगने निकल पड़ी है। इस के बाद भी यात्रियों को उनपर दया नहीं आती । जब वह रुककर गिटार धारी व्यक्ति को देखती है तो लोग उसको भगाने लगते हैं ।चलो माना कि भगाना चाहते हैं ;पर गालियाँ देना कहाँ तक उचित है। पर लोग ऐसा करते हैं । लेखक ने इसका बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण किया है ।
जब लड़की ने हैपी बर्थ डे बजाने को कहा तो सभी को बहुत आश्चर्य हुआ। कुछ भी कहने से पहले परिस्थिति को समझना चाहिए। उस लड़की के लिए आज उसके भाई का जन्मदिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण था ,न कि पैसा।
लघुकथा पढकर आँखें तो मेरी भी नम थी। यह लघुकथा मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ती है।
2- लघुकथा यानी कि वह कथा, जो छोटी हो पर सारगर्भित हो। लघुकथा मे विस्तार की सम्भावना नही होती है। सीधे सच्चे और सरल तरीके से बात कही जाती है। परन्तु इसका अंत ऐसा होता है जो पाठक को कुछ सोचने के लिए बाध्य कर दे। जितना मैने जाना है - लघुकथा दर्शन प्रधान होती है। अंत सीधा भी हो सकता है और पलट भी सकता है ;जिसकी सोच पाठक न कर सके, वैसा अन्त सदैव प्रभावित करता है और शायद वही लघुकथा की सार्थकता भी है। लघुकथा सदैव मुद्दे की बात कहती है इसके लघुकथाकार को अपनी बात भाषा- कौशल के साथ पर बिना वर्णन के कहनी होती है। इसी कसौटी पर यदि मै देखती हूँ तो रमेश बतरा की लघुकथा 'लड़ाई '' खरी उतरती है
रमेश बतरा की लघुकथा ''लड़ाई'' संवेदनशील लघुकथा है। अपने पति की मौत का समाचार अपनी सास और ससुर से छिपाना ,छिपाने जैसा नहीं है अपितु उन्हें दुःख न पहुँचाने का एक प्रयास है। जो छोटा लगता है पर वास्तव मै बहुत गहरा और बड़ा है अपने आँसुओं को न दर्शाते हुए स्वयं को सहज रखना और उस पर लजाना एक नारी के लिए बहुत कठिन है ,जबकि उसकी दुनिया लुट चुकी है रमेश बतरा ने इस संवेदना को बहुत सुन्दरता से शब्दों मे पिरोया है।
बहू का का पुनः शृंगार करना इस बात को दर्शाता है की देश पर मरने वाला मरता नहीं शहीद होता है और शहीद हमेशा जीवित रहता है। बंदूकको बगल मे लिटा कर चूमते हुए सोना -इस पंक्ति ने लघुकथा को अमर बना दिया। वह पति को अपने कितना निकट महसूस करती है ; उसकी चेष्टा से अनुमान लगया जा सकता है ।रमेश बतरा की यह लघुकथा जीवन्त हो उठी है।
1- पहला संगीत
अखिल रायजादा
रोज की तरह एक गर्म, बेवजह उमस भरा दिन। पसीने में नहाते, किसी तरह साँस लेते यात्रियों को समेटे लोकल ट्रेन पूरी रफ्तार से चली जा रही थी। यात्रियों की इस भीड़ में मैं भी अपना नया खरीदा गिटार टाँगे खडा था। इस हालत में स्वयं और नए गिटार को सँभालने में बड़ी परेशानी हो रही थी।
सौभाग्यवश दो स्टेशनों के बाद बैठने की जगह मिली। लोकल के शोर में एक सुर सुनाई पड़ा, ‘‘जो दे उसका भला ,जो न दे उसका भी भला.....’’ एक लंगड़ा भिखारी भीख माँगते निकला फिर दो बच्चे भीख माँगते निकले, फिर एक औरत खीरा बेचती आई। एक चायवाला और उसके पीछे गुटका, तम्बाखू, पाउच वाले चिल्लाते निकले। किनारे की सीट पर साथ बैठे परेशान सज्जन बड़े ध्यान से इन्हें देख रहे थे, बोल पड़े–‘‘इतनी भीड़ में भी इन फेरी वालों, भिखारियों को जगह मिल ही जाती है। अभी मेरे ऊपर गर्म चाय गिरते गिरते बची है। आजकल तो छोटे–छोटे बच्चे भी भीख माँग रहे है।
तभी एक लड़की छोटे से लड़के को गोद में उठाए भीख माँगते गुजरी। उनके कटे–फटे कपड़े उनका परिचय करा रहे थे। दूसरे सहयात्री ने कहा–‘‘ये देखिए भावी भिखारी। पता नहीं इनके माँ–बाप पैदा क्यों करते हैं?’’
