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मेरी पसंद - इला प्रसाद
इला प्रसाद


लघुकथा के नाम से लघुकथा का विकास भले ही पिछली शताब्दी में हुआ हो, लेकिन लघु कहानियों का संसार लोकसाहित्य के रूप में , दृष्टान्त कथाओं आदि के रूप में भारत में बहुत पहले से उपस्थित रहा है। पंचतंत्र की कहानियाँ, लोकसाहित्य में प्रसारवाद का सबसे बड़ा उदाहरण हैं ;जो विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो कर दुनिया भर में फैल गईं एवं विश्व साहित्य के लिए प्रेरणा का स्रोत रहीं। पंचतंत्र की कहानियाँ जो हितोपदेश के नाम से भी जानी जाती हैं, इस अर्थ में भी विशिष्ट हैं कि एक कहानी का सूत्र दूसरे में छुपा हुआ है । इन्हें स्वतंत्र कहानियों के रूप में भी पढ़ा जा सकता है एवं क्रमवार भी।
लघुकथाओं से मेरा पहला परिचय इसी तरह की कथाओं के माध्यम से हुआ। कुछ कथाएँ आठ-दस पंक्तियों की होतीं थी और तब भी अपने आप में सम्पूर्ण। मैं उन्हें बडे शौक से पढा करती। इन कथाओं के स्वरूप या शिल्प की विवेचना मेरी सामर्थ्य से बाहर की चीज थे ;किन्तु हर कथा के अन्त में दिया गया निष्कर्ष या सूत्र वाक्य मुझे बहुत प्रभावित करता था।
लघुकथा इस सफ़र का यात्री प्रतीत होती हैं , लेकिन अपने स्वरूप और गठन में कुछ भिन्न । किसी एक ही भावबोध या विचार पर फ़ोक्स किए हुए । उनकी बनावट भी कुछ इसी तरह की है –किसी घटना या सूत्र वाक्य से उपजी,लेकिन केवल घटना मात्र नहीं।कथ्य के अनुरूप अपने लघु कलेवर में महीन बुनावट से पाठक को घेरती और सीधे उसके मन तक उतर जाती हुई।
वस्तुत: ऐसी ही लघुकथाएँ मानस पटल पर अंकित भी होती हैं, दूरगामी प्रभाव छोड़ती हैं और कालान्तर में विस्मृत नहीं होतीं। हिन्दी लघुकथाओं का वर्तमान संसार ऐसी ही लघुकथाओं से बना है। वह व्यापक है और समृद्ध भी। जीवन के तमाम पहलुओं को समेटती, समाज को आईना दिखाती, अपने उद्देश्य में सम्पूर्ण, लेखन की यह विधा कई खाली दायरों को भरती है।
लघुकथाओं के उसी विशाल कोश से चुनकर, स्मृति पटल पर अंकित दो लघुकथाओं की चर्चा मैं यहाँ करुँगी जो; अपने विषय वस्तु के निर्वाह में मुझे बेजोड़ लगती हैं।
पहली लघुकथा, लघुकथा-लेखन में सिद्धहस्त डा श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की “दीवारें” है, जो दिन -प्रतिदिन छीजते- बदलते जा रहे जीवन- मूल्यों एवं सामाजिक-पारिवारिक सम्बन्धों को दर्शाती है।इस पीढ़ी के युवाओं के पास अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा का खयाल उन्हें अपने बुजुर्गों की पूर्ण उपेक्षा भी नहीं करने देता। वह उन्हें घर की चारदीवारी में कैद ही नहीं देखना चाहता, अपनी मर्जी से चलाना, अपना अनुशासन भी थोपना चाहता है। दूसरी ओर वृद्ध पिता को सामाजिक सम्बन्धों की आवश्यकता है,प्रकृति के सामीप्य की, संवाद करने की आवश्यकता है। वे उसे ऊर्जा देते हैं, अपने होने का अहसास कराते हैं ;वरना घर के अन्दर जो संवादहीनता है ;वह दीवार-सदृश हैं, जि्समें उसका दम घुटता है। पंखे और टी वी उसे वह साथ- सुकून नहीं दे सकते ;जो दो लोगों से बातें करके वह पाता है। कथा के संवाद दो पीढ़ियों के अन्तर को दर्शाते हैं। यह अन्तर सोच का अन्तर भी है, जीवन- दर्शन का भी।
दूसरी लघुकथा हसन जमाल की “खुशफ़हमी” है। दार्शनिक आधार लिये यह लघुकथा अपने- आप में मौजूदा जीवन दर्शन पर एक बड़ा व्यंग्य है । बदलते समय के साथ चलने की कोशिश में हम भागते रहते हैं। यह भी चाहते हैं कि सबसे आगे निकल जाएँ। जीवन में सफ़ल होने को,अपने अभीष्ट को पा लेने को सर्वोपरि मानते हुए लगातार भागते रहकर हम भले ही यह खुशफ़हमी पाल लें कि हम सबसे आगे निकल गये हैं, सच यह है कि सबसे आगे होने की अपनी उस कोशिश में हम कई बार अपना तमाशा बना रहे होते हैं। वस्तुत: हमें अहसास ही नहीं होता कि हम कर क्या रहे हैं। इस आपाधापी में हम जीवन जीना ही भूल चुके होते हैं।

