गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
मेरी पसंद - रीता साहनी
रीता साहनी


विद्यार्थी जीवन में मैंने जीवन में पाठयक्रम में सम्मिलित कहानियाँ ही पढ़ी थीं। लघुकथा ओं से मेरा साक्षात्कार सुकेश जी से विवाह होने के बाद ही हुआ। कहना न होगा कि पहली लघुकथा इनकी ही पढ़ी थी। फिर आगरा प्रवास के दौरान बहुत से लघुकथा लेखकों से मिलने और उनकी रचनाओं को पढ़ने का अवसर मिला। इनके द्वारा विषयों के आधार पर लघुकथा सम्पादन कार्य में सहयोग का अवसर मिला। इस कार्य में संलग्नता के फलस्वरूप शंकर पुणतांबेकर, भगीरथ, सतीशराज पुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु, जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, श्याम सुन्दर अग्रवाल,डॉ.दीप्ति जैसे रचनाकारों की उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिली। यहाँ विशेषरूप से उन रचकारों के नामों का उल्लेख किया है जिनका हमारे यहाँ आना जाना भी हुआ। बहुत से लघुकथा लेखक हैं जिनसे मिलने का अवसर मुझे नहीं मिला, पर उनकी रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया। मेरी पंसद में दो ऐसी ही लघुकथाएँ याद आ रही है। पहली हैं सत्यनारायण की ‘आईना’ एवं दूसरी मुकेश वर्मा की ‘बलि’ ।
‘आईना’ लघुकथा पढ़ने के बाद मैं बहुत देर तक सोचती रही। मध्यवर्गीय परिवारों में असंवाद के बाद भी संबंधों में जो गर्माहट बनी रहती है, उसका बहुत सजीव चित्रण इसमें हुआ है। ‘आईना’ प्रतीक के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी जो संस्कार हमें विरासत में मिलते हैं, उनकी प्रभावी प्रस्तुति हुई है। छोटी सी लघुकथा पढ़ने में किसी बड़ी कृति को पढ़ने जैसी तृप्ति मिलती है। छोटी–छोटी घटनाएँ पाठक को अपनी स्मृतियों में दूर तक ले जाती हैं और वह उनमें डूब जाता है। चर्मोत्कर्ष पर आईने का फर्श पर कई टुकड़ों में बिखरना एवं कथानायक का विलाप लघुकथा को पूर्णता प्रदान करता है और लघुकथा अपने उद्देश्य में सफल रहती है।
मुकेश वर्मा की ‘बलि’ में इंक्यूवेटर में तीन दिन के बच्चे के प्राणों की रक्षा के लिए एम्बेसेडर में दौड़ते परिजनों के अंधविश्वास,संवेदनहीनता का चित्रण हुआ है। गाड़ी से एक कुत्ते के कुचलकर मर जाने पर परिजनों का दुखी होना तो दूर–‘‘अब सब ठीक हो जाएगा, शगुन हो गया। ईश्वर ने एक प्राण ले लिए, एक प्राण छोड़ दिए, कुमार बच जाएगा।’’ जैसी सोच पर लेखक ने ‘बलि’ शीर्षक से प्रहार किया है।
कुत्ते के कुचलने पर किसी का रूकने का मन नहीं था, फिर भी ड्राइवर रुका। ड्राइवर भारी कदमों से लौटा। ड्राइवर ज्यों का त्यों सामने देख रहा था,काँच के उस पार जैसे इस पार से उसे कोई मतलब न हो–जैसे वाक्य लघुकथा में नेपथ्य के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। लघुकथा लेखक बिना रचना में उपस्थित हुए परिजनों की घृणित सोच के विरुद्ध पाठकों के मन में नफरत पैदा करने में सफल रहा है।

 

