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मेरी पसंद - सतिपाल खुल्लर

सतिपाल खुल्लर


अनूदित साहित्य जहाँ किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र की समस्याओं, वहाँ के सभ्याचार संबंधी जानकारी प्रदान करता है। साथ ही यह समझ भी आती है कि क्षेत्र विशेष का साहित्यकार वहाँ की किसी घटना/समस्या को किस तरह अपनी रचना में प्रस्तुत करता है। कोई भी रचना जब किसी घटना को ही नहीं बल्कि किसी समस्या को लेकर साहित्य में प्रस्तुत होती है तो वही सही अर्थों में समाज की तर्ज़ुमानी करती है। जिस रचना में किसी समस्या को नहीं लिया गया होता, वह महज एक लतीफे जैसी ही हो कर रह जाती है।
हिंदी लेखक सुकेश साहनी की रचनाएँ मैंने पंजाबी में भी पढ़ी हैं तथा हिंदी में भी। लघुकथा को एक अलग पहचान दिलाने वाला यह लेखक लघुकथा साहित्य में विशेष स्थान रखता है। लघुकथा के नामकरण से लेकर अंत तक सुकेश साहनी की रचनाएँ कथारस से भरपूर होती हैं। साहनी के लघुकथा संग्रह “ठंडी रजाई”  की सभी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं। साहनी जी प्रतीकों व भौगोलिक परिस्थितियों का मेल बहुत सुंदर ढंग से करते  हैं। ‘रेगिस्तान के खिलाफ़’, ‘पिंजरे’, ‘शिक्षाकाल’, ‘चश्मा’, गणित’, ‘ग्रहण’ तथा ऐसी ही कई अन्य रचनाएँ किसी अन्य लेखक ने लिखी होतीं तो शायद वह इस रूप में नहीं लिख पाता।
साहनी के इसी संग्रह की लघुकथा ‘धुएँ की दीवार’ का विषय (परिवार का बँटवारा) यद्यपि साधारण है, परंतु यह समाज का केन्द्रीय बिंदु है। इस विषय पर अन्य लेखकों ने भी लघुकथाएँ लिखी हैं, लेकिन सुकेश साहनी की रचना में ‘सत्यं शिवं सुंदरं’ के सुमेल की झलक दिखाई देती है। रचना का विषय समाज का सत्य है, प्रस्तुति सुंदर है तथा समस्या कल्याणकारी ढंग से प्रस्तुत हुई है। रचना में कहीं भी गैप नहीं है और न ही कोई फालतू वाक्य या शब्द। भाषा भी स्वाभाविक है। रचना में कथारस मौजूद रहता है। पाठक सोचता है कि आगे रचना में भाई लड़ेंगे, पर साहनी जी समस्या का सकारात्मक हल प्रस्तुत करते हैं।
वह और भी उदास हो गया…टूटे शीशे में मुँह देखना शुभ नहीं होता…
पाठक सोचता है शीशे में तरेड़ है, परन्तु बाद में…
उसने वापस शीशे के सामने आकर तरेड़ पर हाथ फेरा तो एक बाल हाथ में गया, और शीशा साफ हो गया।
पाठक कभी नहीं सोच पाता कि शीशे पर बाल होगा। पाठक लेखक की उँगली पकड़ कर साथ-साथ चलता है। साहनी की अन्य रचनाओं के साथ-साथ यह रचना भी मेरी स्मृतियों में समाई हुई है।
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पंजाबी लघुकथा पंजाबी साहित्य में स्थापित विधा है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह यह भी समय के साथ विकास कर रही है। किसी विधा को एक फ्रेम में जड़ देना उसकी आत्मा को मार देने के समान होता है ;क्योंकि समाज में आए बदलाव मनुष्य के स्वाभाव व उसके कार्यों को प्रभावित करते हैं।
कुछ सहृदय लेखक अपने काम में पूरे ज़ोर-शोर से जुटे हुए हैं। इन लेखकों में श्याम सुन्दर अग्रवाल का नाम सबसे ऊपर है। मैंने कहीं पढ़ा है कि फ़लाँ-फ़लाँ लेखकों ने पंजाबी लघुकथा की बुनियाद रखी। ऐसा बिलकुल दुरुस्त है, लेकिन पंजाबी लघुकथा को जो वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ है, उसका सर्वाधिक श्रेय श्याम सुन्दर अग्रवाल को जाता है।
पंजाबी लघुकथा में सहजता, स्वाभाविकता, समय व स्थान का समन्वय, विषय में नवीनता व उसके निर्वाह सरीखे गुणों को अग्रवाल जी  की लघुकथाओं में देखा जा सकता है। इकहरी परत, विपरीत परिस्थिति, अतिकथन तथा मानवेतर पात्रों के प्रयोग, नीति कथाओं, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं आदि से अग्रवाल ने स्वयं ही दूरी नहीं बनाई बल्कि ‘जुगनुओं के अंगसंग’ कार्यक्रमों में दूसरे लेखकों को भी इनसे बचने की सलाह दी। उनके लघुकथा संग्रहों में शामिल सभी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं। उनकी अनेकों रचनाएँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं तथा वे मेरे ज़ेहन में बसी हुई हैं। उनकी लघुकथा ‘संतू’ मुझे विशेष रूप से प्रिय है।
एक बुज़ुर्ग की मनोदशा को बयान करती यह मनोवैज्ञानिक स्पर्श वाली लघुकथा है। प्रथम दृष्टि में यह एक साधारण-सी घटना लगती है। मगर शब्दों से आगे तह-दर-तह बहुआयामी लघुकथा है। बज़ुर्गों को भी काम करना पड़ता है, विषय तो बस यही है; परन्तु जिस मार्मिक ढंग से छोटे-छोटे वाक्यों से इसे चरम सीमा तक पहुँचाया गया है, वही श्याम सुन्दर अग्रवाल का कमाल है।
“ध्यान से चढ़ना, सीढ़ियों में  कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं, गिर न पड़ना।”
