आधुनिक युग में हिंदी लघुकथा साहित्य अत्यंत समृद्ध है । रत्न कुमार सम्भारिया जी की 'आईना' तथा कुमारेन्द्र सेंगर जी की 'माँ' ने मुझे प्रभावित किया है । श्री रत्न कुमार साँभरिया जी एक प्रसिद्ध व सशक्त लेखक है । मानवीय संवेगों पर आधारित उनकी लघुकथा - - आईना - अत्यंत प्रभावोत्पादक बन पड़ी है । यह लघुकथा मुझे अंतस तक छू गयी है।
लघुकथा काव्यात्मक अभिव्यक्ति से आरंभ होती है -- 'फूस का कच्चा घर था , एक । '
सौतिया डाह [ शक ] की आग में चिड़ा पल-पल कैसे जलता है । आग और भड़कती है । उसे तडपाती है । वह क्रिया करता है । वार-प्रतिवार की क्रिया उसे दम तोड़ने पर मजबूर कर देती है । अपनी लगाई आग में स्वयं जल जाता है । दूसरा मारने वाला कोई नहीं । इन्सान अपने लालच , शक, ईर्ष्या , जलन की आग में खुद जलता है ।
इस संवेग का चित्रण पूरी भाव-भंगिमा के साथ सांभरिया जी ने कुशल चितेरे के रूप में किया है -- 'ओह ! यह उसकी संगिनी की करतूत है । मेरी अनुपस्थिति में यह मेरा विकल्प है । यह जितनी भोली - भाली है उतनी ही बेवफा है । मेरे पत्नीव्रत होने का यह सिला । कपताचार । '
स्वाभाविक मानवीय गुण / अवगुण का कथा में पूर्ण निर्वाह हुआ है । पूरी कथा में नकारात्मम सोच विद्यमान है जो चिड़े के अंत का परिणाम सिद्ध होती है । इस लघुकथा के माध्यम से लेखक मानवीय व्यवहार पर करारा व्यंग्य करता है ।
शब्द-विन्यास खरा है ,कुशल है ,सम्पादित है । शुद्ध साहित्यिक व देशज शब्दों का सम्मिश्रण है । ' मुखसंधि, संगिनी , करतूत , अनुपस्थित , उत्तेजित , क्रोधित आदि शब्द सीधे - सरल कथानक को विशेष भाव- भंगिमा प्रदान करते है । छोटे -छोटे वाक्यों से वाक्य-विन्यास को बल मिला है -- ' उसका घर । गैर की मौजूदगी । 'भाषा की सशक्तता के साथ सरलता द्रष्टव्य है । 'खौलता जा रहा था , सर्वांग सुलग उठा ,लावा- सा धधक रहा ,' मुहावरों का सटीक प्रयोग भाषा को व्यंजनात्मक रूप प्रदान करता है । कथावस्तु अंत तक शिल्पगत कसावट लिए है । ' रिपसता -रिपसता ' अनूठा किन्तु सर्वथा उपयुक्त व सटीक प्रयोग । पुराने विषय पर सिध्दहस्त लेखक के भावात्मक तथा कलात्मक स्पर्श से कथ्यव शिल्प में नया आयाम उद्घाटित हुआ है ।
कुमारेन्द्र सेंगर जी एक सशक्त लेखक है । इनकी लघुकथा 'माँ' ह्रदय के अंतरतम कोर को द्रवित कर देती है । माँ का स्थान ऊंचा क्यों है -यह दर्शाने की पुरजोर कोशिश लेखक की रही है । यह माँ के मनोभावों ,आहत मन पर लिखी लघुकथा है । अपने शरीर से अपने बच्चे की भूख शांत न कर सकी । हाथ मे काम नहीं , पैसा नहीं । क्या करे बेचारी ? माँ के सामने उसके छोटे बच्चे भूखे रोयें , यह माँ को स्वीकार नहीं । 'माँ' का भोजन देने का प्रयास इक धोखा ही था । आखिर वह कर ही क्या सकती थी ? खौलते पानी मे चम्मच चलाना - बच्चों को भोजन के प्रति आश्वस्त करना था । माँ के ह्रदय की करुण पुकार को सेंगर जी ने दर्शाया है । बच्चों के सोने के उपरांत भी चम्मच हिलाते रहना - माँ के मनोविज्ञान का परिचय करता है । बच्चों का मनोविज्ञान पढ़ने मे अनपढ़ माँ भी सक्षम है । उसके बच्चे रोयें नहीं, द्रवित न हो, भूखे होकर भी शांत सोते रहे तथा अवचेतन मे ही भोजन का स्वाद लेते रहे । इस भावना का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक व ह्रदय विदारक सुन्दर चित्रण सेंगर जी ने 'माँ' मे किया है ।
स्वाभाविक गुण - माँ को अपने बच्चों का रुदन कितना उद्वेलित करता है -
स्त्रियोचित [माँ] गुण का पूर्ण निर्वाह । करारा व्यंग्य है हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर । कितनी ही अभागिन माएँ अपने बच्चों को अवचेतन में
भोजन का स्वाद कराती है ।