आईना- सत्यनाराण

आले में आईना रखा रहता। धुँधला, पर हाथ फिराते ही एकदम साफ। पिता रोज सवेरे उसके सामने खड़े हो जाते और आहिस्ता–आहिस्ता अपनी दाढ़ी बनाते। सब कुछ एक ही क्रम में। वह आईना पिता का आईना था। वे सब उसे पिता का आईना कहकर पुकारते ; क्योंकि वे किसी को उसे हाथ नहीं लगाने देते थे। कई बार उनकी अनुपस्थिति में वह आईने के सामने खड़े होकर खुद को देखता तो उसमें तो उसमें उसकी जगह पिता का चेहरा तैरने लगता। वह घबराकर वहाँ से हट जाता।
‘‘जब मैं बड़ा हो जाऊँगा।’’ -वह सोचता।
‘‘इस आईने मे जरूर कोई खास बात है ’’ -मन गुनगुनाता।
‘‘बडे़ हो जाओ ,तब तुम भी इससे अपनी दाढ़ी बनाना। ये तुम्हारे दादा का है।’’
एक दिन पिता ने उससे कहा।
‘‘पिता का आईना।’’ वह हैरान होकर उसे बार–बार छूता।
अपने अन्तिम दिनों में पिता को कम सूझने लगा था। सब कुछ धुँधला–धुँधला। लेकिन सुबह–सवेरे का क्रम कभी भंग नहीं हुआ। वे निश्चित समय आईने के सामने जाकर खड़े हो जाते। उसे अपनी बंड़ी से रगड़कर साफ करते और ब्रश से झाग अपजाकर धीरे–धीरे दाढ़ी बनाते।
एक दिन पिता चल बसे। उसके न आँसू आये न वह दहाड़ मारकर रोया। वह सिर्फ़ सन्न–सा सब देखता रहा और चुप हो गया। बहुत कोशिश की पर आँसू का एक कतरा बाहर नहीं निकला। परिवार के लोग हैरानी से उसे देखते रहे थे।
अब वह खड़ा हो गया था। पता ही नहीं चला धीरे–धीरे कब उसने पिता का स्थान ले लिया। रोज सवेरे उसी तरह उसी आईने के सामने खड़ा होकर दाढ़ी बनाता। शुरू–शुरू में उसमें से झाँकता पिता का चेहरा दिखायी देता। वह डर जाता। धीरे–धीरे उसका और पिता का चेहरा एकमेक हो गया। कई बार वह तय नहीं कर पाता कि वह पिता की दाढ़ी बना रहा है या अपनी।
‘‘तू अभी बच्चा है।’’ कभी ब्लेड से कट लग जाता तो पिता आईने से निकलकर कहते।
‘‘तुम ठीक अपने पिता पर गये हो। तुम्हारा चेहरा, हाव–भाव, आदतें सब कुछ वैसे ही हैं। यकीन न हो तो फोटो से मिलान करके देख लो’’ -पत्नी अक्सर मजाक करती।
उस दिन वह देर से उठा था। पिछले कुछ दिनों से आँखो से धुँधला दिखायी देने लगा था। आईना भी वैसा ही हो गया था। लेकिन हाथ इतने अभ्यस्त हो गये थे कि बिना आईना देखे वह दाढ़ी बना लेता था।
उस दिन देर रात तक नींद नहीं आयी थी। सुबह–सवेरे उनीदें की हालत में आईने तक गया। वह वहीं रखा था, जहाँ रोज रहता था। पर आज उसके हाथ जाने क्यों काँप रहे थे। गालों पर साबुन के झाग लथेड़कर उसने आईना उठाया और बनियान से पोंछा। इसी बीच हाथ से फिसलकर आईना फर्श पर कई टुकड़ो में बिखर गया।
वह थर–थर काँपने लगा और वहीं बैठकर जोर से रोने लगा। जैसे उसके पिता आज मरे हों।