1- डॉ.श्याम सुन्दर दीप्ति

दीवारें

“ससरी ’काल बापू जी! और क्या हाल है?” कश्मीरे ने घर के दरवाजे के सामने गली में चारपाई पर बैठे बापू को कहा और साथ ही पूछा, “जस्सी घर पर ही है?”
“हाँ बेटा! और तू सुना, राजी हैं सब?”
“हाँ बापू जी! मेहर है वाहेगुरू की! आपको शहर की गली में पेड़ के नीचे बैठा देख, गाँव की याद आ गई। शहरी तो बस घरों में ही घुसे रहते हैं…अच्छा बापू, मैं आता हूँ जस्सी से मिलके।” कहकर वह अंदर चला गया।
जस्सी ने कश्मीरे के आने की आवाज़ सुन ली थी। वह कमरे से बाहर आ गया और कश्मीरे को गले मिलता अंदर ले गया।
अपनी बातें खत्म कर कश्मीरे ने पूछा, “और बापू जी कब आए?”
“तबीयत कुछ खराब थी, मैं ले आया कि चलो शहर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देंगे। पर इन बुजुर्गों का हिसाब अलग ही होता है। कार में बिठाकर ले जा सकते हो, टैस्ट करवा सकते हो, पर दवाई-बूटी इन्होंने अपनी मर्जी से ही लेनी होती है।” जस्सी ने अपनी बात बताई।
“चलो! तूने दिखा दिया न। अपना फर्ज तो यही है बस।”
“वह तो ठीक है। अब तूने देख ही लिया न, घर के अंदर कमरों में ए.सी. लगे हैं, कूलर-पंखे सब हैं। पर नहीं, बाहर ही बैठना है, वहीं लेटना है। बुरा लगता है न। पर समझते ही नहीं।”
“तूने समझाया?” कश्मीरे ने बात का रुख बदलते हुए कहा।
“बहुत माथा-पच्ची की।”
“चल। सभी को पता है, इन बुजुर्गों की आदतों का।” कहकर वह उठ खड़ा हुआ।
वह बाहर आ एक मिनट बापू के पास बैठ गया और उसी अंदाज़ में बोला, “बापू, तूने तो शहर का दृश्य ही बदल दिया।”
“हाँ बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता-जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो बातें सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही देखते रहते हैं।”
“यह तो ठीक है बापू! जस्सी कह रहा था, सभी कमरों में टी.वी. लगे हैं। वहाँ भी दिल बहल जाता है।” कश्मीरे ने अपनी राय रखी।
“ले ये भी सुन ले। मैं तो उसे दीवार ही कहता हूँ…अब पूछ क्यों?…बेटा, कोई उसके साथ अपने दिल की बात तो नहीं बाँट सकता न।”

2- हसन जमाल

खुशफहमी

वह आदमी बेतहाशा भागा जा रहा था, बगटुट। मानो अगर वह कहीं ठहर गया तो पिछड़ जाएगा, हार जाएगा। लोग उसे अचरज से देख रहे थे, लेकिन उसको किसी की परवाह न थी।
आखिरकार एक जगह एक शख्स ने उसे रोक लिया। हालाँकि उस शख्स को भी इसके लिए दौड़ लगानी पड़ी थी, लेकिन भागनेवाले आदमी की बाँह उसके हाथ में आ गई, ‘‘क्यों भाई! तुम इस कदर तेजी से कहाँ भागे जा रहे हो? क्या तुम पर कोई विपदा आन पड़ी है?’’
उसने नाराज होकर रोकनेवाले शख्स को देखा और माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘जानते नहीं, जमाना कितनी तेजी से भाग रहा है? मैं किसी से पिछड़ना नहीं चाहता।’’
‘‘लेकिन श्रीमान, आपके आगे तो कोई नहीं है।’’
‘‘तुम ठीक कहते हो। मैं सबसे आगे निकल आया हूँ।’’
‘‘लेकिन आपके पीछे भी कोई नहीं है।’’
इस बार भागनेवाले आदमी के चेहरे पर चिंता के भाव उभरे। पीछे मुड़कर देखा। फिर जरा निश्चिन्त होकर बोला, ‘‘क्या सब के इतना पीछे रह गए हैं? उफ! बेचारे!’’
और वह इत्मीनान से रूमाल निकालकर पसीना पोंछने लगा।

 
 
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