“चिंता न करो जी, मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।”
रचना पढ़ते हुए इस बात का आभास हो जाता है कि संतू गिरेगा। परंतु अग्रवाल ने रचना को इस तरह गूँथा है कि पढ़कर मन को तसल्ली होती है कि पंजाबी लघुकथा अब मजबूत धरातल पर खड़ी है। इस बहुपरती लघुकथा में मुझे बेरोजगारी व कंपनी कल्चर की झलक भी दिखाई देती है कि जब मन किया किसी को काम पर रख लिया तथा जब मन किया उसे काम से हटा दिया। घर की सीढ़ियों से लेकर कंपनी के दफ्तर की लिफ्ट तक को अपनी बाहों में समेटती है यह लघुकथा।
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संतू
                       श्याम सुंदर अग्रवाल
प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बालटी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैने उसे सचेत किया, “ध्यान से चढ़ना! सीढ़ियों में कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।”
“चिंता न करो जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।”
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बालटियाँ पानी ढ़ोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला। दो रुपए का एक नोट और चाय का एक कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, “तू रोज आकर पानी भर दिया कर।”
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर कहा, “रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के! कहते हैं, अभी महीना भर पानी नहीं आएगा नहर में। मौज हो गई अपनी तो।”
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने पानी के लिए बालटी माँगी तो पत्नी ने कहा, “अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर नल में पानी आ गया था।”
“नहर में पानी आ गया !” संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों की ओर कदम घसीटने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों से गिरने की आवाज सुनाई दी। मैने भागकर देखा, संतू आंगन में औंधे मुँह पड़ा था।
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धुएँ की दीवार
सुकेश साहनी
अमीचंद ने कुलाह सिर पर जमाया, फिर शीशे के सामने खड़ा होकर पगड़ी बाँधने लगा। उसकी नज़र शीशे के बीचोंबीच पड़ी बारीक तरेड़ पर ठहर गईं। वह और भी उदास हो गया....टूटे शीशे में मुँह देखना शुभ नहीं होता...आज हाट से दूसरा शीशा ज़रूर खरीदककर लायेगा। बँटवारे के बाद आज पहली बार वह बेलेवालाँ जा रहा था, पर उसके मन में कोई उत्साह नहीं था। पहले हर महीने वह बेलेवालाँ के हाट से सबके लिए ज़रूरी सामान लाता था, दुलीचंद और उसके बच्चों के लिए भी, पर आज.....। उसने खिड़की के बाहर उदास निगाह डाली, अपने पुश्तैनी मकान को दो हिस्सों में बाँटती दीवार उसके दिल को चीरती चली गई। बँटवारे वाले दिन से उसके और दुलीचंद के बीच बातचीत बिल्कुल बंद थी।
बाहर दुलीचंद श्यामा को दुहने की तैयारी कर रहा था। दूसरे अन्य सामान के साथ गाय छोटे भाई के हिस्से में गई थी।
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तभी अमीचंद की नज़र अपनी दस वर्षीया बेटी पर पड़ी, जो हाथ में लस्सी वाला बड़ा गिलास लिये दबे कदमों से अपने चाचा की ओर बढ़ रही थी। वह चिल्लाकर उसे रोकना चाहता था, पर आवाज़ गले में फँसकर रह गई। उसका दिल ज़ोर–ज़ोर से धड़कने लगा।
दुली ने मुस्करा कर अपनी भतीजी की ओर देखा, जवाब में वह भी धीरे से हँसी। दुलीचंद ने उसके हाथ से गिलास लपक लिया और चटपट उसे दूध की धारों से भर दिया।
अमीचंद साँस रोके इस दृश्य को देख रहा था। ठीक उसी समय दुलीचंद की पत्नी घर से निकली। उसे पूरा विश्वास था कि बहू उसकी बेटी के हाथ से दूध का गिलास छीनकर पटक देगी और न जाने क्या–क्या बकेगी। बँटवारे के समय कैसे मुँह   उघाड़कर उसके सामन आ खड़ी हुई थी। अमीचंद यह देखकर हैरान रह गया कि बहू के चेहरे पर हल्की मुस्कान रेंगी और कहीं पति उसे देख न ले, इस डर से उल्टे कदमों भीतर चली गई।
उसकी बेटी ने एक साँस में ही दूध का गिलास खाली कर दिया और वापस घर की ओर दौड़ पड़ी। अमीचंद की आँखें भर आईं‍ ।  उसने वापस शीशे के सामने आकर तरेड़ पर हाथ फेरा तो एक बाल उसके हाथ में आ गया, और शीशा बिल्कुल साफ हो गया। उसे बेहद खुशी हुई, लगा घरके बीच की दीवार अदृश्य हो गई है।
अमीचंद उत्साह से भरा हुआ घर से बाहर आया और अड़ोस–पड़ोस को सुनाता हुआ ऊँची आवाज में बोला, ‘ ‘ओए दुली, मैं बेलेवालाँ जा रहा हूँ। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं। मैं तुम सबके लिए सामान लेता आऊँगा।’’
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