बलि- मुकेश वर्मा

दस वर्ष के कुमार को सामने देखकर मुझे यक–ब–यक तूफानी बारिश को वह भयावह रात याद आ गई, जैसे बिना दस्तक दिए पुराने घर का जर्जर दरवाजा झूलकर खुल गया हो।
अजीब आलम था। बड़े भाई बदहवास। भाभी के हाथ–पैर फूल गए थे। कुछ देर पहले की पारिवारिक खुशियाँ चकनाचूर होकर घर में यहाँ– वहाँ मुँह के बल पड़ी थीं। अभी परसों ही भतीजी के बेटा हुआ था , लेकिन तीसरी शाम को ही निस्तेज होने लगा। डॉक्टरों को बुलाया। जीवन–मरण का संकट ऐन सिर पर खड़ा हो गया। दिल बैठ गया। सलाह दी गई कि फौरन इंदौर में किसी बड़े डॉक्टर को दिखाया जाए। आनन–फानन गाड़ी का इंतजाम किया गया। इसी इंतजाम के चलते धीरे–धीरे बरसती बारिश ने कयामत का रूप ले लिया और आँधी–तूफान के साथ कहर बरसाने लगी।
जैसे–तैसे, गाड़ी में बड़े भाई, दामाद, भतीजी और उसका बेटा लिये हुए भाभी बैठीं। वे रह–रहकर रो रही थीं। इंक्यूवेटर में तीन दिन का बच्चा। ऑक्सीजन का सिलेंडर लिए बगल में मैं बैठ गया था। एम्बेसेडर गाड़ी चलने के पहले कई बार तेजी से हिली–डुली, अटकी और गुर्राई। उस गुर्राहट में कष्ट, करुणा और घबराहट ज्यादा स्पष्ट थी। फिर तेजी से उज्जैन की गलियाँ फलांगती आगे बढ़ी। सौ–दो–सौ कदम ही चले थे कि शहर की तमाम बत्तियाँ गुल हो गई । अँधेरा हमारे भीतर तक आ गया। बड़े भाई ने खिड़की के काँच से सिर टिकाकर आँखें मूँद लीं। भाभी निस्तब्ध अँधेरे को अवाक् बस देख रही थीं। बाहर मूसलाधार पानी, रास्ता टटोलती क्षीण–प्राण पीली रोशनी और यातना के अँधेरे में रह–रह बिजली की तेज चमक और फिर बादलों की दिल दहला देने वाली गड़गडाहटें। जीवन ठहर गया और जैसे सब कुछ सिमट कर गाड़ी के अहाते में कैद हो गया, जहाँ सिर्फ़ अपनी ही नहीं दूसरों की साँसें भी गुम थीं।
बारिश की तेज बौछार सामने के काँच को तहस–नहस करने पर अमादा थी। काँच पिंघल रहा। ड्राइवर फटी हुई आँखों से सामने नजर जमाकर स्टीयरिंग व्हील सँभाल रहा था। मोड़ पर मुड़ते सारा जीवन हिल जाता। अकस्मात् सामने कुछ उभरा। गायब होता दिखा। जोरदार झटके से ब्रेक लगे ,पर देर हो चुकी थी। एक कुत्ते की करुण चीख कानों को छेदती चली गई। किसी का मन रुकने का नहीं था। फिर भी ड्राइवर रुका। दरवाजा खोलकर पीछे भागा। शिकारी टार्च की तेज लाइट में देखा। रोड को बायीं ओर कीचड़ में वह छोटा–सा काला कुत्ता पीठ के बल आकाश में टाँगे फड़फड़ा रहा था। धीरे–धीरे उसकी चीख दुख भरी रिरियाहट में बदल गई। वह समाप्त होगया। फिर बारिश ने जल्दी सब साफ कर दिया।
ड्राइवर भारी कदमों से लौटा। गाड़ी चलते ही बड़े भाई जैसे नींद से जागे हों। चिहुँककर बोले–‘‘अब सब हो जाएगा, शगुन हो गया। ईश्वर ने एक प्राण ले लिये। एक प्राण छोड़ दिये। कुमार बच जाएगा....’’ और वे तंत्र विद्या की परंपराओं और नरबलियों के वृतांत सुनाने लगे। हम सबने राहत की साँस ली। ड्राइवर ज्यों का त्यों सामने देख रहा था, काँच के उस पार जैसे इस पार से उसे कोई मतलब न हो। हम सब धीरे–धीरे अपने आप में लौटने लगे। सामने साँवेर कस्बे की रोशनी चमक रही थी। बड़े भाई ने कहा–‘‘यहाँ चाय पिएँगे। छोटी–मोटी बारिश से क्या फर्क पड़ता है। उठो।’’

 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above