विगत छह माह से मैं भी इस रूट पर चल रहा हूँ परन्तु मैंने इन बच्चों को पहले भीख मांगते कभी नहीं देखा था। पहले सहयात्री ने कहा–‘‘अरे परसो जिस भिखारिन की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी ये उसी के बच्चे है!’’
अब छोटे बच्चों के भीख माँगने के कारण ने अजीब सी खामोशी की शक्ल ले ली। सभी फेरीवालों, भिखारियों की तरह उस लड़की ने भी बच्चे को गोद में उठाए कई चक्कर लगाए। मैंने ध्यान दिया उसकी नजरें मुझ पर रुकती थी। ट्रेन चली जा रही थी, लोकल का अंतिम पड़ाव और मेरा गंतव्य आने में अब कुछ ही समय बचा था।
बिखरे बाल और उदास चेहरा ओढ़े, फटी हुई किसी स्कूल की ड्रेस में बच्चे गोद में उठाए वो लड़की अब मेरे ठीक सामने थी। मैंने पाया कि इस बार वो ना केवल मेरी ओर देख रही थी बल्कि उसने अपना हाथ भी आगे बढ़ा रखा था। मुझे अपनी ओर देखते वो बोली–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है।’’ अमूमन मेरी जेब में चाकलेट पड़ी रहती है ।मैंने गोद में रखा गिटार किनारे रख कर जेब टटोली दो चाकलेट निकाल कर उसे दी। छोटा बच्चा किलकारी मारता उन पर झपटा, परन्तु बच्ची की उँगली फिर भी मेरी तरफ थी। अब तक इस अजीब सी स्थिति ने सभी यात्रियों का ध्यानाकर्षण कर लिया था। कुछ उन्हें गालियाँ देकर वहाँ से जाने को कहने लगे।
इसके पहले कि मैं कुछ समझूँ उसने कहा–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है...’’ मैं प्रश्नवाचक चिह्न- सा उसे ताक रहा था। वह लड़की फिर बोली–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है। हैप्पी बर्थ डे बजा दो ना....’’ लोकल अपनी रोज की रफ्तार में थी। मैंने केस से अपना नया गिटार बाहर निकाला और हैप्पी बर्थ डे टू यू बजाने लगा। छोटा बच्चा गोद से उतर कर नाचने लगा। सहयात्री आश्चर्य में थे। लड़की की आँखों में अद्भुत चमक थी। ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’’ बजाते पहली बार मेरी आँखें नम थी।
2- लड़ाई
रमेश बत्तरा
ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया। तार बतलाता है कि उनका फौजी बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा....देश के लिए शहीद हो गया है।
‘‘सुख तो है न बहू!’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है?’’
‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’ सास भी आगे बढ़ आई।
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है लड़ाई जल्दी खत्म हो जाएगी....’’
‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मजाक किया।
‘‘कुछ नहीं।’’ कहती वह मानो लजाई हुई–सी अपने कमरे की तरफ भाग गईं
बहू ने कमरे का दरवाजा आज ठीक उसी तरह बन्द किया जैसे हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह....कमरे की हर चीज पर डाली मानो सब कुछ पहली बार देख रही हो....अब कौन–कौन सी चीज काम की नहीं रही.....सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गई। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही। फिर उसने बंदूक दीवार पर से उतार ली। उसे खूब साफ करके अलमारी की तरफ बढ़ गई। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी–सी अटैची निकाली और अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वह जोड़ा पहन लिया जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था।
सज–सँवरकर उसने पलंग पर रखी बन्दूक उठाई। फिर लेट गई और बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते–चूमते सो गई।