शब्द योजना सार्थक है । वाक्य बड़े पर पूर्ण भाव लिये है । अनावश्य व
बोझिल नहीं है । भाषा सरल व बोधगम्य है । सहज भाषा माँ की भावनाओं को हमारे ह्रदय-पटल तक अनुभूत कराती है । कथा में संवाद नहीं है । घटना विशेष को लेखक शुद्ध, सधे हुए शब्दों में प्रस्तुत करता है । ' अवचेतन, बालमन, गहरी निद्रा, आगोश ' में शुद्ध शब्द संयोजन है । 'तसल्ली खाना,गोद में लुढ़कना ' मुहावरों का सहज व सटीक प्रयोग है ।
'भूख को मिटने के लिए महज धोखा - शब्द संगठन, भाव व कला को समेटे हुए सशक्त अभिव्यक्ति है । 'धोखा ही खिलाती रहे' से व्यंजना झलकती है ।
साथ ही, माँ की बेचारगी भी परिलक्षित होती है । शिल्पगत कसाव द्रष्टव्य है । भावपक्ष व कलापक्ष में समन्वय है । माँ की व्यथा- कथा को जाहिर करती लघुकथा 'माँ' अत्यंत प्रभावोत्पादक बन पड़ी है ।
1- आईना : रत्न कुमार साँभरिया
फूस का कच्चा धर था, एक। फूस में चिडि़या दम्पती न अपना घोंसला बना लिया था। एक दिन घर का मालिक आईना खरीद लाया। उसने आईने को कच्ची दीवार में टाँग दिया था, कील ठोक कर।
एकांत पाकर चिड़ा आईने पर आ बैठा था। वह अपनी चोंच खरखराने के लिए उस पर झुका। उसे आईने में बलिष्ठ का एक चिड़ा दिखाई दिया। उतना ही तगड़ा–ताजा, जितना वह है।
एकाएक एक शंका से चिड़े का सर्वांग सुलग उठा था। ओह! यह उसकी संगिनी की करतूत है। मेरी अनुपस्थिति में यह मेरा विकल्प है। वह जितनी भोली भली है, उतनी ही बेवफा है। मेरे पत्नीव्रत होने का यह सिला! कपटाचार! बेहद क्रोध से चिड़े के नथूने काँप उठे थे। अपने शत्रु को धराशायी करने के लिए चिड़े के अंतस् से क्रोध की लपटें निकलीं।
उसका घर! गैर की मौजूदगी! गुस्सा भरे चिड़े ने उसे चोंच मारी। परछाई ने भी पलटवार किया। वह चोंच–चोंच चोट मारता खौलता जा रहा था। यह चिड़ा भी उतना ही उत्तेजित, क्रोधित और आक्रोशित है, जितना वह खुद है।
उसकी चोंच का जवाब चोंच से और पंजों का जवाब पंजों से बराबर मिलता रहा। वार–प्रतिवार। संघर्षरत चिड़े में थकान भरती गई थी, तथापि उसमें सोतिया डाह का लावा -सा धधक रहा था।
अनवरत प्रहारों में उसे चिड़े की मुखसन्धि पर लहू का एक कतरा दिखाई पड़ा। विजयश्री सन्निकट मान उसने और हिम्मत फूँकी।....वह जितना लहूलुहान था, उतनी ही लहूलुहान थी, उसकी परछाई।
चिड़ा पस्त होकर आईने से रिपसता रिपसता नीचे आ गिरा था।दम तोड़ता चिड़ा खुश था, उसने ‘‘गैर’’ को परास्त कर दिया है।
2- माँ: कुमारेन्द्र सेंगर
माँ अपने दोनों बच्चों का लगातार भूख से रोते नहीं देख सकी। एक को उठा कर अपने सूख चुके स्तन से लगा लिया, किन्तु हड्डियों से चिपक चुके माँ के माँस से ममत्व की धाार न बह सकी, क्षुधा शान्त न हो सकी। भूख की व्याकुलता से परेशान बच्चे रोते ही रहे। भूखे बच्चों को भोजन देने में असमर्थ माँ ने अन्तत: कुछ देने का विचार बनाया। सामर्थ्य जुटा कर चूल्हे की लकडि़यों में आग लगा उस पर पतीली चढ़ा दी और पानी डाल कर चम्मच से चलाने लगी। एक धोखा देने के बाद बच्चों को एक और धोखा; भूख को मिटाने के लिए महज धोखा। खौलते पानी के उठते हुए धुँए से बालमन कुछ तसल्ली खाने लगा। धोखे के भोजन में तसल्ली का स्वाद; फिर भी बच्चे रो–रो कर थक गये। माँ एक हाथ से पतीली के खौलते पानी को चम्मच से चलाती रही और दूसरे हाथ से गोद में लुढ़क चुके दोनों बच्चों को थपकी देती रही। धीरे–धीरे दोनों बच्चे गहरी निद्रा की आगोश में चले गये किन्तु माँ का चम्मच चलाना जारी रहा। इस लालच से कि...शायद पतीली की आवाज़ बच्चों को अचेतन में ही भोजन का स्वाद दिलाती रहे; वह एक धोखा ही खिलाती रहे तथा बच्चे एक और रात ऐसे ही भूखे पेट चैन से सोते रहें।