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मेरी पसंद - सुमन कुमार घई
सुमन कुमार घई


हमारा जीवन लघुकथाओं की शृंखला है; जो हम जीते हैं। बचपन से बुढ़ापे तक या कहा जाए जन्म से मृत्यु तक के अनुभव हमारी जीवन की कहानी के अलग-अलग खण्डों के उपखण्ड; लघुकथा हैं। यह लघुकथाएँ कभी आत्मपरक हो जाती हैं तो कभी लेखक किसी पात्र को जन्म देकर अपने भोगे सत्य या देखे सत्य को काल्पनिक संभावनाओं का जामा पहना कर पाठकों के सामने रख देता है। शायद इसी लिए लघुकथाएँ वास्तविक जीवन के अधिक समीप होती हैं। लंबी कहानी में इस बात की अधिक छूट रहती है कि वह पूरी तरह से काल्पनिक हो, क्योंकि उसमें लेखक के पास पृष्ठभूमि रचने की गुंजाइश होती है। लघुकथा में लेखक को पाठकों के परिचित परिवेश में रचना करनी होती है।
क्योंकि लघुकथा जीवन के अधिक समीप होती है इसी लिए वह पाठक को किसी काल्पनिक लोक में अपने साथ यात्रा पर नहीं ले जाती बल्कि एक ठोस धरातल पर रहते हुए पाठक की संवेदनाओं को उसके मानसिक स्तर पर उद्वेलित करती है। यहाँ पर भोगे हुए सत्य का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि यह भोगा हुआ सत्य कई बार पाठक और लेखक का साझा होता है। वैसे भी लेखक अपने लेखन से अपने और पाठक के बीच एक संपर्क स्थापित करता है।
मेरी पसन्द की लघुकथाएँ कौन सी हैं- बहुत कठिन प्रश्न है। समय के अनुसार हर रचना का प्रभाव चाहे वह किसी भी विधा की हो, अलग-अलग रहता है। फिर भी कुछ रचनाएँ ऐसी होती हैं जो इन सीमाओं से परे होती हैं। ऐसी रचनाएँ मनःस्तल में कभी एक मुस्कुराहट, कभी एक गुदगुदी या कभी एक पीड़ामयी खरोंच की तरह रह जाती हैं। अंतिम श्रेणी की रचनाएँ मैं अपने मन के अधिक करीब पाता ;क्योंकि यह पीड़ा मेरी अपनी बन जाती है। मुस्कुराहट... आप किसी के साथ बाँट सकते हैं – सशक्त साहित्य से अकेलेपन में जब आँख भर आती है तो वह आँसू की बूँद मेरे लिए बहुमूल्य होती है और मैं स्वार्थी हो जाता हूँ – किसी के साथ बाँटता नहीं।
ऐसी ही दो रचनाएँ हैं जो बरसों से भूल नहीं पाया हूँ – एक है सुकेश साहनी की "गोश्त की गंध" और दूसरी है रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की "ऊँचाई"। यह दोनों रचनाएँ शायद इसलिए मन पर प्रभाव छोड़ गईं क्योंकि यह मध्यवर्गीय परिवार के संघर्ष को व्यक्त करती हैं – जिसका मैं अभिन्न अंग रहा हूँ। भारत में बिताए बचपन के अनुभव "गोश्त की गंध" में मैंने देखे हैं – कुछ व्यक्तिगत से, कुछ जाने-पहचाने से। गोश्त की गंध में जो बिम्ब सुकेश साहनी ने उकेरे हैं उनसे बरबस मुझे फ़रीदा कालो की पेंटिंग "माई नर्स एंड मी" (१९३६) की याद आ जाती है। मैक्सिकन माँ की कटी छाती से दूध और आँसू पीती फरीदा और उसी तरह कहानी की सभी पात्रों के कटे अंग प्रत्यंगों का परोसा जाना – काल और देश की सीमा को लाँघती एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति, एक -सा भाव!
दूसरी लघुकथा "ऊँचाई" में पैसे की तंगी की तराजू में तुलते पिता-पुत्र के संबंध। विवशता और दायित्व की उलझन की सशक्त अभिव्यक्ति। कौन कह सकता है कि लघुकथा अपने सीमित शब्दों में मानवीय संवेदनाओं के इन्द्रधनुष के सभी रंगों को पन्नों पर नहीं उतार सकतीं।
दोनों लघुकथाओं के अंत में एक- सा भाव – पीड़ा से उपजी ऐसी खुशी जो बाह्य नहीं आंतरिक है – कृतज्ञता का भाव लिये हुए।
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1-गोश्त की गंध
सुकेश साहनी


दरवाज़ा उसके बारह वर्षीय साले ने खोला और सहसा उसे अपने सामने देखकर वह ऐसे सिकुड़ गया जैसे उसके शरीर से एक मात्र नेकर भी खींच लिया गया हो। दरवाज़े की ओट लेकर उसने अपने जीजा के भीतर आने के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थिपंजर-से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।
भीतर जाते हुए उसकी नज़र बदरंग दरवाज़ों और जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर पर पड़ी और वह सोच में पड़ गया। अगले कमरे में पुराने जर्जर सोफे पर बैठे हुए उसे विचित्र अनुभूति हुई। उसे लगा बगल के कमरे के बीचोंबीच उसके सास-ससुर और पत्नी उसके अचानक आने से आतंकित होकर काँपते हुए कुछ फुसफुसा रहे हैं।
रसोई से स्टोव के जलने की आवाज़ आ रही थी। एकाएक ताज़े गोश्त और खून की मिली-जुली गंध उसके नथुनों में भर गई। वह उसे अपने मन का वहम समझता रहा पर जब सास ने खाना परोसा तो वह सन्न रह गया। सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिल्कुल ताज़ा टुकड़े तैर रहे थे। बस, उसी क्षण उसकी समझ में सब कुछ आ गया। ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज़ पहनकर बैठे हुए थे, ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके। अपनी तरफ से उन्होंने शुरू से ही काफी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्ढों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा-सा दुपट्टा ओढ़े बैठी थी ताकि कहाँ-कहाँ गोश्त उतारा गया है, समझ न सके। साला दीवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झाँकती गोश्त रहित जाँघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी पत्नी सब्जी की प्लेट में चम्मच चलाते हुए कुछ सोच रही थी।
राकेश जी, लीजिए....लीजिए न!” अपने ससुर महोदय की आवाज उसके कानों में पड़ी।
मैं आदमी का गोश्त नहीं खाता!!” प्लेट को परे धकेलते हुए उसने कहा। अपनी चोरी पकड़े जाने से उनके चेहरे सफेद पड़ गए थे।
क्या हुआ आपको?....सब्जी तो शाही पनीर की है!”.....पत्नी ने विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए कहा।
बेटा, नाराज़ मत होओ....हम तुम्हारी खातिर में ज़्यादा कुछ कर नहीं....” सास ने कहना चाहा।
"देखिए, मैं बिल्कुल नाराज़ नहीं हूँ।” उसने मुस्करा कर कहा, “मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना माँस परोसना बन्द कीजिए। जो खुद खाते हैं, वही खिलाइए। मैं खुशी-खुशी खा लूँगा।”
वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नज़र अपने साले पर पड़ी । वह बहुत मीठी न्ज़रों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास-ससुर इस कदर अचंभित थे जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ़्त से आज़ाद कर दिया हो। पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। यह सब देखकर उसने सोचा....काश, ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!

2-ऊँचाई
रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज़्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”
"नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।
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